कवि पंकज सिह की शोक सभा, 14 जनवरी 2016, गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली |
मनुष्य जितना सामान्य होता है, या दिखता है, कभी-कभार जीते जी उस छवि को असामान्य तरीके से तोड़ कर आपको हैरत में डाल सकता है। पिछले पांच घंटे से मैं निस्तब्ध हूं, कि मैंने आज सविता सिंह को पंकज सिंह पर बोलते सुना है। मेरे कानों में अब भी उनके शब्द गूंज रहे हैं। मैं हैरत में हूं, कि आज मैंने सविता सिंह को पंकज सिंह पर बोलते सुना है और मैं हैरत में हूं।
कौन हैं सविता सिंह? पंकज सिंह की पत्नी? एक प्रोफेसर? एक कवियत्री? पता नहीं। ठीक-ठीक नहीं कह सकता। आखिर किन आधारों पर हम लोग किसी की छवि गढ़ लेते हैं? सिर्फ छोटी-मोटी दुनिया-जहान की कानाफूसियों पर? याद है, तब सविता सिंह का एक कविता संग्रह आया था, ”नींद थी और रात थी”। केदारनाथ सिंह ने उस पर लोकार्पण में वक्तव्य दिया था। बाद में ‘इंडिया टुडे’ हिंदी में केदारनाथ सिंह की बाइलाइन से संग्रह की समीक्षा छप गई। थोड़ी हैरत तो हुई, कि केदारजी समीक्षा क्यों करने लगे भला? तब जिस कवि ने यह बात बताई थी कि पंकज सिंह ने दरअसल रिकॉर्डेड वक्तव्य को कलमबद्ध कर के समीक्षा के रूप में केदारनाथ सिंह के नाम से पत्रिका में दे दिया था, वह शख्स आज गांधी शांति प्रतिष्ठान में मौजूद नहीं था ‘पंकज भाई की याद में’। तब उसने बड़ी हिकारत से यह किस्सा सुनाया था और हमने भी इस एक घटना पर अपना मन बना लिया था। बाद में पंकजजी और सविताजी से जुड़ी हर बात को देखने का हमने एक चश्मा गढ़ लिया।
मुझे लगता है कि दिल्ली में बीते दसेक साल में ऐसी शोकसभा मैंने कभी नहीं देखी, जिसने जिंदगी की तुच्छताओं की ओर भीतर तक गहरे इशारा कर दिया हो। मेरा चश्मा गलत था या सही, पता नहीं लेकिन इतना तो लगता है कि कोई भी चश्मा आखिरी नहीं होता। वह टूटता है मौत की सान पर। हर मौत के बाद एक चश्मा टूटता है। कुछ मौतें ऐसी होती हैं जिनके बाद एक चश्मा फूटता भी है। गहरे भीतर से। पंकजजी की मौत के बाद उन्हें देखने का चश्मा शायद न भी टूटा हो, लेकिन आज शाम एक चश्मा भीतर से फूटा ज़रूर है। यह चश्मा बहते हुए सविता सिंह की ओर जाता है, जिन्होंने आज तक कभी भी मेरा मित्रता अनुरोध फेसबुक पर स्वीकार नहीं किया। ज़ाहिर है, मेरी शादी के बाद उनके पास मुझे याद रखने की कोई खास वजह नहीं रही होगी पंकजजी की तरह, जो रह-रह कर बीते ग्यारह साल में लगातार मिलते रहे और मुझे सहलाते रहे। गले लगाते रहे। चार साल पहले एक शाम मेरी बदतमीजि़यों पर भी चुपचाप मुस्कराते रहे।
क्या उस शख्स को आज पछतावा हो रहा होगा, जिसने मुझसे भीतर की एक बात साझा कर के इतने बरस पहले इस दंपत्ति की ओर से मेरा मन खराब कर दिया था? मुझे बेशक हो रहा है, क्योंकि मैंने आज जिस सविता सिंह को सुना है, उसको मैं कभी नहीं जानता था। सविताजी अपने पति के बारे में बोल रही थीं, एक विलक्षण कवि के बारे में या एक असामान्य मनुष्य के बारे में, फ़र्क कर पाना बेहद मुश्किल था। जीवनसाथी की मौत के बीस दिन बाद कोई इतना आर्टिकुलेट, इतना सूक्ष्म, इतना काव्यात्मक, इतना गूढ़, एक साथ कैसे हो सकता है? एक साथ इतना सब्जेक्टिव और उतना ही ऑब्जेक्टिव कैसे हो सकता है? उन्होंने जब यह कहा कि वे जिंदगी भर अपने पति को मौत से बचाने में ही लगी रहीं क्योंकि उस शख्स को मौत से डर नहीं लगता था; कि पंकज में इतना वेग था कि उस वेग पर लगातार मौत की छाया बनी रहती थी; कि हर प्रगतिशील और द्वंद्वात्मक सभ्यता का आधार प्रेम होता है; कि हर बार बीमारी से जब वह शख्स उठ खड़ा हुआ तो वह वही पंकज सिंह था; कि उसकी कविताओं में खून का गाढ़ापन, चिपचिपापन, मौत, आदि के बिम्ब दरअसल उसकी जिंदगी का यथार्थ थे, जिसे मैं जिंदगी भर खून से भरे चादर के रूप में समेटती रही; ऐसा करते वक्त एक बार मैं बेहोश तक हो गई; और करुणा, जो पंकज का सहज भाव थी और वह किसी का भी दुख झट साझा कर लेता था; he was an extraordinary man…
उस वक्त मुझे लग रहा था कि दुनिया की किसी भी शोकसभा में किसी भी पत्नी की ओर से दिया गया यह वक्तव्य extraordinary है। मैं ऐसी सविता सिंह को न जानता था, न मानता था। क्या प्रिय की मौत वाकई इतना कुछ सिखा देती है? या फिर हम उन्हें अमर्त्य मानने की भूल कर बैठते हैं जिनके बारे में नकारात्मक धारणाएं गढ़ कर बैठ जाते हैं?
पंकजजी से मेरा अबोला चार साल तक रहा। एक छोटी सी गलतफ़हमी थी। मुझे लगता था उनकी ओर से भी है। मैंने एक दिन मिलने पर पूछा, ”आप मुझसे नाराज़ चल रहे हैं?” उन्होंने ठहाका लगाते हुए कंधे पर भारी-भरकम हाथ रखा और आश्वस्त करते हुए बोले, ”कैसी नाराज़गी? नाराज़गी अपनों से थोड़े ही होती है। खुश रहो। छोटी-मोटी बातें होती ही रहती हैं।” मुझे तब भी लगा कि सविताजी वाले सिरे को कैसे सुलझाया जाए? क्या एक दिन लंदन वाली अर्ल ग्रे चाय पीने के बहाने पहुंचा जाए छापामार तरीके से अचानक? मन बन ही रहा था, कि उनके कान से खून बहने लगा। हीमोफीलिया का अटैक फिर आया था। वे मिले, तो कान में रुई के फाहे ठुंसे हुए थे और चेहरा कमजोर था। मैंने कहा कि मैं आपके यहां आने ही वाला था…। उन्होंने गाल थपथपा दिया। आंखों में कुछ झलका, जैसे थोड़ा-बहुत पानी बच रहा हो मेरे लिए। बोले, ”होता है… ये सब बातें दिल से नहीं लगानी चाहिए। तुम्हें अभी बहुत काम करना है। अच्छा लिख रहे हो, मैं लगातार देख रहा हूं।” ”लेकिन सविता जी… ”, कहते-कहते मैं रुक गया।
यह मेरे लिए अब भी रहस्य है कि सविताजी ने मेरी शादी के बाद मुझसे कभी कोई बात क्यों नहीं की। आज उन्हें सुनकर लगा कि मैंने उनसे दस बरस की बची-खुची सारी बात कर डाली है। उन्होंने इस शोक सभा में जो कुछ कहा, उसके बाद कुछ कहने को बचता नहीं है। लिखने को भले बचता हो। शायद, मैं इसलिए ज्यादा हलका महसूस कर रहा हूं क्योंकि अगर मैं खुद को सविता सिंह की जगह रख कर देखूं तो मैं अपने पति की शोक सभा में जो कहना चाहता, बिलकुल वही आज उन्होंने कह दिया। बिलकुल वैसे ही। मैं पंकज सिंह शायद न होना चाहूं, लेकिन आज जिस सविता सिंह को मैंने देखा और महसूस किया, वह मैं एक बार ज़रूर होना चाहूंगा।
घर आकर मैंने पत्नी से ये सारी बातें साझा की हैं। वह सो नहीं पा रही है। रोते-रोते रह गई है। उसे वह डबल बेड की चादर याद आती है जो हमारे रिसेप्शन में पंकज सिंह और सविता सिंह ने दी थी। आज की शाम सविता सिंह के कहे शब्द ऐसी जाने कितनी ही चादरों पर जमे हीमोफीलिया के खून के थक्कों से मिलकर रचे गए होंगे। उन्होंने आखिर क्या सोचकर चादर भेंट की रही होगी? क्या वह साफ-शफ्फाक चादर कोई सपना थी? या किसी सपने का सपना? वह सपना, जिसे पहले ही दिन से पूरा नहीं होना था क्योंकि पंकज सिंह ने शादी से पहले ही सविताजी को बता दिया था कि उन्हें हीमोफीलिया है? और जिसे यथार्थ की अपनी परिचित ज़मीन पर वे स्नोफीलिया जैसा कुछ समझ बैठी थीं? दोनों जानते थे कि उनके साहचर्य का यथार्थ दरअसल साझा सपनों की विस्तृत चादर पर रिसते खून के धब्बों से ज्यादा कुछ नहीं है। यह जानते हुए भी पंकज सिंह का आजीवन पंकज सिंह बने रह जाना सिर्फ और सिर्फ उसी सविता सिंह के कारण मुकम्मल और मुमकिन हुआ, जिसे आज मैंने देखा और सुना है।
आज की शोकसभा में एक पत्नी नहीं बोल रही थी। एक कवियत्री भी नहीं। एक प्रोफेसर भी नहीं। मुझे सविता सिंह के शब्दों में, शब्दों की थरथराहट में, एक मां की सी निस्सारता जान पड़ रही थी, गोया एक औरत ने अपना पति नहीं बेटा खोया हो। मेरा चश्मा उसी मां के लिए फूटा जाता है…। और मैं हैरत में हूं…। इसलिए नहीं कि आज मैंने सविता सिंह को पंकज सिंह पर बोलते सुना है। इसलिए, क्योंकि उसके ठीक बाद मैंने सभागार में पसरते हुए विलंबित सन्नाटे को महसूस किया है। यह कतई मामूली बात नहीं है। मुझे हैरत है कि यह शोकसभा दिल्ली में थी। अगर शोकसभा ऐसी है, तो पंकज सिंह की मौत कैसी होगी, इसकी कल्पना केवल वही कर सकता है जिसने आज सविता सिंह को सुना है। सोच रहा हूं कि क्या कोई शोकसभा मौत पर भारी हो सकती है?
मैं आजीवन कहने का हक़दार हो गया हूं कि मैंने दिल्ली की एक शोकसभा में शोक को सामने पसरते हुए देखा है। मेरी गवाही वे सारे लोग देंगे जो उस एक पल, सविताजी के बोलने के ऐन बाद, उस शोक के आगोश में निस्तब्ध थे, मंत्रबिद्ध थे, संज्ञाशून्य थे।
(अभिषेक श्रीवास्तव)
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अभिषेक भाई ने यह लिखकर पंकज सिंह की याद में हुयी उस गोष्ठी को अविस्मर्णीय बना दिया .मुझे न जा पाने का अफ़सोस था लेकिन यह पढ़ने का बाद जिस तरह की कचोट मैं महसूस कर रहा हूँ उसे बताया नहीं जा सकता. पंकज सिंह से मेरी मुलाकात पिछले आठ सालों में कम से काम 10 बार हुयी होगी हर बार मैंने उन्हें नये सिरे से समझा. वे हर बार उनके प्रति मेरी समझ में कुछ नया जोड़ देते थे. आखिरी बार मुज्ज़फरपूर में 28-29 नवम्बर को उनसे मिलना हुआ था .इस बार तय हुआ था दिल्ली में उनसे मिलने का. एक दो बार उनको फोन करने की बात सोची भी ,लेकिन अपने संकोच और आलस्य की वजह से रुक गया ….. लेकिन इस बार उन्होंने मौका नहीं दिया.
स्तब्ध और नि:शब्द करते शब्द।भीतर उतर कर सन्नाटा बुनते शब्द। पंकज जी को नमन।
स्तब्ध और नि:शब्द करते शब्द।भीतर उतर कर सन्नाटा बुनते शब्द। पंकज जी को नमन।