चीज़ें फिसल रही हैं खुली मुट्ठियों से…
खड़ी हथेली के निचले हिस्से में होती थी एक तलवार सी
और काटने को हवा-सा कुछ अदृश्य!
हम जानते थे कि नहीं कट सकतीं जो चीज़ें
उन्हें काटना ही है क्रांति-
जैसे हवा, जैसे पानी…
कुछ-कुछ कुंगफू सा था जीवन।
तो तान लेते मुट्ठियां आकाश में
बगैर सोचे एक बार भी
कि जिनके तलुवों पर टिका है आकाश
वो हम ही तो हैं!
जी जाने के लिए ये बोध ही बहुत था
खासकर, एक ऐसे समय में
जो दरअसल हमारा नहीं था।
समय के इस छोर पर था अपराधी इतिहास
और उस छोर दमकता लाल आकाश।
बीच में टिटिहरी से हम
टांय-टांय करते बहुत खुश थे
उम्मीद से थे-
कि कभी तो बरसेगा पानी।
ग़ौर से देखें तो ऐसा कुछ भी नहीं बदला इस दौरान।
आंखों को याद हैं अब भी वे चेहरे
जिनके फैसलों की थे हम पैदाइश।
अब भी दिख जाता है क्षितिज पर चमकता लाल सितारा।
पिटती हैं बीवियां,
रोते हैं बच्चे,
और जलते हैं घर।
हाथ हमारे सलामत हैं।
बेशक, वे पन्ने हैं गवाह
जिन पर अब भी लिख पा रहे हैं हम कविताएं।
और ऐसा न भी हो, तो
देने को तैयार हैं हम गवाही
दुनिया की किसी भी अदालत में,
छूकर कोई भी धर्मग्रंथ
उन्हीं हाथों से।
हवा भले अब और ज़हरीली हो
लेकिन कटती नहीं।
पानी और भी गंदा
फिर भी नहीं कटता।
अपनी-अपनी जगह कायम हैं सारी कुंठाएं
और मुट्ठी बांधने का सलीका भी हम नहीं भूले।
फिर ऐसा क्या हो गया इस बीच
कि सबसे गंभीर बातें कही जाने लगीं मज़ाक में
और गंभीरता बन गई हास्यास्पद…?
क्या हो गया ऐसा
कि डर लगने लगा खुद से
और
किसी अनिष्ट से बचने की कोशिश में
दुहराने लगे हम गलतियों को?
सारी चेतना हर ली बचने-बचाने के तौर-तरीकों ने
और ज़मीन के गड्ढों पर ही टिकने लगी नज़र!
अच्छा…
अब तो चेताने के लिए वे साथी भी नहीं दिखते
जो पहले हर ग़लती को ठहराते थे
पेटी-बुर्जुआ विचलन
कहां गए सब…?
पता नहीं क्या बात है, लेकिन
अब चाय भी राहत नहीं देती
अदरक वाली हो, तो भी…
सिगरेट से पहले निकलता था जो धुआं
वो अब पूरे दिमाग में भर गया सा लगता है
और जो कुछ निकलता है बाहर
उसे अफसोस से ज़्यादा क्या नाम दें।
अब पैसे भी होते हैं अक़सर जेब में
बस पता नहीं होता कितने हैं
और अब तो किताबें खरीदना कहीं ज़्यादा आसान है
बस एक संकट है
पढ़कर बताएंगे किसे…!
क्योंकि बताने से, सुनाने से ही ठहरती है बात
क्योंकि बचाने से, संवारने से ही ठहरती हैं चीज़ें
और चीज़ें हैं कि
फिसलती ही जा रही हैं खुली मुट्ठियों से।
बातें हैं
कि जिन पर कोई बात ही नहीं होती।
बरबस लगता है कि
अब तक नहीं हुआ जो, वो बस
हो जाएगा अभी-अभी।