गांधीवाद को भ्रम की टोपी पहना रहे आनंदमार्गी प्रोफेसर!


अभिषेक रंजन सिंह 
जनता को सब्ज़बाग़ दिखाने में माहिर आम आदमी पार्टी अब गांधीवादियों को भी बरग़लाने लगी है. हाथ में तिरंगा, सिर पर गांधी टोपी और मुंह से राजनीतिक शुचिता की बात करने वाले पार्टी नेताओं के दर्शन, आचरण और सिद्धांत में गांधीवाद की कोई झलक नहीं मिलती. लोकसभा चुनावों में चंद सीटों का इंतज़ाम कैसे हो, इसके लिए आम आदमी पार्टी हर किस्म का प्रयोग करना चाहती है. पार्टी की ओर से अब तक घोषित ज़्यादातर लोकसभा उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि देखें, तो वे विदेशी अनुदान से संचालित होने वाले एनजीओ से जुड़े रहे हैं. ऐसे में गांधीवादी मूल्यों पर अद्वितीय राजनीति करने का दंभ भरने वाले केजरीवाल को यह बताना चाहिए कि पूंजीवाद के मार्ग पर चलते हुए गांधीवाद के लक्ष्य को कैसे पूरा किया जा सकता है।   
पिछले महीने दिल्ली स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान में गांधीजनों की दो दिवसीय बैठक आयोजित की गई थी. विशुद्ध गांधीवादियों की इस बैठक में आगामी लोकसभा चुनावों में उनकी क्या भूमिका होनी चाहिए, इस पर विस्तृत चर्चा हुई. उक्त बैठक में वयोवृद्ध गांधीवादी नारायण देसाई, गांधी स्मारक निधि के सचिव रामचंद्र राही, एस एन सुब्बाराव, सर्व सेवा संघ की पूर्व अध्यक्ष राधा भट्ट और अमरनाथ भाई के अलावा गांधीवादी लेखक-पत्रकार कुमार प्रशांत और गिरिराज किशोर भी शामिल थे.

अगले दिन कुछ अख़बारों में यह ख़बर प्रकाशित हुई कि गांधीवादी लोकसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को सशर्त समर्थन देंगे. जब इस बाबत गांधीवादी बुद्धिजीवियों से पूछा गया, तो उन्होंने इस तरह की बातों को नकार दिया. 

दरअसल, गांधी शांति प्रतिष्ठान में हुई उक्त बैठक में जवाहर लाल नेहरू विश्‍वविद्यालय (जेएनयू) के प्रोफेसर प्रो. आनंद कुमार भी शामिल थे. यह पूरी तरह ग़ैर-राजनीतिक था, लेकिन प्रो. आनंद कुमार की मौजूदगी और उनके संबोधन से आम आदमी पार्टी को समर्थन देने संबंधी भ्रम पैदा हुआ. किसी ज़माने में समाजवादी छात्र राजनीति करने वाले और अब आम आदमी पार्टी के थिंक टैंक कहे जाने वाले प्रो. आनंद कुमार को पार्टी ने उत्तरी-पश्‍चिमी दिल्ली से लोकसभा का टिकट दिया है. 

आम आदमी पार्टी को हर वर्ग के लोगों और बुद्धिजीवियों का समर्थन कैसे मिले, इसके लिए वह निरंतर प्रयास करते रहते हैं. ग़ौरतलब है कि वयोवृद्ध गांधीवादी नारायण देसाई के ज्येष्ठ पुत्र नचिकेता भी आम आदमी पार्टी के सक्रिय सदस्य हैं. नारायण देसाई गुजरात में रहते हैं. नचिकेता के ज़रिए ही इस बैठक से पहले प्रो. आनंद कुमार नारायण देसाई से मिलने अहमदाबाद आए और आम आदमी पार्टी के लिए गांधीवादियों का समर्थन मांगा. सूत्रों के मुताबिक़, नारायण देसाई ने साफ़ शब्दों में कह दिया कि वह सर्व सेवा संघ से जुड़े हैं, इसलिए किसी पार्टी को समर्थन करना उनके सिद्धांत के विरूद्ध है.
प्रो. आनंद कुमार को क़रीब से जानने वाले बताते हैं कि वह छात्र राजनीति के समय से ही संदिग्ध रहे हैं. उन दिनों समाजवादी युवजन सभा में भी दो गुट थे. एक मधु लिमये का तो दूसरा राजनारायण का. प्रो. आनंद कुमार राजनारायण के गुट में शामिल थे. वर्ष 1972 के बीएचयू छात्रसंघ चुनाव में संतोष कुमार कपूरिया ने बतौर निर्दलीय छात्रसंघ के अध्यक्ष पद पर जीत हासिल की. हालांकि, कुछ ही समय बाद संतोष कुमार कपूरिया की हत्या कर दी गई. लिहाज़ा बीएचयू में छात्रसंघ अध्यक्ष का पद रिक्त हो गया. 

उस समय प्रो. आनंद कुमार ने भी छात्रसंघ का चुनाव लड़ा था, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा था. छात्रनेता कपूरिया की हत्या के बाद प्रो. कुमार को उनके स्थान पर अध्यक्ष बनाया गया. छात्रसंघ चुनाव के इतिहास में संभवतः यह पहला मौक़ा था, जब किसी पराजित उम्मीदवार को अध्यक्ष बना दिया गया. हालांकि, बाद में बीएचयू छात्रसंघ चुनाव के नियमावली में संशोधन किया गया. नए प्रावधानों के मुताबिक़, छात्रसंघ के उपाध्यक्ष का पद सृजित किया गया, ताकि अध्यक्ष की मृत्यु या उनके इस्ती़फे के बाद छात्रों द्वारा चुना गया व्यक्ति ही अध्यक्ष बन सके न कि कोई पराजित उम्मीदवार. 




प्रो. आनंद कुमार को लेकर बातें यहीं ख़त्म नहीं होती. अमरचंद्र जोशी उन दिनों काशी हिंदू विश्‍वविद्यालय के कुलपति थे. उस समय किसी मुद्दे को लेकर बीएचयू के छात्रों ने काफ़ी बड़ा आंदोलन किया. छात्रों के इस रवैये से नाराज़ विश्‍वविद्यालय प्रशासन ने आनंद कुमार समेत कई छात्रों को निष्काषित कर दिया था. ऐसे समय में छात्रों के साथ खड़ा होने के बजाय प्रो. आनंद कुमार ने गोपनीय रूप से कुलपति अमरचंद्र जोशी से मुलाक़ात की और उनसे माफ़ी मांगी. उसके बाद उनका निष्काषण वापस लिया गया. उनके इस व्यवहार से बीएचयू के छात्रों में बेहद निराशा और नाराज़गी हुई. उसके बाद बीएचयू कैंपस में आनंद कुमार माफ़ी कुमार के नाम से पुकारे जाने लगे. 

जेपी आंदोलन के समय प्रो. आनंद कुमार नई दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्‍वविद्यालय (जेएनयू) आ गए. यहां वह समाजवादी युवजन सभा के बजाय फ्री थिंकर्स नामक संगठन के बैनर तले छात्र राजनीति करने लगे. उन्होंने जेएनयू में छात्रसंघ अध्यक्ष का चुनाव भी फ्री थिंकर्स के टिकट पर लड़ा और जीत हासिल की. बाद में स्टूडेंट्स फॉर डेमोक्रेटिक सोशलिज़्म बना, जिसमें दिग्विजय सिंह, चेंगल रेड्डी, जसवीर सिंह और सुनील जैसे छात्र नेता उन दिनों शामिल थे.

जेपी आंदोलन के समय ही राष्ट्रीय स्तर की छात्र युवा संघर्ष समिति बनी थी, जिसमें अरुण जेटली संयोजक और आनंद कुमार सह-संयोजक थे. वर्ष 1975 में देश में इमरजेंसी की घोषणा कर दी गई. इसी दौरान प्रो. आनंद कुमार आंदोलन बीच में ही छोड़कर उच्च शिक्षा हासिल करने शिकागो पहुंच गए. उनके अमेरिका जाने से छात्रों ने एक बार फिर ठगा हुआ महसूस किया. यही वजह थी कि उन दिनों जेएनयू के वामपंथी छात्र इसे लेकर समाजवादी छात्र नेताओं पर खूब व्यंग्य करते थे. 

बहरहाल, कुछ वर्षों बाद प्रो. आनंद कुमार शिकागो से पढ़कर स्वदेश वापस लौटे और बीएचयू में अध्यापक बन गए. हालांकि, इस बीच उनकी सियासी महत्वकांक्षा पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ चुकी थी. यही वजह थी कि वह स्वार्थवश कभी मुलायम सिंह यादव से नज़दीकियां बढ़ाने की कोशिश करते रहे तो कभी चंद्रशेखर से. प्रो. आनंद कुमार की इसी अवसरवादी स्वभाव से मोहन सिंह और कपिलदेव सिंह जैसे खांटी समाजवादी नेता उन्हें संदेह की दृष्टि से देखा करते थे.
 (चौथी दुनिया से साभार) 
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