उपरोक्त दो उल्लेखनीय घटनाओं के विपरीत अप्रैल 2011 में जब अन्ना हजारे ने अनशन की शुरुआत की तो वह पूरी तरह मीडिया में छा गए और सरकारी तबकों में भी चहल-पहल शुरू हो गयी। उन्होंने मुख्य रूप से भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया था और इस मुद्दे के प्रति व्यापक जनता आकर्षित हुई थी। सत्ता की तरफ से अन्ना हजारे को हर तरह की सुविधा मुहैया करायी गयी थी। इसकी सीधी वजह यह थी कि वह जिस लोकपाल कानून की बात कर रहे थे उसके दायरे से उन्होंने कॉरपोरेट घरानों को अलग रखा था जिनके खिलाफ आप आज जेहाद बोल रहे हैं। क्या यह याद दिलाने की जरूरत है कि अप्रैल 2011 में अन्ना हजारे को जिन लोगों ने खुलकर समर्थन दिया था उनमें बजाज ऑटो के चेयरमैन राहुल बजाज, गोदरेज ग्रुप के चेयरमैन आदि गोदरेज, महिन्द्रा एंड महिन्द्रा के पवन गोयनका, हीरो कॉरपोरेट के चेयरमैन सुनील मुंजाल, फिक्की के डायरेक्टर जनरल राजीव कुमार, एसोचम के अध्यक्ष दिलीप मोदी सहित ढेर सारे व्यापारिक घराने शामिल थे। इन्हीं व्यापारिक घरानों का पूरी तरह आज मीडिया पर नियंत्रण स्थापित हो गया है और जाहिर है कि अन्ना हजारे के आंदोलन को मीडिया का समर्थन मिलना ही था। अगस्त 2011 में अन्ना ने जब रामलीला मैदान में अपना अनशन शुरू किया उस समय तक सत्ता के गलियारों में उनकी आवाज गूंजने लगी थी और आपको याद होगा कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ने संसद के एक असाधारण अधिवेशन के जरिए अन्ना हजारे को आंदोलन वापस लेने की अपील की थी। यह कॉरपोरेट घरानों का ही कमाल था जिसने अन्ना हजारे को, और आगे चलकर अरविंद केजरीवाल को ‘जननायक’ के रूप में स्थापित किया।
मैं इन बातों को यहां इसलिए दोहरा रहा हूं ताकि यह स्पष्ट कर सकूं कि जिन आंदोलनों से कॉरपोरेट हितों को खतरा नहीं दिखायी देता उनके प्रति सत्ता एक सकारात्मक रुख दिखाती रही है। जिन आंदोलनों से कॉरपोरेट हितों को खतरा होता है उनके दमन की तैयारी शुरू हो जाती है। मुझे आश्चर्य नहीं होगा अगर आपका यह आंदोलन व्यापक रूप लेते ही सत्ता के दमन का शिकार न बन जाए।
यहां मैं यह भी रेखांकित करना चाहूंगा कि आज कितनी तेजी से कॉपोरेट घराने न केवल राजनीति को बल्कि भारत के सुरक्षा तंत्र को भी निर्देशित करने लगे हैं। कम ही लोगों को पता होगा कि देश के बड़े उद्योगपतियों की संस्था फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स ऐण्ड इंडस्ट्रीज (फिक्की) ने 2009 में ‘टॉस्क फोर्स रिपोर्ट ऑन नेशनल सिक्योरिटी ऐंड टेररिज्म’ प्रस्तुत किया था। उसको ही आधार बनाकर पूर्व गृहमंत्री पी.चिदंबरम ने राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित संस्था बनाने का सुझाव दिया और 121 पृष्ठों की इस रिपोर्ट में दी गयी सिफारिशों को पूरी तरह अपनाने की कोशिश की। उन्होंने इसी को आधार बनाकर अमेरिका की तर्ज पर एनसीटीसी (नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर) बनाने की पेशकश की। इस रिपोर्ट के पृष्ठ 70 पर कहा गया था कि सभी जिला मुख्यालयों और पुलिस स्टेशनों को ई-नेटवर्क के माध्यम से नैट ग्रिड सेें जोड़ा जाए और यही बात चिदंबरम ने भी कही थी। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी के अंतर्गत सुरक्षा शिक्षण के काम को अंजाम देने के लिए गैर सरकारी संगठनों यानी एनजीओज की भागीदारी होनी चाहिए। इसके साथ ही इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा के निजीकरण की मांग की गयी थी। कांग्रेस और भाजपा सहित ज्यादातर पार्टियां इन मांगों के समर्थन में खड़ी दिखायी देती हैं। इसके बाद 2010 में एसोसिएटेड चैंबर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया (एसोचेम) ने एक स्विस कंसलटेंसी फर्म के साथ मिलकर ‘होमलैंड सिक्योरिटी इन इंडिया 2010’ शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रस्तुत की और इसमें भी राष्ट्रीय सुरक्षा के निजीकरण पर ही जोर दिया गया था।
बीती 6 फरवरी की प्रेस कॉन्फ्रेंस में बाएं से प्रो. दीपक मलिक, अखिलेन्द्र प्रताप सिंह, आनंद स्वरूप वर्मा और एडवोकेट चौहान (फोटो: साभार भड़ास4मीडिया) |
जिन दिनों अन्ना हजारे का आंदोलन अपने शिखर पर था हमने पश्चिम के एक विद्वान मिशेल चोसुदोवस्की के हवाले से कहा था कि ‘कॉरपोरेट घरानों के एलिट वर्ग के हित में है कि वे विरोध और असहमति के स्वर को उस हद तक अपनी व्यवस्था का अंग बनाए रखें जब तक वे बनी बनायी सामाजिक व्यवस्था के लिए खतरा न पैदा करें। इसका मकसद विद्रोह का दमन करना नहीं बल्कि प्रतिरोध आंदोलनों को अपने सांचे में ढालना होता है। अपनी वैधता बनाए रखने के लिए कॉरपोेरेट जगत विरोध के सीमित और नियंत्रित स्वरों को तैयार करता है ताकि कोई उग्र विरोध न पैदा हो सके जो उनकी बुनियाद और पूंजीवाद की संस्थाओं को हिला दे।’ काफी पहले अमेरिकी विद्वान नोम चोम्स्की ने अपने मशहूर लेख ‘मैन्यूफैक्चरिंग कानसेंट’ में मीडिया के बारे में लिखा था कि मीडिया सहमति का निर्माण करता है। अभी हम देख रहे हैं कि व्यवस्था किस तरह असहमति का भी निर्माण करती है ताकि वह खुद को बचाए रखने के लिए सेफ्टी वॉल्व तैयार कर सके।
‘बियांड हेडलाइंस’ नामक एक वेबसाइट ने सूचना के अधिकार कानून के तहत जानकारी चाही कि मनीष सिसोदिया के संगठन ‘कबीर’ को विदेशी अनुदान के रूप में कितनी राशि मिली है। इसके जवाब में सरकार की ओर से जो जानकारी दी गयी वह इस प्रकार हैः फोर्ड फाउंडेशन-86,61,742 रुपया, प्रिया (पार्टिसिपेटरी रिसर्च इन इंडिया) 2,37,035, डच दूतावास-19,61,968, यूएनडीपी-12,52,742, मंजूनाथ संमुगम ट्रस्ट-3,70,000, एसोसिएशन फॉर इंडियाज डेवलपमेंट-15 लाख, यूएनडीपी-12,52,742 रुपए। इसके अलावा व्यक्तिगत अनुदान के रूप में विदेशों से 11,35,857 रुपए प्राप्त हुए। वैसे एफसीआरए के अंतर्गत सरकार के पास ‘कबीर’ की ओर से जो विवरण भेजा गया उसमें बताया गया है कि 2010-11 के लिए फोर्ड फाउंडेशन ने उसे 1,97,000 डॉलर का अनुदान दिया जिसे कबीर ने यह कहकर लेने से मना कर दिया कि वे अब राजनीतिक आंदोलन में लग गए हैं। बेशक, इससे पहले के वर्षों में तकरीबन 1 करोड़ से ज्यादा की राशि फोर्ड फाउंडेशन से ली थी। अरविंद केजरीवाल की संस्था ‘परिवर्तन’ और नया नाम ‘संपूर्ण परिवर्तन’ को फोर्ड फाउंडेशन ने कितने पैसे दिए इसके बारे में केवल अनुमान लगाया जा सकता है।
यह अकारण नहीं है कि पूर्व एडमिरल एल. रामदास जो अब ‘आम आदमी पार्टी’ में शामिल हैं, उनकी पुत्री कविता रामदास इस समय फोर्ड फाउंडेशन के दिल्ली कार्यालय की प्रमुख हैं। आखिर कोई वजह तो होगी कि कॉरपोरेट घराने बुरी तरह केजरीवाल की पार्टी की ओर आकर्षित हैं। अभी हाल के दिनों में जो लोग केजरीवाल की पार्टी में शामिल हुए हैं उनमें इंफोसिस के एक बड़े अधिकारी वी.बालाकृष्णन भी हैं। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि टाटा सोशल वेलफेयर ट्रस्ट के अनुसार इंफोसिस के सह संस्थापक एन.आर.नारायण मूर्ति ने अक्टूबर 2008 में इस बात की सिफारिश की थी कि सूचना के अधिकार कानून के तहत जागरूकता पैदा करने के लिए केजरीवाल की मदद की जाए और इसने इस बात पर अपनी सहमति दे दी कि 2009 से अगले पांच वर्षों तक वह प्रतिवर्ष 25 लाख रुपए देगा। खुद एन.आर.नारायण मूर्ति फोर्ड फाउंडेशन बोर्ड के एक ट्रस्टी हैं और उनका मानना है कि ‘आप’ के अंदर वह क्षमता है कि वह शहरी मध्य वर्ग को आकर्षित करे। भारत की सबसे बड़ी बायोटेक्नालॉजी कंपनी ‘बायोकॉन की चेयरमैन किरण मजूमदार शॉ का कहना है कि ‘आप’ पेशेवर लोगों द्वारा स्थापित पार्टी है और यही वजह है कि इसकी ओर बिजनेस एग्जीक्यूटिव तेजी से आकर्षित हो रहे हैं। इस आकर्षण का आलम यह है कि मीरा सान्याल ने रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड का अध्यक्ष पद छोड़ कर पांच जनवरी को आम आदमी पार्टी में शामिल हो गयीं। ‘एप्पल’ नामक विशाल कंपनी को छोड़कर आदर्श शास्त्री (स्व. लाल बहादुर शास्त्री के पौत्र) आम आदमी पार्टी में शामिल हुए। स्टार इंटरटेंनमेंट के सीईओ समीर नायर भी आम आदमी पार्टी में शामिल हो चुके हैं। डक्कन एयरवेज के संस्थापक कैप्टन गोपीनाथ भी अब ‘आप’ के सदस्य हैं और 4 जनवरी 2014 को एनबीसी टीवी-18 को एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि ‘हमें प्राइवेटाइजेशन की जरूरत है लेकिन क्रोनी कैपिटलिज्म नहीं चाहिए’। अभी कुछ ही दिन पूर्व हीरो मोटर्स के सीईओ पवन मुंजाल भी इस पार्टी में शामिल हो गए हैं। पीटीआई की एक खबर के अनुसार 14 जनवरी 2013 को पवन मुंजाल पर धोखाधड़ी के मामले में दिल्ली पुलिस ने एक एफआईआर दर्ज किया था। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है।
अखिलेन्द्र जी, इन सारी बातों का उल्लेख करने का मकसद यह है कि आप जिस सत्ता से लोकपाल कानून के अंतर्गत कॉरपोरेट घरानों और एनजीओ को लाने की बात कर रहे हैं वह कॉरपोरेट के हाथों बहुत पहले बिक चुकी है। मैं सत्ता की बात कर रहा हूं सरकार की नहीं। सरकार चाहे मोदी की हो, राहुल की हो या केजरीवाल की इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। आम जनता को भी इस बात के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता कि वह केजरीवाल की तरफ क्यों आकर्षित है जबकि पूंजीवाद की दलाली करने वालों में वह किसी से कम नहीं हैं बल्कि दस कदम आगे ही हैं। जाहिर है कि ऐसे समय लोगों को जागरूक करने और जनआंदोलनों को तेज करने की जरूरत है। इसे ध्यान में रखते हुए मैं एक बार फिर आपसे अपील करता हूं कि अपना अनशन समाप्त करें और आंदोलन को व्यापक बनाने में लग जाएं।