स्मृतिशेष: रघुवंश बाबू का जाना भारतीय राजनीति को रिक्त कर गया है
उनके घर में कभी भी कोई बिना रोकटोक के आ जा सकता था. इसका लाभ कुछ लोग अलग तरह से उठाने की कोशिश भी करते थे, लेकिन रघुवंश बाबू से इस तरह का लाभ लेना बहुत ही मुश्किल काम था.
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उनके घर में कभी भी कोई बिना रोकटोक के आ जा सकता था. इसका लाभ कुछ लोग अलग तरह से उठाने की कोशिश भी करते थे, लेकिन रघुवंश बाबू से इस तरह का लाभ लेना बहुत ही मुश्किल काम था.
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जहां कहीं भी किसी भी राजनीतिक दल ने अपनी निर्भरता कॉरपोरेट मीडिया से हटाकर अपने मीडिया संस्थानों पर कर ली है, उसकी हालत वहां इतनी खराब नहीं है. महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश व तेलंगाना को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है.
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प्रधानमंत्री की सुरक्षा में लगी सभी गाड़ियां स्टार्ट कर दी गयी थीं, सब एलर्ट थे लेकिन जब धीरूभाई अंबानी राजीव गांधी के कमरे में दाखिल हुए तो बाहर निकलने में उन्हें 42 मिनट का वक्त लग गया। कहा जाता है कि यही वह मीटिंग थी जिसमें अंबानी ने राजीव गांधी को ‘सेट’ किया था, जिसकी व्यूह रचना प्रणव मुखर्जी ने की थी।
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1990 में मंडल लगने से पहले पिछड़ा नेतृत्व का एक रुतबा था. मंडल लागू होने के बाद सवर्ण सत्ता को पिछड़ों से डर लगने लगा था, लेकिन 25 साल के भीतर पूरा का पूरा पिछड़ा नेतृत्व दीन-हीन अवस्था में पहुंच गया है.
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जब बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा राजीव त्यागी को जयचंद जयचंद कहकर अपमानित कर रहे थे तो एक बार भी सरदाना ने पात्रा को नहीं रोका.
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सवाल सिर्फ यह है कि सामाजिक न्याय का प्रतिनिधित्व करने वाले दोनों राजनीतिक दलों में जिस परशुराम की प्रतिमा लगाने की होड़ मची है उसे लोग किस रूप में जानते हैं और उनकी क्या सामाजिक विरासत है?
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कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाये जाने की पहली बरसी पर फिल्मकार संजय काक से जितेंद्र कुमार की बातचीत
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क्या कारण रहा कि एक समय अछूत सी रही भाजपा आज देश में सबसे मजबूत ताकत है? सवाल यह भी है कि जो सामाजिक और राजनीतिक विरासत इतनी मजबूत थी, वह 25 साल के भीतर ही इतनी बुरी तरह क्यों बिखर गयी और हिन्दुत्ववादी ताकतों को क्यों चुनौती नहीं दे पायी?
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जब राजसत्ता के इशारे पर सारे निर्णय लिए जा रहे हैं तो लिखित कानून और उसे पालन करने वाले संस्थानों की क्या भूमिका रह जाएगी? हमारे संवैधानिक अधिकारों की गारंटी कौन करेगा जो हमें भारतीय कानून के तहत एक नागरिक के तौर पर मिले हुए हैं? उस नागरिक स्वतंत्रता का क्या होगा जिसकी दुहाई बार-बार दी जाती है?
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अगर राजद और बीजेपी के बीच सचमुच कुछ पक रहा है या चुनाव के बाद भी किसी तरह का गठबंधन होता है तो यह सामाजिक औऱ लोकतांत्रिक राजनीति की पिछले तीस वर्षों में सबसे बड़ी हार होगी और निजी तौर पर लालू यादव की सांप्रदायिकता व फिरकापरस्ती के खिलाफ एक नायक के रूप में बनी छवि भी टूटेगी.
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