मोदी दशक में हिंदी सिनेमा: सॉफ्ट पावर बना सॉफ्ट टारगेट

सांस्कृतिक वर्चस्व की इस लड़ाई में आज हमारे समाज की तरह बॉलीवुड भी खेमों में बंट गया है। यहां भी हिन्दू-मुस्लिम आम हो चुका है और पूरी इंडस्ट्री जबरदस्त वैचारिक दबाव के दौर से गुजर रही है।

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पुस्तक समीक्षा: भारत का संविधान – महत्वपूर्ण तथ्य और तर्क

यह किताब संविधान की पृष्ठभूमि और इसके निर्माण की प्रक्रिया को समझने के लिए हिंदी में एक जरूरी दस्तावेज की तरह हैं जो महत्वपूर्ण तथ्यों के साथ-साथ संविधान के वजूद में आने के तर्कों को बहुत ही सटीकता के साथ प्रस्तुत करती है।

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‘पठान’ उर्फ बेवजह विवाद में एक चालू सिनेमा का प्रतीक बन कर उभरना

अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद बॉलीवुड की पहचान उन चंद पेशेवर स्थानों में है जो समावेशी और धर्मनिरपेक्ष हैं। यह बहुसंख्यक दक्षिणपंथियों को हमेशा से ही खटकता रहा है।

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समकालीन भारतीय राजनीति का दारा शिकोह, जो कभी ‘शहज़ादा’ था

राहुल के विचार भी अपने परदादा से मिलते-जुलते हैं लेकिन दारा की तरह उनमें भी अपने परदादा के मुकाबले राजनीतिक सूझ-बूझ की कमी देखने को मिलती है। दिन-प्रतिदिन की चुनावी राजनीति को लेकर वे उदासीन नजर आते हैं।

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नये भारत के उदय के बीच तीन ख़ानों की दास्तान

इन तीनों के बारे में लगातार लिखा जाता रहा है। इनसे जुड़े विवादों से लेकर अफवाहों और फिल्मों तक के बारे में बहुत कुछ पहले से ही लिखा और कहा जा चुका है। ऐसे में पहला सवाल यह उठता है कि इन तीनों पर आधारित एक किताब नया क्या पेश कर सकती है?

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शिक्षा अधिकार कानून के 12 साल: नाम बड़े और दर्शन छोटे

शिक्षा में गवर्नेंस की मौजूदा प्रणाली पर भी पुनर्विचार करने की जरूरत है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के गठन की बात की गयी है लेकिन इससे शिक्षा प्रशासन के केन्द्रीकरण का खतरा बढ़ जाने की सम्भावना है। शिक्षा के प्रशासन को हमें इस प्रकार से विकेन्द्रित करने की जरूरत है जिसके केंद्र में शिक्षक, समुदाय और बच्चे हों।

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क्या भारत सभ्यता के संकट से गुजर रहा है?

2014 में सिर्फ सत्ता नहीं बदली थी बल्कि तख्तापलट हुआ था। यह तख्तापलट आजादी के आन्दोलन के गर्भ से निकले भारत का था जहां धर्म, जाति, नस्ल, रंग, लिंग किसी भी भेदभाव के बगैर शासन चलाना सुनिश्चित किया गया था और एक राष्ट्र के रूप में भारत का बुनियादी विचार और ढांचा धर्मनिरपेक्ष था।

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भारत में बाल अधिकार समझौते के तीन दशक: सफर, पड़ाव और चुनौतियां

भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ बाल संधि को स्वीकार किये जाने के 30 साल पूरे होने का यह मौका खास है। इस दौरान हुई उपलब्धियों का जश्न जरूर मनाया जाना चाहिए लेकिन इसके साथ यह मौका देश बाल अधिकारों को लेकर नये संकल्पों और उम्मीदों के साथ आगे बढ़ने का भी है।

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बुंदेलखंड का अमेज़न ‘प्रोजेक्ट बकस्‍वाहा’ और देशव्यापी विरोध की जरूरत

आज जब देश और दुनिया क्लाइमेट चेंज (मौसम में बदलाव) के रूप में अब तक का सबसे बड़ा पर्यावरणीय संकट झेल रहे हैं, प्रोजेक्ट बकस्‍वाहा जैसी परियोजनाओं का व्यापक देशव्यापी विरोध जरूरी है। साथ ही इसके बरअक्स हवा, पानी, जंगल और जानवरों को बचाने वाली परियोजना चलाये जाने की जरूरत है जो दरअसल इंसानों को बचाने की परियोजना होगी।

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हजारों करोड़ के कर्ज़ पर टिका शिवराज का ‘गरम’ हिन्दुत्व!

सूबे की माली हालत तो पहले से ही खराब थी, कोरोना और जीएसटी में कमी के कारण सरकार के राजस्व में भारी कमी आई है. हालत यह है कि इस साल मार्च में चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद से पिछले 8 महीने के दौरान ही शिवराज सरकार अभी तक कुल दस बार में करीब 11500 करोड़ रुपये का कर्ज ले चुकी है.

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