युद्ध, शांति और भुखमरी के सन्दर्भ में नार्वेजियन नोबेल समिति ने इस बार का नोबेल शांति पुरस्कार वर्ल्ड फूड प्रोग्राम को देने की घोषणा पिछले दिनों की। अपनी युवावस्था में मैंने आन्दोलनों में नारे सुने थे और लगाये भी थे: जब तक भूखा इंसान रहेगा, धरती पर तूफ़ान रहेगा। इस बार के नोबेल शांति पुरस्कार ने इस नारे पर मुहर लगा दी।
अभिजात्य समाज और उनके समर्थन में खड़ा शासन-प्रशासन भुखमरी और कुपोषण के खिलाफ लड़ने वाले लोगों के खिलाफ लगातार हमले करता है। इसी माहौल में क्राई के साथ मिलकर जनमित्र न्यास 50 गांवों में मुसहरों के बीच व्याप्त कुपोषण को समाप्त करने के लिए सतत काम कर रहा है। ऐसे काम के कुछ सुखद परिणाम भी मिलते हैं तो इसकी कीमत भी कभी-कभार चुकानी पड़ती है।
उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने देश में पहली बार कुपोषणजनित रोग से हुई मौत पर एक लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश मुख्य सचिव, उत्तर प्रदेश को दिया है। साथ ही सम्बंधित मुसहर टोले और उसके प्रभावित परिवार के लोगों को मातृत्व और बाल स्वास्थ्य के साथ सामाजिक कल्याण की सभी योजनाओं का लाभ देने का आदेश दिया है। ऐसे हस्तक्षेपों के बारे में जानना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि दुनिया भर में इन्हीं छोटे-छोटे प्रयासों से निकलने वाले बड़े परिणाम एक दिन मिलकर नोबेल तक जा पहुंचते हैं।
Raitara-Musahar-Bastiकहानी बनारस के पिंडरा ग्राम पंचायत की है, जहां के रायतारा मुसहर टोले में 20 मई 2015 को कुपोषण के कारण बीमार हुए 5 माह के एक मुसहर बच्चे की मौत हुई थी। बीमारी की सूचना मिलते ही श्रुति नागवंशी उस बच्चे को उसकी मां और अपने कार्यकर्ताओं के साथ पोषण पुर्नवासन केंद्र लेकर आयी थीं। वहां उसे दाखिल नहीं किया गया जिसके परिणामस्वरूप बच्चे की मृत्यु हो गयी। इस पर श्रुति ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में शिकायत दाखिल की। आयोग ने इस मौत पर जिलाधिकारी को नोटिस जरी किया (केस संख्या: 26535/24/72/2015)।
इस बीच पांच वर्षों के दौरान आयोग में लगातार पैरवी के साथ जनमित्र न्यास के कार्यकर्त्ताओं ने क्राई के सहयोग से उस मुसहर टोले में कुपोषण के उन्मूलन के साथ बाल मृत्यु और मातृ मृत्यु को रोकने के लिए सघन कार्य भी किया। साथ ही तात्कालिक मानवीय और चिकित्सीय सहायता स्वीडन की पारुल शर्मा के द्वारा दी गयी। लगातार जमीनी प्रयास का असर यह दिखा कि लॉकडाउन में इलाके के व्यापारियों और संपन्न लोगों ने यहां के लोगों को सब्ज़ी मुहैया करायी क्योंकि सभी 36 परिवारों के पास राशन कार्ड पहले से हैं। 22 परिवार तिसरिया पर खेती का काम करते है। 3-4 कुंतल चावल, गेंहू, चना और मटर आदि पैदा करते हैं। यहां नवदलित आंदोलन की प्रक्रिया को चलाया गया जिसके तहत गाँव के ठाकुरों ने मुसहरों को अपनी ज़मीन, पानी और बीज दिए।
इस मुसहर टोले में ज़मीन नहीं होने के कारण करीब 300 मीटर की दूरी पर आंगनवाड़ी कार्यकर्त्री के घर में ही आंगनवाड़ी चलती है, जहां मुसहरों के सभी बच्चे जाते हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, पिंडरा के प्रभारी डॉक्टर हरिश्चन्द्र मौर्य एक अतिसंवेदनशील इंसान हैं, जिनके कारण मुसहरों का टीकाकरण पूर्णरूपेण हो रहा है।
सबसे दुखद बात शिक्षा के मामले में है। पिंडरा ग्राम पंचायत एक बड़ा गाँव है और यहां सामंतवाद के अवशेष बहुत मजबूत हैं। पूर्व और वर्तमान प्रधान दोनों दबंग हैं। दोनों ही मुसहरों के श्रम को अपने मुनाफे के लिए उपयोग करना चाहते हैं। संगठन के प्रयासों से मुसहरों के बच्चे प्राथमिक विद्यालय में जाना शुरू किये थे, लेकिन एक अध्यापक ने अपनी जातिवादी मानसिकता के तहत मुसहर बच्चों की प्रताड़ना शुरू कर दी। इसके चलते बच्चे स्कूल जाना बंद कर दिए।
इस मसले पर श्रुति ने आयोग में फिर से पहल की और एक लेख जनसत्ता में लिखा। इस लेख पर माननीय उच्च न्यायलय ने स्वत: संज्ञान लेते हुए नोटिस जारी किया, जिस पर शासन-प्रशासन ने खूब लीपापोती की। इतने प्रयासों के बावजूद आज भी यहां के बच्चे शिक्षा से नहीं जुड़ पाए हैं। दूसरी ओर, कुपोषण से जिस बच्चे की जान गयी थी उसे एक लाख का मुआवजा और सम्बंधित परिवार को सामाजिक कल्याण योजनाओं का लाभ अब तक नहीं मिला है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का आदेश बनारस के इस गांव में अब तक लागू नहीं हुआ है।
इस गांव के मुसहर टोले में लगातार दस साल से ऊपर के संघर्ष के बाद भी सफलता उम्मीद से बहुत कम है क्योंकि अभिजात्य वर्ग (सभी जातियों के) और जातिवादी पितृसत्तात्मक सामंतवाद का अवशेष हाशिये के लोगो के श्रम का शोषण करने में लगा हुआ है। अभी हाल में जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 107 देशों में भारत का 94वां स्थान है। यह स्थिति भारत में मौजूद कॉर्पोरेट फासिज्म के खतरनाक परिणामों की ओर इशारा करती है, जिसमें एक नहीं सभी राजनीतिक दल बराबर के दोषी हैं। कुछेक कामयाबियों को छोड़ दें तो इस मामले में मेरे अनुभव बहुत कड़वे रहे हैं।
मैंने 2007 में जब मुसहरों और दलितों की भुखमरी के सवाल पर वाराणसी के बेलवा गांव में काम शुरू किया, तो तत्कालीन मुख्यमंत्री बहन मायावती जी ने हमारे संगठन के खिलाफ प्रेस वार्ता की और भूख से पीड़ित व शिक्षा से महरूम मुसहरों, नटों और पिछड़ों के हक़ के लिए लड़ने वाले हमारे चार साथियों सहित मुझ पर 505बी IPC में मुकदमा कर दिया गया। अभी हाल की ही बात है जब लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में वाराणसी के कोइरीपुर में खाद्य असुरक्षा का माहौल पैदा होने से मुसहरों के बच्चे अकरी खाने लगे थे। सच के प्रति प्रतिबद्ध पत्रकारों ने इसे समाचारपत्र में प्रकाशित किया जबकि दूसरी ओर शासन-प्रशासन के साथ मिलकर यथास्थित कायम रखने वाले लोगों ने गरीबों की भूख को छिपाने के लिए तमाम हथकंडे अपनाए।
उधर रामपुर गांव में अनाज के बंटवारे को लेकर मुसहरों और ठाकुरों के बीच झगड़ा हो गया। बीच-बचाव करने गयी पुलिस पर भी हमला हुआ। सबसे बड़ा और खतरनाक षड़यंत्र यह हुआ कि हर बात में अपना हित साधने वाली यथास्थितिवादी ताकतों ने कोइरीपुर में खाद्य असुरक्षा को अपने फेसबुक से प्रकाश में लाने वाले एक कार्यकर्त्ता को रामपुर के झगड़े में फर्जी तरीके फंसा दिया।
बनारस: मुसहरों के घास खाने वाली पोस्ट लिखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता को अग्रिम बेल
इन घटनाओं से पता चलता है कि एक वंचित समूह को भोजन और शिक्षा से दूर करके ताकतवर समूह उत्पादन करने वाले के श्रम और अस्तित्व के साथ उसके श्रम से निर्मित उत्पादों पर भी कैसे कब्ज़ा जमा लेता है। कॉरपोरेट फ़ासीवाद ऐसे ही जातिवादी और पितृसत्तात्मक सामंतवाद के बचे-खुचे सांप्रदायिक सोच के साथ नवउदारवादी अर्थव्यवस्था का एक गठजोड़ है, जो चुप्पी की संस्कृति को लागू करने के साथ अपने किये सभी पापों और अपराधों पर दंड से माफ़ी चाहता है। यह सांप्रदायिक और कॉरपोरेट फासीवाद अनाज सहित जीवन की सभी मूलभूत सुविधाओं पर अभिजात्य समाज को ही कब्ज़ा देना चाहता है।
भोजन, शिक्षा के साथ बुनियादी सुविधाएं आखिरी इंसान को मिलना न्याय के साथ शांति की स्थापना है। पहले मलाला और फिर वर्ल्ड फूड प्रोग्राम को मिला नोबेल शांति पुरस्कार, शांति के साथ न्याय के सिद्धांत को मजबूत करता है। भारत में कुपोषण, भुखमरी और उसके खिलाफ चलने वाले संघर्ष और दंड से जुड़ी उपर्युक्त घटनाएं नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा में युद्ध, शांति और भुखमरी पर प्रस्ताव को प्रमाणित करती हैं।