आखिर किस पर दोष मढ़ा जाय? कुछ वक्त तक तो निशाने पर चीन रहा, जब तक कि हिंदुस्तानियों का सबसे पसंदीदा शिकार परदे पर नमूदार नहीं हो गया- आप जानते हैं वो कौन है। यह वायरस यदि कहीं मध्य-पूर्व या पाकिस्तान से आया होता तो दोष मढ़ने के इस कारोबार में ज्यादातर भारतीयों को मौज आ जाती!
इंसानी इतिहास नए-नए विषाणुओं का गवाह रहा है। हर नया वायरस दूसरों से ज्यादा जानलेवा रहा है। इतना तो तय है कि यह संकट जल्द ही बीत जाएगा और मनुष्यता महफूज़ रहेगी। सवाल है कि इस दौर के बीत जाने के बाद हम नुकसानों की गणना कैसे करेंगे? वो सब कुछ, जो हमने गंवा दिया?
सरकारों और नेताओं का मूल्यांकन इस आधार पर होगा कि उन्होंने संकट की घड़ी में क्या किया और क्या नहीं। बेशक, इस कसौटी पर उनका फैसला होना ही चाहिए, लेकिन हमें उम्मीद है कि मानवता खुद अपने जीवन और मरण के बारे में भी कुछ न कुछ सोचेगी। जिंदगी सिर्फ उन्हीं की नहीं जाएगी जिन्हें वायरस मारेगा। इससे कहीं बड़ी संख्या इसके आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिणामों का शिकार होगी।
इस संकट के बाद हम में से कितने लोग उस आर्थिक और राजनीतिक तंत्र की ओर अपना ध्यान मोड़ेंगे जिसमें यह मनुष्यता जी रही है? अगर मनुष्यता का एक तिहाई भी किसी वजह से अपने अनावश्यक और अश्लील उपभोग को त्याग दे और सनक भरी भागदौड़ वाली जीवनशैली को छोड़ने पर बाध्य हो जाए, तो यह आर्थिक तंत्र ढह जाएगा। इसके बाद बची हुई दो तिहाई मनुष्यता के सामने बेरोजगारी का संकट पैदा हो जाएगा, जो भुखमरी तक जा सकता है।
उधर अपनी अंटी में खरबों की राशि दबाए शीर्ष अरबपति सरकारों और उनके माध्यम से जनता को बाध्य कर देंगे कि इस तंत्र को बचाने के नाम पर वे खरबों की और राशि उन्हे सौंप दें।
मनुष्यता के पास यदि इतनी रचनात्मकता, उत्पादकता, ज्ञान, कौशल और प्रौद्योगिकी है कि हम में से प्रत्येक व्यक्ति पर्याप्त भोजन और संतोष के साथ अमन चैन से परस्पर जी सके, तो इस किस्म की अपेक्षाओं को यूटोपियन कैसे मान लिया जाता है? आखिर क्यों हम कुकुरभोज वाली गलाकाट प्रतिस्पर्धा और भागदौड़ को जीवन जीने का सहज ढंग माने बैठे हैं?
आखिर क्यों दो तिहाई इंसानियत को जीने का मामूली सामान जुटाने के लिए अमानवीय श्रम करना पड़ता है? अपनी कुशलता और उत्पादकता के बावजूद शेष एक तिहाई मनुष्यता को लालची व मूर्ख बन जाने की ज़रूरत क्यों आन पड़ती है? और यह दुनिया इतने विवेकहीन तरीके से क्यों चलती जाती है जिसमें अरबपति लोग लगातार खरबों गटकते चले जाते हैं?
उम्मीद की जानी चाहिए हम में से कुछ लोग इस बात की भी पड़ताल करेंगे कि लोकतंत्र का हाल क्या हुआ है। आखिर कैसे लोकतंत्र जनता द्वारा अपने ही हितों के खिलाफ़ वोट देने की व्यवस्था में तब्दील हो गया? आखिर यह कैसे हुआ है कि समूची दुनिया में जनता पहले से कहीं ज्यादा मसखरे शासकों को अब चुन रही है? और ये महज जोकर नहीं हैं बल्कि दुष्ट भी हैं (जोक्वां फीनिक्स का किरदार याद करें)।
आखिर क्या वजह है कि राजनीति के तमाम संवेदनशील, मानवीय, सभ्य और तर्कपूर्ण तरीके अब बासी और उबाऊ माने जाने लगे हैं?
हमारे प्रिय अमर्त्य सेन ने अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा इस बात को स्थापित करने में लगा दिया कि लोकतंत्र जीवनरक्षक होता है, कि लोकतांत्रिक समाजों में अकाल नहीं पड़ता। इस किस्म के लोकतंत्र और पूंजीवाद के सम्मिश्रण ने जिस तरीके से करोड़ों लोगों की अनावश्यक जान ली है, इन्हें गिनने के लिए अमर्त्य सेनों की फौज चाहिए होगी।
(इस बीच मुझे किसी ने बताया है कि दिल्ली में आकाश बहुत साफ़ दिख रहा है और जालंधर के लोगों को दशकों बाद एक सुबह हिमालय की चोटियों के दर्शन हुए हैं)
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