तन मन जन: महामारी से भी बड़ी बीमारी है लॉकडाउन से उपजी गरीबी


किसी खौफनाक बीमारी से मौत का डर किसी भी व्यक्ति के लिए एक आम मानवीय परिस्थिति हो सकती है, लेकिन मौत की दहशत में पूरे देश को ठप कर देने का मामला न तो आकस्मिक हो सकता है और न ही बचकाना। ‘‘सत्तर साल में देश में कुछ भी नहीं हुआ’’ का हौआ खड़ा कर देश को ‘‘विश्व गुरू’’ बना देने के ‘‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’’ से भी शायद किसी को कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन ‘‘सुधार’’ के नाम पर लगातार ‘शॉक’ देती राजनीति ने बेशर्मी और बेहूदगी के इतने उदाहरण खड़े कर दिए कि उस पर कितना भी पर्दा डालें वह फिर भी नंग-बदरंग ही दिख रहा है, बेरौनक और बदबूदार।

नोटबंदी से लॉकडाउन तक देश के आम लोगों ने सत्ता सियासत के जितने भी करतब देखे उतने ही उनके आंखों की रोशनी खत्म होती गई। अब हालात यह हैं कि अक्ल से अंधों का झुंड अपनी बरबादी पर दुखी नहीं है बल्कि वह उस पर कुपढ़ जादूगर के हाथ की सफाई को ही अपना नसीब और उपलब्धि मानकर किसी अनहोनी की उम्मीद में पड़ा है। इसी दौरान देश का प्रबुद्ध और भावनाशील वर्ग भी इस बहेलिये के शातिरपने को न समझ पाया और जाने अनजाने उस कुटिल बहेलिये को ही रक्षक मानकर उसकी हां में हां मिलाता रहा। मीडिया में बैठे दलालों और चाटुकारों को चन्द निवाले थमा कर इस सियासी मदारी ने निर्माण के नाम पर विध्वंस, विकास के नाम पर पतन, आस्था के नाम पर अंधविश्वास और बेवकूफियों के जितने भी पासे थे सब चल दिए। नतीजा- अपने श्रम से देश को खड़ा करते करोड़ों श्रमिक तबाह हो गए और फिर धीरे-धीरे देश की अर्थव्यवस्था सूखने लगी।

इस लेख में आइए देश के निर्माता श्रमिकों के हालात का जायजा लेते हैं। इस भ्रम को भी समझते हैं कि ‘‘आवारा पूंजी’’ के बल पर श्रम को नकार कर विकास की इबारत लिखने का नकली फार्मूला लेकर एक झोलाझाप डॉक्टर एक गम्भीर हृदयरोगी का आपरेशन कर रहा हो, तो मरीज की हालत क्या होगी? झूठ, अज्ञान और दम्भ के बल पर किये इलाज से मरीज को शायद बचाया तो नहीं जा सकता बल्कि उसे समय से पहले ही मर जाने को विवश किया जा सकता है। कोरोनाकाल में सामूहिक तौर पर भारत के आम लोगों की स्थिति इसी मरणासन्न मरीज की तरह हो गई है जिसे अपनी जिन्दगी भी बचानी है। सवाल अस्तित्व का है। संकट विकट है। एक घटना की बानगी देखिए।

10 मई 2020 को दिल्ली के जिलाधिकारी तथा जिला चुनाव अधिकारी के आधिकारिक ट्वि‍टर हैंडल से एक ट्वीट किया गया। इस ट्विट में दिल्ली के उपराज्यपाल, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री कार्यालय, मेनका गांधी, दिल्ली के डीसीपी को भी टैग किया गया। ट्विट में लिखा था, ‘‘हमने वंदे मातरम मिशन के तहत उजबेकिस्तान से लौटे सबसे कम उम्र के यात्री एक साल का यार्कशायर टेरियर ‘ओरियो’ का स्वागत किया जो घर आकर उत्साहित है।’’ दरअसल, यह आधिकारिक ट्वीट ओरियो नामक एक पालतू कुत्ते के स्वदेश वापसी पर था जो ‘वन्दे भारत मिशन’ के तहत विदेश से भारत लौटा था।

याद कीजिए, यह वही समय था जब 25 मार्च को अचानक लॉकडाउन की घोषणा से घबराकर असमय मौत की आशंका में जी रहे देश में ही प्रवासी करोड़ों श्रमिकों की घर वापसी के लिए सरकार के पास न तो वाहन थे और न ही साधन। रेल, बसें, यात्री वाहन सब लॉकडाउन में बंद कर दिये गए थे और इसी के साथ बन्द हो गया था सरकार और प्रशासन का दिल और दिमाग। उस समय हजारों मील पैदल चलकर भूखे, बेबस मजदूर रास्ते में ही दम तोड़ रहे थे और प्रशासन विदेश से विशेष विमान द्वारा स्वदेश लौटे कुत्ते के बच्चे का स्वागत कर रहा था। देश के श्रमिकों को शायद पता नहीं था कि उनकी औकात प्रशासन और सरकार की नजर में पालतू कुत्ते के सामने कुछ भी नहीं है।

बहरहाल, हम कोरोनाकाल के दौरान करोड़ों श्रमिकों की स्थिति, उनकी जिन्दगी, उनकी सेहत और उससे जुड़ी देश और मानवता की हकीकत के बहाने यह जानने की कोशिश करेंगे कि जन स्वास्थ्य के लिए श्रमिकों के जीवन को समझना क्यों जरूरी है। एक शोध और अनुमान के अनुसार दुनिया में लगभग 2 अरब से ज्यादा लोग गरीबी में भी निचले पायदान पर हैं। नया शोध बता रहा है कि कोविड-19 के कारण करोड़ों लोगों की आय में भारी कमी आई है। किंग्स कालेज, लंदन तथा आस्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी के एक शोध में बताया गया है कि मध्यम आय वाले विकासशील देशों में श्रमिकों की गरीबी का स्तर नाटकीय रूप से बिगड़ा है। किसी तरह से जीवनयापन करने वाले कोई सत्तर करोड़ श्रमिक भुखमरी की स्थिति से जूझ रहे हैं। किंग्स कालेज लंदन में अन्तरराष्ट्रीय विकास के प्रोफेसर और शोध के सह संयोजक एंडी समनर कहते हैं, ‘‘विकासशील देशों के लिए कोरोना महामारी अब आर्थिक संकट बन गई है। सबसे खराब परिदृश्य में अत्यन्त गरीबी में रहने वालों की संख्या 70 करोड़ से बढ़कर 1.1 अरब हो सकती है। अत्यन्त गरीबी में रहने वालों की आमदनी 1.9 डालर प्रतिदिन है जो बेहद चिंताजनक है।‘’ शोधकर्ताओं ने दुनिया भर के नेताओं से तत्काल कदम उठाने का आग्रह किया है। यह अध्ययन कोरोनाकाल के चौथे महीने में आया है और भविष्य में कई आशंकाओं की तरफ आगाह करता है।

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जनस्वास्थ्य के नजरिये से देखें तो विगत 100 वर्षों में शायद यह पहला ऐसा मौका है कि एक महामारी ने दुनिया की आर्थिक गतिविधियों को लगभग ठप कर दिया। इस दौरान कोविड-19 के नाम पर अस्पतालों के दरवाजे दूसरे मरीजों के लिए बन्द रहे। कोरोना वारियर के अलावे ज्यादातर विशेषज्ञों ने अस्पतालों से दूरी बना ली और निजी क्लिीनिक बन्द कर दिये। दुनिया की अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट दिखी। कहा जा रहा है कि आर्थिक मंदी के दौरान वर्ष 2008 में दुनिया की जीडीपी लगभग 1 फीसद तक गिर गई थी लेकिन अब यह 15 से 20 फीसद या इससे भी ज्यादा नीचे जा सकती है। ऐसा बड़े अर्थशास्त्री भी अब कहने लगे हैं। जुलाई-अगस्त महीने में विश्व श्रम संगठन (आईएलओ) ने भारत के सन्दर्भ में एक अनुमान लगाया था कि यहां अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले लगभग 40 करोड़ श्रमिक वर्ग आर्थिक संकट में फंस जाएंगे। आईएलओ के अनुसार दुनिया भर में अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले कोई 200 करोड़ लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो जाएगा। आज लगभग यही स्थिति नकारात्मक है। पिछले तीन महीने में भारत की जीडीपी नकारात्मक 20 से भी नीचे रही। ऐसे में श्रमिकों और उनके परिवारों के लोगों के समक्ष जीवनयापन का संकट तो खड़ा ही है लेकिन उनके सेहत में भारी गिरावट देखी जा रही है। मजदूर वर्ग में तनाव, अवसाद, चिड़चिड़ापन बढ़ने से मानसिक व शारीरिक रोगों के जटिल होने का खतरा बढ़ गया है।

कोरोनावायरस संक्रमण काल में छत्तीसगढ़ के रायपुर से एक दुखद खबर यह है कि विगत एक डेढ़ महीने में वहां अचानक छोटे बच्चों द्वारा सड़क चौराहे पर भीख मांगने का सिलसिला बड़े पैमाने पर देखा जा रहा है। रायपुर के बाल विकास अधिकारी अशोक पाण्डेय मानते हैं कि कोरोनाकाल में बाल भिक्षावृत्ति में काफी बढ़ोतरी देखी जा रही है। यह स्थिति कमोबेश देश के अन्य राज्यों की भी है। दिल्ली में ही लगभग सभी चौराहे या सड़क के रेडलाइट प्वाइंट पर भीख के लिए खड़े छोटे बच्चो और औरतों की संख्या बढ़ी है। माना यह जा रहा है कि बच्चों और महिलाओं द्वारा भीख मांगने की यह वृत्ति कोरोनाकाल में सरकार के विफल प्रबन्धन की देन है। इस दौरान बढ़ी गरीबी को लेकर ‘‘दलबर्ग कान्तर’’ की एक रिपोर्ट भी खुलासा करती है कि कोरोना काल में प्रशासनिक कुव्यवस्था की वजह से देश में लगभग 40 फीसद गरीब लोग कर्ज के जाल में फंस चुके हैं। लाखों लोगों की नौकरी जा चुकी है और लाखों लोग आर्थिक तंगी की वजह से परेशान हैं। यह रिपोर्ट एक सैम्पल सर्वे पर आधारित है। यह डाटा 5 अप्रैल से 3 जून के बीच 47,000 परिवारों पर किये सर्वे पर आधारित है।

अभी विश्व बैंक ने भी एक आंकड़ा जारी किया है। विश्व बैंक के अनुसार कोविड-19 के दौरान विश्वव्यापी लॉकडाउन के प्रभाव के कारण सामान्य दिनों की तुलना में वर्ष के अन्त तक दुनिया में गरीबों की संख्या में 15 करोड़ से ज्यादा की वृद्धि होगी। दूसरी तरफ यूबीएस नामक एक स्विस बैंक के अनुसार इसी दौरान यानि अप्रैल 2020 से जुलाई 2020 तक अरबपतियों की सम्पत्ति में 27.5 फीसद की वृद्धि दर्ज की गई है। यह अपने आप में एक कीर्तिमान है। सरकार और प्रचार माध्यमों द्वारा यह अफवाह खूब फैलायी गयी कि कोविड-19 के दौरान अरबपतियों ने जनता की खूब मदद की मगर आंकड़े तो कुछ और बता रहे हैं। एक आंकड़े के अनुसार दुनिया की एक कार निर्माता कम्पनी टेस्ला के संस्थापक एलेन मस्क की पूंजी में सबसे अधिक 76 अरब डॉलर की वृद्धि हुई जबकि मार्च से जून 2020 तक की तीन महीने की अवधि में दुनिया के अरबपतियों में से 209 ने सम्मिलित तौर पर महज 7.2 अरब डालर की चैरिटी की। जाहिर है कि कोविड-19 के वैश्विक संकट ने जहां अरबपतियों की कमाई में वृद्धि की वहीं गरीबों के मुंह से निवाले छूटे।‘‘आपदा में अवसर’’ की हकीकत यही है कि सरकार और पूंजीपतियों ने मिलकर श्रमिकों का हक छीना और पूंजीपतियों के धन को बढ़ने दिया। कई समाजशास्त्री इसे श्रमिकों और गरीबों के साथ व्यवस्था का छल बताते हैं।

कोरोनाकाल के दौरान श्रमिकों और आम लोगों की बदहाली के किस्से खौफनाक और दिल दहला देने वाले हैं। इस दौरान लोगों की आर्थिक स्थिति पर केन्द्रित लगभग सभी अध्ययन और अनुमानों का निचोड़ यह है कि गरीबी कई गुना बढ़ी है और महंगाई व आर्थिक संकट की वजह से लोगों का जीना मुहाल है। गरीबी और स्वास्थ्य का गहरा रिश्ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का ही एक पुराना अध्ययन याद कर लें। अध्ययन के अनुसार अत्यधिक गरीबी एक रोग है। 1995 में जारी एक रिपोर्ट में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ‘अत्यधिक गरीबी‘ को अंतरराष्ट्रीय वर्गीकरण में एक रोग माना है। इसे जेड 59.5 का नाम दिया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि गरीबी तेजी से बढ़ रही है और इसके कारण विभिन्न देशों में और एक ही देश के लोगों के बीच की दूरियां बढ़ती जा रही हैं।

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नित बढ़ती आबादी तथा गरीबी और गंभीर समस्याएं खड़ी कर रही है। समाधान के लिए संगठन ‘स्वास्थ्य के लिए ज्यादा निवेश’ की बात कर रहा है। संगठन मानता है कि कई देशों में स्वास्थ्य पर सरकारी बजट नाकाफी है। दूसरी ओर, दुनिया के स्तर पर बढ़ी विषमता ने स्थिति को और ज्यादा जटिल बना दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की पहले की रपटों पर गौर करें तो पाएंगे कि अमीर देशों में जो स्वास्थ्य-समस्याएं हैं, वे अधिकतर अमीरी से उत्पन्न हुई हैं। इसके उलट तीसरी दुनिया के देशों की स्वास्थ्य समस्याएं आमतौर पर संसाधनों की कमी, गंदगी और कुपोषण की वजह से हैं।

कोरोना संकट के दौरान अपनी ही जनता को झूठे नारे और जुमलों में भरमाकर सरकार ने जनता के  साथ बड़ा धोखा किया। इस दौरान सच्चे समाजकर्मियों पर जुल्म बढ़े। अल्पसंख्यक और दलित प्रशासन-पुलिस की देखरेख में प्रताड़ित किए गए। उन्हें झूठे मुकदमें में फंसा कर जेल में डाल दिया गया। लालची व गैर जिम्मेवार मीडिया को मिलाकर सरकार ने लोगों पर हुए जुल्म को ढंक कर रखा। मीडिया ने फर्जी खबरों का कवर देकर देश में सरकार द्वारा तेजी से किए जा रहे निजीकरण को आसान बना दिया। इस दौरान कई कानूनों में बदलाव लाकर सरकार ने किसानों, आम लोगों की मुश्किलें बढ़ा दी और पूंजीपतियों के लूट के रास्ते और चौड़े कर दिये। किसान, मजदूर इस सरकारी हेराफेरी के सबसे बड़े शिकार बने। देशी विदेशी पूंजीपतियों के व्यवसाय व लूट को आसान बनाने के लिए सरकार ने संसदीय परम्परा का गन्दा दुरूपयोग भी किया।

बहरहाल केवल झूठे वायदे व जातिवादी संकीर्णताओं तथा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से प्रभावित होकर वोट करने वाली जनता यदि मोहरा ही बनी रही तो लूट का यह सिलसिला यों ही चलता रहेगा अन्यथा मानवीय त्रासदी में फंसता मनुष्य यदि अपने नैसर्गिक ताकत को पहचान कर लूट की व्यवस्था को ठोकर मारने की ठान ले तो हालात बदल सकते हैं। हम इतिहास के ऐसे ही मोड़ पर खड़े हैं जहां से या तो हम विध्वंस की ओर ही बढ़ते रहेंगे अथवा विध्वंस के खिलाफ मानवीय व्यवस्था की नींव रखेंगे। वक्त कम है। फैसला तो करना ही होगा।



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