किसी भी मुल्क के सामाजिक-आर्थिक विकास में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा 2015 में एक प्रस्ताव पारित किया गया। इस प्रस्ताव में 17 सतत विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals) की बात किया गया है जिसे 2030 तक पूरा करना है। इसमें चौथा लक्ष्य है सबको मुफ्त और समान शिक्षा का प्रावधान। इसमें शिक्षा को दुनिया के सतत पोषण की चाभी बताया गया है। मुफ्त और समान शिक्षा की जो बात इन लक्ष्यों में की जा रही है उसको आज के परिदृष्य में विश्लेषण करने की जरूरत है। क्या भारत उस दिशा में आगे बढ़ रहा है?
आजादी के बाद देश में वंचित और पिछड़े तबकों को मुख्यधारा में लाने के कई प्रयास हुए। सकारात्मक कार्यवाही की नीतियों की बदौलत इन तबकों से निकलने वाला एक समूह विश्वविद्यालयों तक पहुंचा और इसी रास्ते राजनीति, नौकरशाही और न्यायपालिका तक में अपना कुछ स्थान बना पाने में सफल हुआ, लेकिन पिछले कुछ दशकों में शिक्षा संबंधी नीतियों में ऐसे बदलाव किये जा रहे हैं जिसके कारण शिक्षा समाज में गैरबराबरी बढ़ाने का एक माध्यम बनती जा रही है।
मैं दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र हूँ। वहाँ 5 प्रतिशत अंक उपस्थिति पर दिया जाता है। जिसकी उपस्थिति 85 प्रतिशत से अधिक होती है उसको 5 प्रतिशत अंक मिलते हैं। प्रथम वर्ष के अलावा डीयू में बाकी कक्षाएं ऑनलाइन मोड पर शुरू हो गयी हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा इन ऑनलाइन कक्षाओं में भी उपस्थिति लेने का आदेश दिया गया है। देश के कई हिस्से बाढ़ की समस्या से जूझ रहे हैं। कई स्टूडेंट खुद या उनके परिवार के सदस्य कोरोना से संक्रमित हैं। कई इलाकों में संक्रमण हावी है। इंटरनेट कनेक्टिविटी से लेकर डिजिटल विभाजन तक ऐसी कई समस्याएं हैं जो इन स्टूडेंट्स को क्लास तक आने में रोक रही हैं। अगर हम आंकड़ों की बात करें तो लगभग 40 प्रतिशत स्टूडेंट कक्षाओं में शामिल हो पाने में सक्षम नहीं हैं। 85 प्रतिशत उपस्थिति का आँकड़ा छूने तक बहुसंख्यक विद्यार्थी इससे बाहर हो जाएंगे।
डीयू में ग्रेडिंग प्रणाली है जिसमें एक अंक से पूरा ग्रेड बदल जाता है। ऐसे में 5 प्रतिशत अंक मायने रखता है। वो स्टूडेंट जो इस 85 प्रतिशत की लकीर को कई उचित कारणों से नहीं छू पा रहे हैं, वो प्रतिस्पर्धा में बहुत पीछे छूट जाएंगे। यह व्यवस्था समानता और न्याय के मूल्यों के खिलाफ है जिसका खामियाजा वंचित समूहों से आने वाले स्टूडेंट्स को भुगतना पड़ेगा।
अभी देश भर में आयोजित हो रही प्रवेश परीक्षाओं के खिलाफ एक आंदोलन चल रहा है। यह आंदोलन डिजिटल माध्यमों पर चलाया जा रहा है जिसमें स्टूडेंट्स लाखों की संख्या में ट्वीट कर इन परीक्षाओं का विरोध कर रहे हैं। इसके पीछे लॉजिक है देशभर में चल रही तालाबंदी और परीक्षार्थियों का स्वास्थ्य। मसलन स्वास्थ्य एक बड़ा मुद्दा है। ऐसे में एक बड़ा सवाल यह है कि प्रवेश परीक्षाओं के बाद क्या?
प्रथम वर्ष के अलावा विश्वविद्यालयों में अन्य वर्ष की कक्षाएं ऑनलाइन संचालित हो रही हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रतिदिन 4 से 5 घण्टों की कक्षाएं संचालित की जा रही हैं। विशेषज्ञों की मानें तो अधिक समय तक ऑनलाइन रहने से स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। खुद मेरे और मेरे दोस्तों के साथ भी कई प्रकार की समस्याएं आ रही हैं। आँख और सर में दर्द, गर्दन में दर्द आदि। अधिकांश स्टूडेंट ऑनलाइन क्लास के लिए मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं जिसके खतरे की दर सबसे अधिक है।
नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन (NSSO) की 2018 में आयी रिपोर्ट के अनुसार देश के सबसे 20 प्रतिशत गरीब परिवारों के में सिर्फ 8.9 प्रतिशत लोगों के पास इंटरनेट सुविधाएं हैं जबकि मात्र 2.7 प्रतिशत लोगों के पास लैपटॉप है। टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया के 2018 की रिपोर्ट के अनुसार भारत का इंटरनेट घनत्व सिर्फ और सिर्फ 49 फीसदी था। यह भारत में वृहद स्तर पर डिजिटल विभाजन को दिखाता है। भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की 2017-18 की रिपोर्ट बताती है कि देश के 16 प्रतिशत परिवारों को सिर्फ 8 घन्टे बिजली मिलती है। इसके अलावा 33 फीसदी को 9-11 घन्टे तथा 47 फीसदी को सिर्फ 12 घन्टे बिजली मिल पा रही है।
इंटरनेट और बिजली के भारी अभाव में ऑनलाइन क्लास ग्रामीण इलाकों के वंचित समूहों से आने वाले विद्यार्थियों के लिए टेढ़ी खीर है। ग्रामीण इलाके तो दूर दिल्ली जैसे बड़े शहरों के कई इलाके बेहतर इंटरनेट कनेक्टिविटी की जद से बाहर हैं। इसके अलावा एक और बड़ी समस्या यह है कि रोजाना 4 से 5 घन्टे की क्लास करने के लिये पर्याप्त डेटा तब तक नहीं मिलेगा जब तक आप वाईफाई न लगा लो और यह सुविधा गरीब व लोअर मीडिल क्लास के स्टूडेंट्स की पहुँच से बाहर है।
इन सबका स्टूडेंट्स के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर हो रहा है। बर्बाद होती अर्थव्यवस्था के बीच कैरियर की अनिश्चितता तथा अकादमिक दबाव उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। परिवारों की आय में पहले से भारी कमी आयी है जिससे उनके रोजमर्रा का जीवन बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। इसमें अगर स्टूडेंट्स को 5 प्रतिशत अंक से वंचित किया जाने लगे तो यह स्थिति उनकी चिंता और अवसाद का कारण हो सकती है। यह बहुत गंभीर मसला जिस पर सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन को विचार करना चाहिए।