बात बोलेगी: ‘प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया’ से ‘प्रतिक्रिया ही प्रतिक्रिया’ तक


न्यूटन साहब ने दुनिया को बताया है कि हर क्रिया की समान और विपरीत क्रिया होती है। सभी ने इसे भौतिकी के प्रयोगों से ही नहीं बल्कि सामाजिक जीवन में भी अपने रोज़-ब-रोज़ के व्यवहार में देखा, सीखा और समझा है। राजनीति तो खैर क्रियाओं की प्रतिक्रियाओं की ही सतत यात्रा है। इस नियम का सबसे ज़्यादा उपयोग या दुरुपयोग राजनीति के ही अखाड़े में होता आया है।

अब समस्या ये है कि जो राजनीति किसी क्रिया से प्रेरित न होकर प्रतिक्रिया से ही पैदा हुई हो, प्रतिक्रिया के अखाड़े में ही पली-बढ़ी हो और अपना समय आने पर उसी को अपना आधार बनाकर देश पर राज करने बैठ जाये, उसके बरक्‍स समान और विपरीत प्रतिक्रिया क्‍या होगी?

हमने देखा कि देश में एक कानून पारित हुआ जो नागरिकों में धर्म के आधार पर भेद करता है, तो यह एक क्रिया हुई जो बरसों से चल रही प्रतिक्रिया का नतीजा है। इसकी प्रतिक्रिया हुई कि इसके खिलाफ देश भर में आंदोलन शुरू हो गये। अब इन आंदोलनों के खिलाफ हुई कोई भी कार्यवाही क्रिया के खिलाफ प्रतिक्रिया हुई या प्रतिक्रिया के खिलाफ प्रतिक्रिया या प्रतिक्रिया के खिलाफ क्रिया? बड़ी उलझन है।

यह उलझन तब और बढ़ जाती है जब इस कानून के पक्ष में भी रैली, मोर्चे आंदोलन हो शुरू हो जाएं। अब ये जो कानून के विरोध‍ में हो रहे आंदोलनों के खिलाफ कानून के पक्ष वाले आंदोलन हैं, ये किस क्रिया या प्रतिक्रिया के खिलाफ कौन सी क्रिया या प्रतिक्रिया हैं?

नियम चाहे भौतिकी के हों या समाज के या राजनीति के या अर्थशास्त्र के, उनकी कसौटी यही है कि ये सबको समझ में आयें और सब जगह समान रूप से लागू हो सकें।

राजनीति की प्रतिक्रिया या प्रतिक्रिया की राजनीति में कुछ ऐसा झोल हुआ है कि अब समझ में नहीं आता कि हम एक सजग नागरिक होने के नाते क्रिया पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं या प्रतिक्रिया पर प्रतिक्रिया। इस नाते हम भी धीरे-धीरे प्रतिक्रियावादी होते जा रहे हैं।

बड़े-बुजुर्ग कह गये हैं कि पानी अपना तल ढूंढ लेता है। वो ये भी कह गये हैं कीचड़ से कीचड़ जा मिलता है या कीचड़ में जाओगे तो खुद कीचड़ हो जाओगे। तो इस कीचड़ हो चुकी प्रतिक्रियावादी राजनीति पर की गयी कोई भी टिप्पणी आपको उसी कीचड़ में धकेले दे रही है जिससे बचते बचाते आप किसी तरह निकल जाना चाहते हैं, इरादतन।

देश नहीं सँभल रहा, अर्थव्यवस्था गोता खा गयी, कोरोना विकराल रूप ले चुका, महंगाई, बेरोजगारी, भविष्य की अनिश्चितताएं, चीन का विस्तारवाद सब हमारे सामने हो रहा है। हम चिंतित हैं लेकिन हमारी प्रतिक्रिया है कि यही होना था। हम तो कह रहे थे। हम तो जानते ही थे। कंपनियाँ बिक रही हैं, लोगों को जबरन रिटायर किया जा रहा है, घनघोर अविवेकी फैसलों के तहत देश के 40 प्रतिशत से ज़्यादा बच्चों को आज हो रही परीक्षाओं से वंचित किया जा रहा है, व्यवसायियों को खाली बैठकर मच्छर मारने के लिए बाध्य किया जा रहा है, हम देख रहे हैं, उनके लिए चिंतित भी हैं लेकिन हम कह रहे हैं, ‘और करो घर घर फलाने…. ताली बजाओ, झाल बजाओ, दिया जलाओ, देशी नस्ल के कुत्ते पालो, मोर के साथ वीडियो बनाओ, खिलौनों के खेल में रमो, देश को आत्मनिर्भर बनाओ… वगैरह वगैरह।

ये क्रियाएं हैं या प्रतिक्रियाएं? समझना इसलिए भी मुश्किल होता जा रहा है क्योंकि हमारे मुखारविंद से निकले ये वाक्य इतने सहज और इतने निच्छल हैं कि इन्हें सोचकर नहीं बोला गया है।

सोचकर जो बोलना था, वो तो शुरू से बोलते आ रहे हैं। किसी ने सुना ही नहीं। सुना भी तो माना नहीं। उल्टा हमें समझाया गया कि ‘’देखिएगा, आएगा तो फलाना ही। वो नहीं तो कौन? कहां पड़े हो मियां? सत्तर साल में जो नहीं हुआ और वाकई कुछ नहीं हुआ, वो अब होगा। पांच सौ साल बाद कोई आया है।‘’ हम तब सुन लिए, माने नहीं क्योंकि मानने के लिए हमारे पास वो था जो अब घटित हो रहा है। लेकिन हम जो आज बोल रहे हैं वो है तो प्रतिक्रिया ही न?

हमें पता है और हमारी चिंताएँ हैं कि देश का क्या होगा और इतना सब होने बावजूद हम जानते हैं कि देश का कुछ भी हो जाये कानूनन सरकार का कुछ नहीं होना है। उनके पास संख्या और विधि का बल है। हमारे पास चिंताएँ हैं और प्रतिक्रियाएँ हैं।

मोदी की जीत हिंदुस्तान की सत्तर साल की राजनीति के खिलाफ एक प्रतिक्रिया ही तो थी। उसमें कोई पॉज़िटिव एजेंडा नहीं था। भूल सुधारने जैसा भी कुछ नहीं था क्योंकि एक हो चुके काम में कतर-ब्‍योंत करना लोक व्यवहार में नकारात्मक ही माना जाता है। यह कतर-ब्‍योंत ही जब मुख्य एजेंडा हो जाये तब बदले जाते हैं सड़कों के नाम, शहरों के नाम। तब गरियाया जाता है इतिहास को, उस इतिहास के नायकों को। कुछ बनाया नहीं जाता। बने हुए को बिगाड़ा जाता है। यह करते हुए यह बताया भी जाता है कि इसमें बहुत बिगाड़ था उसे ठीक किया जा रहा है। आप बिगड़े हुए को देखते हैं और उसके ठीक होने की हसरत लिए बिगड़े हुए को और बिगड़ता हुआ देखते जाते हैं।

आप मानते हैं कि कपड़े को सिलने से पहले उसे काटा जाता है। आप देश को, देश के संस्थानों को, देश के लोगों को कपड़ा समझने लगते हैं। उन्‍हें कटते हुए देखकर आपको लगता है अब नया देश, नये संस्थान और नये लोग निर्मित होंगे। इस सब कुछ नये होते के बीच अचानक आपको लगता है कि अरे! कपड़ा तो गलत कट गया! इससे वैसी अचकन तो बन ही न पाएगी जिसकी तमन्ना में हम हलकान हुए जा रहे थे!

तब आप जो करते हैं, उसे न तो क्रिया कहते हैं और न ही प्रतिक्रिया बल्कि उसे कहते हैं एक विकट धोखा। ऐसा धोखा जो आप अपनी मर्ज़ी से फाँके जा रहे थे। यह धोखा आपको अखबारों, टीवी, व्हाट्सएप्प, फेसबुक, आइटी सेल, पन्ना प्रमुखों और शहरों में सजते दुर्गा पूजा के पंडालों के माध्यम से अच्छी अचकन की फोटो में लपेट कर सुबह, दोपहर, संध्या, रात दिया जा रहा था और आप, भर रुचि उसे खाये जा रहे थे।

अब खा चुकने के बाद जो आपके मन में है और आप उसे बाहर लाएंगे वो कुछ ऐसा होगा जो भौतिकी और अन्य शास्त्रों के नियमों से अलग होगा क्योंकि नियम भी वहां ठीक से लागू होते हैं जहां उनकी परिस्थितियां हों।

सवाल फिर उनका है जो सोचते हैं, संदेह करते हैं, बोलते हैं, मन में बातों को गुनते हैं। वो क्या कहें और उनके कहे को क्या समझा जाए? चूंकि प्रतिक्रिया ही आज का यथार्थ है। सब प्रतिक्रियाएं ही तो किये जा रहे हैं। तो वो भी कहां इससे जुदा रह पाएंगे?

हम चाहते हैं अच्छा और उस अच्छा चाहने के लिए कामना करने लगते हैं बुरे होने की। रेलवे बिका तो हमारी बात साबित हो गयी। बात साबित होना एक अच्छा भाव है। हमें लगता है कि हम दुरुस्त थे। अपने सहीपन के लिए देश के बिगड़ने में भी एक मज़ा का भाव आने लगता है। यह मज़ा का भाव पीड़ादायक तो है लेकिन खुजली की माफिक। जब तक खुजलाते रहोगे, मज़ा आएगा लेकिन जब सतह की चमड़ी उधड़ जाएगी तब पसीना भी कष्ट देगा। इस खुजली का शिकार हर वह नागरिक है जो तब भी चिंता कर रहा था और अब भी एक अलग तरह की प्रतिक्रिया का शिकार होते जा रहा है।

कुछ हुआ हो या न हुआ हो, री-एक्शन के मोड में देश की गाड़ी चल पड़ी है। इसका गंतव्य तो नहीं पता पर रास्ता कंटीला है। इससे बचने में मज़ा है, फँसने में हास्य और विद्रूपताएं कदम कदम पर हैं ही।



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