पंचतत्व: शहरों की बवासीर है ठोस कचरा


ट्रेन से सफ़र करते समय अगर आपने आउटर सिग्नल के पास से ही गौर किया होगा, पटरी के दोनों तरफ दो चीजें जरूर दिखती हैं. एक, दीवारों पर लिखे नपुंसकता और भगंदर-बवासीर हटाने के विज्ञापन और दूसरा, कचरे का बेतरतीब अनंत ढेर. पहले एक और चीज दिखती थी, लोगों का कतार बांधकर मलत्याग करना, पर अब वह थोड़ा कम हुआ है. कचरे का यह ढेर हमें बेचैन नहीं करता क्योंकि हमें उसके साथ रहने की आदत हो गई है.

मेरे घर से दिल्ली वाला गाज़ीपुर लैंडफिल साइट दिखता है. बच्चे अब इसे पहाड़ समझने लगे हैं. एकाध बूंद बरसने के बाद जब इस कचरे के ढेर से बदबू का भभका उठता है तो हमारे अभ्यस्त हो चुके नथुनों के लिए यह भीनी-भीनी बयार-सा ही लगता है.

आपको याद होगा, 2014 में नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने थे तो उनके कुछेक बड़े कार्यक्रमों में से एक थाः स्वच्छ भारत मिशन. इस मिशन को दो हिस्सों में बांटा गया था- ग्रामीण और शहरी. यह मिशन व्यापक हो सकता था, पर संभवतया किसी शातिर नौकरशाह के बरगलाने के बाद से गांवों में स्वच्छता अभियान को घर-घर शौचालय बनाने तक सीमित कर दिया गया, जो अपरिहार्य तो है पर एकमात्र उपाय नहीं है.

तब, विभिन्न किस्म के जागरूकता अभियान और विज्ञापन चलाए गए थे कि हमें चलती हुई गाड़ी से केले का छिलका बाहर नहीं फेंकना है, सड़क पर रैपर और कागज के टुकड़े नहीं फैलाने हैं. बिला शक, मकसद अच्छा है पर स्वयंसेवा मोड में यह काम बहुत लंबे समय तक नहीं चलने वाला. एक आम आदमी अधिकतम योगदान यह कर सकता है कि वह अपने घर के कूड़े को गीले और सूखे में छांटकर, मुहल्ले में लगे कूड़ेदान (अगर हो) तक फेंक आए या कूड़ा इकट्ठा करने आई गाड़ी (सिर्फ महानगरों में) में कूड़ा डाल दे. उसके बाद उस कूड़े का क्या करना है, समस्या यहीं है. यहीं से ठोस कचरा प्रबंधन के उपायों की सख्त जरूरत दिखने लगती है.

अच्छा, आपके घर में अगर मरम्मत का काम हो, तो टूटी हुई ईंटों, टाइल्स के टुकड़ों, बेकार पलस्तर से निकले रेत का आप क्या करते हैं? आप या तो सड़क पर बने किसी गड्डे में इसे डालकर समाजसेवा के पुनीत काम से छाती चौड़ी कर लेते होंगे, या फिर बोरियों में डालकर किसी मजदूर से उसे कहीं दूर फिंकवा देते होंगे. कोई तीसरा उपाय आपने किया होगा, मुझे ऐसा लगता नहीं है.

भारत में रोजाना 1.50 लाख टन ठोस कचरा और मलबा पैदा होता है. इस लिस्ट में मुंबई दुनिया में पांचवें पायदान पर है. देशभर में महज 83 फीसद कचरा इकट्ठा किया जाता है और उसका 30 फीसद ही ट्रीट किया जाता है. विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि 2025 तक भारत में कचरा उत्पादन 3.77 लाख टन रोजाना हो जाएगा. इस कचरे के लिए आप औद्योगीकरण को दोष दें या फिर इसे शहरीकरण के मत्थे मढ़ें पर यह समस्या विकराल होती जा रही है. 

वह भी तब, जब देश के 7,935 शहरों और कस्बों में नगर निकाय अधिकतम रूप में कचरा उठाने का काम ही करते हैं और उनका काम महज उस ठोस कचरे को एक डंपयार्ड में ले जाकर पटक देना ही होता है.

स्वच्छ भारत मिशन (शहरी) का डैशबोर्ड बताता है कि देश के पांच राज्य ऐसे हैं, जो देश के कुल कचरा उत्पादन का आधा हिस्सा बनाते हैं पर उसे ट्रीट नहीं करते. महाराष्ट्र सबसे अधिक कचरा पैदा करता है पर उसका 40 फीसद से अधिक कचरा बगैर ट्रीटमेंट के पड़ा रहता है. दिल्ली कचरा उत्पादन में चौथे नंबर पर है पर उसका सिर्फ 20 फीसद कचरा स्रोत पर ही छांटा जाता है.

ठोस कचरा प्रबंधन का सही तरीका यही होगा कि कचरे को स्रोत पर ही छांट लिया जाए. उसे रिसाइकल करने से अलग किस्म के रोजगार पैदा होंगे. उस प्रक्रिया के आखिर में बचने वाले अवशिष्ट को वैज्ञानिक तरीके से लैंडफिल में डालना चाहिए, लेकिन तब तक उसकी मात्रा काफी कम हो चुकी होगी. लैंडफिल साइट में सिर्फ वही अपशिष्ट डाला जाना चाहिए जिनका दोबारा इस्तेमाल या रिसाइक्लिंग न की जा सके.

आइआइटी, कानपुर ने 2006 में एक अध्ययन किया था जिसमें अनुमान है कि मौजूदा कचरे का 15 फीसद भी अगर रिसाइकल किया जा सके, तो इससे देशभर में 5 लाख कचरा चुनने वालों को रोजगार के मौके हासिल हो सकते हैं. इस दिशा में अपार संभावनाओं के बावजूद गैर-सरकारी संस्थाओं या समुदायों की इसमें भागीदारी सीमित ही है.

स्वच्छ भारत मिशन की ही तर्ज पर सरकार ने 100 शहरों को स्मार्ट शहरों में विकसित करने का फैसला किया है, लेकिन शहरों को स्मार्ट बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम शहरों को कचराविहीन बनाना भी होगा. इस दिशा में सिर्फ सरकारी प्रयास बेदम साबित हो सकते हैं. हमें अपने घर में ही कचरे को छांटने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए. जिस हिसाब से बड़े शहरो में लैंडफिल साइट भर चुके हैं (शहरों के पास जमीन महंगी है और जमा कचरा बीमारियों का घर तो है ही, वायु और मृदा प्रदूषण का बायस भी है) एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली के लैंडफिल साइट में जाने वाले कचरे के 80 फीसद को रिसाइकल किया जा सकता है. यहां तक कि सड़ने वाले कचरे से कंपोस्ट बनाया जा सकता है.

इसके लिए विज़न थोड़ा स्पष्ट और दीर्घकालिक होना चाहिए वरना घर से बाहर निकलते ही हमें टूटी टाइलों के टुकड़े न दिखें, हवा में कचरे की बू न आए तो जीवन अधूरा सा लगेगा. बवासीर के दर्द की आदत बन जाए इससे पहले इलाज जरूरी है.



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