हम अमरीका में चल रहे आंदोलन का समर्थन किस तरह करें और भारत में विरोध कर रहे लोगों के साथ कैसे एकजुटता ज़ाहिर करें?
मेरे ख्याल से आपका आशय श्वेत अमरीकी पुलिस द्वारा अफ्रीकी अमरीकियों की हत्याओं की लम्बी श्रृंखला में नवीनतम जॉर्ज फ्लॉयड की निर्मम हत्या के बाद बड़े पैमाने पर भड़के विरोध प्रदर्शनों से है। मेरे विचार से इस आंदोलन का समर्थन करने का सबसे अच्छा तरीका सबसे पहले यह समझना है कि इसका मूल कहाँ है। गुलामी का इतिहास, जातिवाद, नागरिक-अधिकार आंदोलन – इन सबकी की सफलताओं और असफलताओं की जड़ें कहाँ हैं। अत्यंत सूक्ष्म तरीके से जांच करने की आवश्यकता है कि उत्तरी अमरीका में अफ्रीकी अमरीकियों को “लोकतंत्र” के ढांचे के भीतर आखिर इतनी क्रूरता, असंगतता और असंतोष का सामना क्यों करना पड़ता है? इससे पूर्व यह भी समझना होगा कि अमरीका में भारतीय समुदाय के अधिकांश लोगों की इसमें क्या भूमिका है? पारंपरिक रूप से भारतीय समुदाय किसके साथ जुड़ा रहा है? इन प्रश्नों के उत्तर हमें अपने समाज के बारे में बहुत कुछ बताएंगे। विभिन्न संस्कृतियों और समुदायों के सामुहिक रोष और प्रदर्शनों का समर्थन हम तभी कर सकते हैं, अगर हम ईमानदारी से अपने स्वयं के मूल्यों और कार्यों का आकलन करें। हम खुद एक ऐसे बीमार समाज में रहते हैं, जिसमें भाईचारे और एकजुटता की भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं है।
क्या अमरीका के “कू क्लक्स क्लान” और भारत के “गौ-रक्षक हिन्दूओं” की विचारधारा और कार्य-प्रणाली में समानताएं हैं?
निसंदेह इनमें समानताएं हैं। अंतर इतना है कि “कू क्लक्स क्लान” जब हत्याएं करता था तो उसकी शैली कुछ अलग थी। आरएसएस की तरह, एक ज़माने में ,क्लान अमरीका के सबसे प्रभावशाली संगठनों में से एक हुआ करता था। इसके सदस्य पुलिस और न्यायपालिका सहित सभी सार्वजनिक संस्थानों में प्रवेश कर गये थे। क्लान द्वारा की गई हत्याएं सिर्फ हत्याएं नहीं थीं – वे एक तरह के अनुष्ठानिक प्रदर्शन थे जो आतंक अभिव्यक्त करने और सबक सिखाने के इरादे से किये जाते थे। ‘केकेके’ द्वारा काले लोगों की लिंचिंग उतनी ही सत्य है जितनी हिंदू रक्षक समूहों द्वारा दलितों और मुस्लिमों की लिंचिंग।
सुरेखा भोतमान्गे और उनके परिवार को याद कीजिये? बेशक सुरेखा भोतमान्गे और जॉर्ज फ्लॉयड की पृष्ठभूमि और संघर्ष बहुत अलग हैं। सुरेखा और उसके परिवार को भी उसके ही गाँव के लोगों ने मौत के घाट उतार दिया। पुलिसिये डेरेक चाउविन ने बहुत सोचते-समझते हुए जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या कर दी। उसका एक हाथ जेब में और एक घुटना फ्लॉयड की गर्दन पर था। उसके पास खुद की मदद के लिए लोग थे। उसके कृत्य पर ध्यान रखने के लिए उसके साथ अन्य पुलिस वाले थे। आसपास दर्शक भी थे। वह यह भी जानता था कि उसे फिल्माया जा रहा है। इन सब के बीच उसने इस कत्ल को अंजाम दिया। उसका मानना था कि इसके बावजूद भी वह सुरक्षित और दंडमुक्त है। फिलहाल श्वेत वर्चस्ववादी और हिंदू वर्चस्ववादी दोनों से ही सहानुभूति रखने वाले, उच्च पदों पर आसीन लोग मौजूद है (विनम्रता से कहें तो)। इसलिए दोनों कामयाबी से आगे बढ़ रहे हैं।
एक ओर हम भारतीयों को भी #blacklivesmatter ट्रेंड करते हुए देखते हैं लेकिन इसी देश में हमें लगातार काले लोगों पर हमले देखने को मिलते हैं? भारतीय काले लोगों को किस रूप में देखते हैं या उनके बारे में हम भारतीयों की परंपरागत राय क्या हैं?
गोरी त्वचा के प्रति भारतीय जुनून को देखें। यह हमारे बारे में सबसे ज्यादा बीमार करने वाली चीजों में से एक है। यदि आप बॉलीवुड फिल्में देखते हैं तो आपको लगेगा जैसे भारत गोरे लोगों का देश हो। काले लोगों के प्रति भारतीयों का नस्लवाद गोरों के नस्लवाद से कहीं ज्यादा बदतर है। ये अविश्वसनीय है। मैंने अपने काले मित्रों के साथ ऐसा घटित होते हुए सड़कों पर देखा है। और कभी-कभी यह प्रवृति ऐसे लोगों में भी दिखाई देती है जिनकी त्वचा का रंग वास्तव में कालों से कुछ ज्यादा अलग नहीं है! शायद ही मैंने कभी इतना क्रोधित और लज्जित महसूस किया हो। और यह नस्लवाद अचानक हमलों के रूप में भी प्रकट होता रहा है।
2014 में, आम आदमी पार्टी द्वारा दिल्ली चुनाव में भारी जनादेश हासिल करने के तुरंत बाद, कानून मंत्री सोमनाथ भारती ने आधी रात को लोगों के एक समूह का नेतृत्व करते हुए छापे मारे। दिल्ली के खिड़की क्षेत्र में इस समूह ने “अनैतिक और अवैध गतिविधियों” में संलिप्त कांगो और युगांडा की महिलाओं पर शारीरिक हमला किया और उन्हें अपमानित किया।
इसी तरह 2017 में अफ्रीकी छात्रों पर ड्रग बेचने के आरोप लगाते हुए ग्रेटर नोएडा में भीड़ द्वारा हमला कर उन्हें पीटा गया। लेकिन भारत में मौजूद नस्लवाद विशाल और विविध प्रकार का है। नोएडा हमले के बाद संसद सदस्य और भाजपा नेता तरुण विजय के नस्लवाद के बचाव में दिए बयान को कौन भूल सकता है- “अगर हम नस्लवादी होते, तो पूरे दक्षिण भारत – तमिलों को आप जानते हैं, आप केरल, कर्नाटक और आंध्र को जानते हैं – हम फिर उनके साथ क्यों रहते हैं? वे हमारे साथ क्यों रहते हैं?”
वह हमें काले दक्षिण भारतीय लोगों के बारे में बता रहा था। मैं उससे इसके कारणों के बारे में जानना चाहती हूँ।
जब अफ्रीकी अमरीकी #blacklivesmatter, एशियाई #asianlivesmatter और गोरे #alllivesmatter के पक्ष में तर्क देते हैं तो……..
यह व्यर्थ तर्कों का सहारा लेकर असल मुद्दे को खत्म करने का धूर्त तरीका है। एशियाई अमरीकियों अथवा श्वेतों की हत्यायें नहीं हो रही हैं या उन पर उस तरह के ज़ुल्म नहीं हो रहे हैं जिनका सामना अक्सर अमरीका में अफ्रीकी अमरीकी लोग करते हैं। जब से अमरीका में गुलाम-प्रथा समाप्त हुई है, अफ्रीकी अमरीकियों को अन्य तमाम तरीकों हिंसक तरीकों, जो एक लोकतंत्र के सामाजिक अनुबंध और कानूनी ढांचे में फिट होते हैं, द्वारा गुलाम बनाए रखने के लिए ठोस प्रयास किया जाता रहा है। अमरीकी साम्राज्यवाद और उसके युद्धों की अंतर्राष्ट्रीय कहानियां – वियतनाम, जापान, इराक, अफगानिस्तान में नरसंहार की कहानियां…… मुझे नहीं लगता कि #asianlivesmatter और #alllivesmatter में इन कहानियों का कोई भी संदर्भ है।
जब दलित कहते हैं कि #dalitlivesmatter, तो क्या यह सदियों से चल रहे काले लोगों के संघर्ष को कमजोर नहीं करता? क्या #dalitlivesmatter नस्लवाद से भी ऊपर है?
जातिवाद और नस्लवाद का इतिहास अलग-अलग होने के बावजूद भी ये दोनों ज्यादा अलग नहीं हैं सिवाय इसके कि जातिवाद किसी दैवीय आदेश का दावा करता है। इसलिए मुझे यह लगता है कि यह कहना थोड़ा कठोर होगा कि #dalitlivesmatter आन्दोलन सदियों से चल रहे काले लोगों के संघर्ष को कमज़ोर करता है। मुझे लगता है कि यह ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ से एक साझा उद्देश्य स्थापित करने, एकजुटता बनाने और उससे एक रोशनी पाने की कोशिश है।
जो आन्दोलन अमरीका में हो रहा है वह किसी भी अन्य आन्दोलन की तुलना में ज्यादा शक्तिशाली और दृश्यमान है। भारत का जातिवाद लंबे समय से अंतरराष्ट्रीय जांच के रडार के दायरे से बाहर चला गया है। और इसे इस स्थिति तक पहुंचाने के लिए कई प्रसिद्ध, सम्मानित बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों ने भी मदद की है।
कोई भी जातिवाद से ऊपर नहीं है। अलग-अलग जगहों पर इसके अलग-अलग रूप हैं। उदाहरण के लिए दक्षिण अफ्रीका में ब्लैक साउथ अफ्रीकी, नाइजीरियाई और अन्य अफ्रीकी देशों के अफ्रीकियों से घृणा करते है। और भारत के बारे में तो हम जानते ही हैं कि जातिगत उत्पीड़न और ब्राह्मणवाद, हर उस जाति में प्रचलित है जिसमें अपने से नीचे की जाति पर अत्याचार किया जाता है। और यह प्रवृति समाज के निचले से निचले पायदान तक जाती है, यहाँ तक कि “दलित” नाम की राजनीतिक श्रेणी में भी। आपने भी अपने संघर्षों में इसे अनुभव किया होगा। आप किसी भी चीज़ को लंबे समय तक घूरते रहें तो वह चीज़ अपने चारों ओर के शब्दाडम्बर की तुलना में और अधिक जटिल हो जाती है। लेकिन शब्दाडम्बर का भी अपना महत्व है। यह लोगों को अपने विचारों को व्यवस्थित करने के लिए एक ढांचा प्रदान करता है।
भारत के जनमानस, समाचार और मनोरंजन मीडिया में काले लोगों को आज भी नशीली दवाओं के सौदागर, बर्बर और नरभक्षी के रूप में क्यों चित्रित किया जाता है?
क्योंकि हम एक नस्लवादी संस्कृति हैं। पिछले साल मैंने एक मलयालम फिल्म अब्राहमिन्दे संथाथिकल (द सन्स ऑफ अब्राहम) देखी। इस फिल्म के सभी शातिर, बेवकूफ-अपराधी खलनायक, सभी ब्लैक अफ्रीकन थे- और जाहिर तौर पर मलयाली सुपरहीरो अंत में उन सबका सर्वनाश कर देता है। केरल में अफ्रीकियों का कोई समुदाय नहीं रहता फिर भी फिल्म निर्माता ने नस्लवाद को उखाड़ फेंकने के लिए एक काल्पनिक कहानी आयात कर ली ! यह कोई राज्य द्वारा अत्याचार नहीं है। यह हमारा समाज है। ये सब यहीं के लोग हैं। ये वही दक्षिण भारतीय कलाकार, फिल्म निर्माता, अभिनेता और लेखक हैं जिनकी काली चमड़ी के लिए उत्तर भारतीयों द्वारा हमेशा उनका मज़ाक उड़ाया जाता है। ठीक इन्ही कारणों से दक्षिण भारतीय अफ्रीकियों को अपमानित करते हैं। यह एक ऐसे बोरवेल में गिरने जैसा है जिसका कोई तल नहीं है।
अमरीका में विरोध प्रदर्शनों के दौरान गाँधी की मूर्ति को तोड़ दिया गया, इसका क्या कारण हो सकता है?
यह जान पाना बेहद कठिन है। समाचार रिपोर्टों में कहा गया है कि मूर्ति को तोड़कर उस पर ग्रेफिटी का छिड़काव कर दिया गया। लेकिन तस्वीरों में मूर्ति को लिपटा हुआ दिखाया गया है। इसलिए किसी को पता नहीं है कि उस पर क्या ग्रेफिटी चित्रित की गई थी।
क्या यह कृत्य, उन लोगों द्वारा किया गया जो गाँधी के दक्षिण अफ्रीका में प्रवास के दौरान काले अफ्रीकियों के खिलाफ गांधी की नस्लवादी टिप्पणियों और भारत में जाति-व्यवस्था पर उनकी स्थिति से अवगत हैं? या यह उन लोगों का काम था जो भारत के प्रधानमंत्री और ट्रम्प के सम्मान में हाउडी मोदी और नमस्ते ट्रम्प जैसे विशाल प्रदर्शनों के प्रति अपनी घृणा व्यक्त करना चाहते थे।
मुझे वास्तव में इसके बारेे में जानकारी नहीं है। परन्तु यह भी सच है कि कई प्रदर्शनकारियों ने गांधी की तस्वीरों के साथ, उन्हें अपनी प्रेरणा बताते हुए, एक शिक्षक और संरक्षक के रूप में और अहिंसक सविनय अवज्ञा जैसी उनकी रणनीति के पक्ष में ट्वीट किये। इसलिए गांधी अपने कई अवतारों में उन सड़कों पर मौजूद रहे हैं।
जिस मूर्ति का ज़िक्र हम कर रहे हैं उसे अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने प्रायोजित किया था। अन्य कई अफ्रीकी देशों में भी उनकी प्रतिमाएं प्रायोजित की जाती रही हैं। भारत सरकार गांधी की प्रतिमाओं का निर्माण क्यों प्रायोजित करती है? यही भारत सरकार विदेशों में गांधी की मूर्तियों को बढ़ावा देती है जबकि भारत में ही इसका सबसे बड़ा सैन्य क्षेत्र है और साथ ही आज का भारतीय समाज और ज्यादा असहिष्णु हो गया है। इसे कैसे समझा जाए?
अच्छे के लिए या फिर बुरे के लिए, गांधी भारत का सबसे महत्वपूर्ण निर्यात हैं। गाँधी का अहिंसा का संदेश और भारत सरकार द्वारा देश के लगभग हर हिस्से में चरम हिंसा और सैन्यवाद की सुलभ क्षमता; यह दोनों चीज़ें अत्यंत सुगमता से साथ-साथ चलती हैं। उनके लिए गांधी एक उपकरण है, एक उपयोगिता, धुवें की परत, शायद आंसूगैस। यहां तक कि सामाजिक और बौद्धिक रूप से स्वयं को गांधीवादी कहने में उन लोगों को भी कोई विरोधाभास महसूस नहीं होता जो ताकतवर जातियों से सम्बन्ध रखते हैं, जाति-व्यवस्था को स्वीकार करते हैं और उसका पालन करते हैं। जिस व्यवस्था के बारे में हम जानते हैं कि वह केवल उसी जलवायु में जिंदा रह सकती है जिसमें इस व्यवस्था की अवहेलना करने वालों के खिलाफ हिंसा की धमकियाँ और शारीरिक हिंसा स्थायी रूप से मौजूद रहती है। इस पाखंड की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता।
अनेक भारतीय ब्रिस्टन में गुलामों के व्यापार के मालिक एडवर्ड कॉलस्टन की प्रतिमा को गिराते हुए “बीएलएम” आंदोलन की तस्वीरों को साझा कर रहे हैं और उत्सव मना रहे हैं। लेकिन भारत में ही राजस्थान उच्च न्यायालय के ठीक सामने मनु की प्रतिमा स्थापित है; इसके अतिरिक्त “केवल ब्राह्मण” घरों जैसे कई और प्रतीक मौजूद है जो जातिवाद को प्रोत्साहित करते हैं। फिर भी हम उन्हें गिराना तो दूर उन्हें खारिज तक करने में भी दिलचस्पी नहीं दिखाते – इस पर आपकी क्या टिप्पणी है?
हम एक जातिवादी, हिंदू राष्ट्रवादी देश में रहते हैं। हम उस दिन से अभी बहुत दूर हैं जब हमारे यहाँ ऐसी मूर्तियों को हटाया या गिराया जाएगा। हम तो उस अवस्था में हैं जब ऐसी मूर्तियों को स्थापित किया जा रहा है और उनका उत्सव मनाया जा रहा है। दुख की बात तो यह है कि कभी दलित पैंथर्स जैसे क्रांतिकारी आंदोलनों का हिस्सा रहे, लोगों ने भी इन नए शासकों से हाथ मिला लिया है। आज जैसा विद्रोह हम अमरीका में देख रहे हैं, वह दरअसल अरसे के संघर्ष और संगठन के साथ-साथ कविता, कला, संगीत, साहित्य के उन आयोजनों और स्मृतियों का परिणाम है जिनके माध्यम से अफ्रीकी अमरीकी खुद की कहानी सुनते-सुनाते रहे हैं। नस्लीय विभाजन की जीवंत उपस्थिति को लेकर अमरीकियों की नई पीढ़ी में बेहद शर्म और रोष है। एकजुटता का ऐसा प्रदर्शन एक आश्चर्यजनक घटना है।
क्या आपको लगता है कि कोविड-19 से निपटने के लिए लॉकडाउन और सरकार द्वारा उठाये गये अन्य असाधारण कदम ठीक थे? या यह जल्दबाजी में की गई कार्यवाही थी जिसके कारण अनेक लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया? और अब अचानक “अनलॉक” पर आप के क्या विचार हैं?
भारत में कोविड -19 का पहला मामला 30 जनवरी को दर्ज किया गया। डब्ल्यूएचओ द्वारा 11 मार्च को इसे महामारी घोषित कर देने के बाद भी भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि अभी स्वास्थ्य-आपातकाल जैसी स्थिति नहीं है। जब सरकार द्वारा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों को बंद और अंतरराष्ट्रीय यात्रियों को क्वारन्टीन कर देना चाहिए था, उन्होंने नहीं किया। शायद इसकी वजह ट्रम्प की प्रस्तावित यात्रा थी। फरवरी के अंतिम सप्ताह में ट्रम्प भारत पहुंचे। नमस्ते ट्रम्प जैसे आयोजन में भाग लेने के लिए हजारों लोगों ने अमरीका से मुंबई और अहमदाबाद के लिए उड़ान भरी और सैकड़ों-हजारों लोगों ने इसमें भाग लिया। इन दो शहरों पर कोरोनावायरस ने भयानक हमला कर दिया। क्या यह मात्र एक संयोग है?
तबलीगी जमात को कलंकित करने और नमस्ते ट्रम्प के महिमामंडन को कैसे जायज ठहराया जा सकता है? शीर्ष से शुरू करने और हवाई-यात्राएं करने वाले वर्ग को क्वारन्टीन करने की बजाय, सरकार ने इंतज़ार करना जारी रखा। और इसकी कीमत चुकाई मजदूर तबके ने। जब मात्र चार घंटे के नोटिस पर लॉकडाउन की घोषणा की गई तो देश में संक्रमण के 545 मामले थे और तब तक 10 मौतें हुईं थीं। इस कट-एंड-पेस्ट लॉकडाउन को इटली और स्पेन, जिन्होंने इसे “सोशल डिस्टेंसिंग” के लिए लागू किया था, से आयात किया गया था। बिना किसी ठोस योजना के थोप दिया जाने वाला लॉकडाउन मानवता के खिलाफ अपराध से कम नहीं है।
भारत में केवल अमीर लोग ही शारीरिक दूरी बना सकने में समर्थ है। गरीब तो शारीरिक रूप से हर जगह अटा पड़ा है; झुग्गियों में, छोटे-छोटे घरों में, अनधिकृत कॉलोनियों में। ऑपरेशन वंदे-भारत द्वारा विदेशों में रहने वाले भारतीयों को तो वहां से निकाल लाया गया पर लाखों मेहनतकश मजदूर बिना किसी आश्रय, भोजन या पैसे के, जिन शहरों में थे वहीँ फंस कर रह गये। परिवहन का कोई साधन उपलब्ध नहीं था तो वे सब हजारों किलोमीटर पैदल चलकर अपने गाँवों की ओर लौटने लगे। सैकड़ों-हजारों लोगों को जबरन क्वारन्टीन शिविरों में रख दिया गया और फिर कुछ समय बाद उन्हें छोड़ने की अनुमति जारी कर दी गई। बसों और ट्रेनों में ठूंस कर उन्हें वापस भेजा जाने लगा। वायरस भी उनके साथ सफ़र में था।
इस सारे प्रकरण में नज़र यही आया कि प्रधान मंत्री, जो चुनाव जीतने के मामले में तो बेहद चतुर हैं पर उन्हें उस देश के बारे में कोई जानकारी नहीं है, जिसके वह संचालक हैं। कोई जानकारी तक नहीं पर उनके अभिमान का कोई मुकाबला नहीं और विशेषज्ञों की राय लेने का तो किंचित प्रयास ही नहीं। उन्होंने चार घंटे के नोटिस पर 138 करोड़ लोगों को अपने घरों में बंद कर दिया। क्यों? कैसे? क्योंकि वह ही यह कर सकता थे। भाजपा में -राजनेता, नौकरशाह, व्यापारी-वर्ग, उद्योगपति और यहां तक कि उनके अपने सहयोगी भी बोलने के परिणामों से भयभीत रहते हैं। उनके दिमागों में या तो डर भरा है या वे प्रधानमंत्री को खुश रखने या उनकी कृपा प्राप्त करने की जुगत भिड़ाने में व्यस्त रहते हैं। हमीं ने उन्हें दोनों सिरों से हथौड़ा चलाने और देश को नष्ट करने का जनादेश दिया है।
लॉकडाउन के दौरान संक्रमण के केसों में तेजी से वृद्धि होती रही। अब संक्रमण का ग्राफ किसी खड़ी चट्टान की तरह हो गया है। इस समय देश में करीब पौने तीन लाख से अधिक संक्रमण के मामले हैं, अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है और अब सरकार ने लॉकडाउन खत्म कर दिया है। सौभाग्य से, रोगियों का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जिनमें बीमारी के गंभीर लक्षण नहीं हैं। अगर हम संख्याओं पर भरोसा कर सकते हैं तो मृतकों की संख्या अमरीका और यूरोप की तुलना में बहुत कम है। लेकिन लाखों लोगों की रोज़ी-रोटी छिन चुकी है। आबादी का एक बड़ा हिस्सा भुखमरी के कगार पर है। जिन गांवों में लोग लौट कर गए हैं वहां क्या हो रहा है? वहां जातिवाद, सामंतवाद, लिंगवाद जैसे जिन्न पहले से ही मौजूद हैं और ऐसे भय और निराशा के क्षणों में आखिर ये लोग कैसे गुज़र-बसर करेंगे?
लेकिन मोदी अब भी राफेल फाइटर जेट खरीदना और वास्तुशिल्प की विरासत छोड़ने और केन्द्रीय दिल्ली को नई शक्लो-सूरत देने के इरादे से बीस हजार करोड़ रुपये खर्च करना चाहते हैं। इस बीच, वह आपदा-प्रबंधन के काम को उन राज्य सरकारों के लिए छोड़ देंगे जिनसे उन्होंने लॉकडाउन घोषित करने से पहले कभी भी कोई सलाह नहीं ली थी; लेकिन अब वही राज्य-सरकारें किसी भी किस्म की अफरा-तफरी के लिए दोषी होंगी।
मोदी और उनका गोदी-मीडिया इस दोहरी विपदा को उपलब्धि के तौर पर बेचेगा। बिहार में 72,000 एलईडी स्क्रीन के साथ आभासी चुनाव अभियान शुरू किया ही जा चुका है। लोग भूखे हैं पर उनके पास इस काम के लिए पैसे हैं। एक बार फिर उनकी पटकथा सांप्रदायिकता की ओर लौट रही है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया और जेएनयू के छात्रों पर उन्ही के विश्वविद्यालयों में पुलिस और हिंदुत्ववादी गुंडों द्वारा बेरहमी से हमला, जो मुख्य तौर पर मुस्लिमों पर लक्षित था, किया जा रहा था। उन्हीं छात्रों को पूर्वोत्तर दिल्ली में हिंसा के साजिशकर्ता के रूप में गिरफ्तार किया जा रहा है! यह भीमा-कोरेगांव का दिल्ली संस्करण है। इन दो घटनाओं के बीच भारत के कुछ सबसे अच्छे वकील, कार्यकर्ता, शिक्षक और बुद्धिजीवी निराधार आरोपों के आधार पर जेलों में बंद कर दिए गए हैं । किसी ने कहा कि मोदी गंजे को भी कंघी बेच सकते हैं। अगर हम इस कंघी को खरीदते हैं तो हम इसी लायक हैं। हम मूर्खों की भांति अपने गंजे सिरों पर कंघी फेरते रह सकते हैं।
सरकार ने “तीव्र आर्थिक विकास और नागरिक सशक्तिकरण” के लिए “डिजिटल तकनीकों का दोहन” करने के लिए डिजिटल इंडिया परियोजना शुरू की है। आरोग्यसेतु एप और MyGovCoronaHub को इस परियोजना के हिस्से के रूप में पेश किया गया है। आपकी राय में, डिजिटल तकनीकों का दोहन करने से भारत सरकार का क्या अभिप्राय है? यह किस भारतीय नागरिक को, किन तरीकों से सशक्त करने के लिए आरम्भ की गई है? और क्या नागरिकों की बहुसंख्या इस परियोजना के दायरे से बाहर नहीं है?
भारत में 2022 तक स्मार्टफोन उपयोगकर्ताओं की संख्या 44 करोड़ हो जाने का अनुमान है। यह संख्या उस समय की अनुमानित कुल आबादी के एक तिहाई से भी कम है। और आज बच्चों तक से ऑनलाइन पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन रखने की उम्मीद की जा रही है। डिजिटल इंडिया की महत्वाकांक्षी योजनाओं में बहुसंख्यक आबादी शामिल ही नहीं है। जिन ऐप्स का आपने उल्लेख किया है उन्हें अधकचरा और अपूर्ण होने के बावजूद पेश कर दिया गया है। बिल गेट्स की तरह के दृष्टिकोण, तकनीक या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे विचार, जिनके अनुसार इनसे स्वास्थ्य, शिक्षा और गरीबी जैसी समस्याओं का समाधान हो जायेगा, बेहद खतरनाक साबित होंगे। हमें राजनीतिक समाधान की आवश्यकता है। अन्याय, भूख, नव-नस्लवाद, नव-जातिवाद, इस्लामोफोबिया और पारिस्थितिकी-विनाश जैसी चीज़ें नव-उदारवादी पूंजीवादी परियोजना का हिस्सा हैं। ऐप्स और खुद से मान ली गई डिजिटल दक्षता, समस्या को न तो हल कर सकते हैं और न हीं कर पायेंगे। ये उपाय हमें निजीकृत पूंजीवादी और नागरिकों पर निगरानी रखने वाली सत्ता के साथ नत्थी करने के लिए हैं।
हाल ही में, एक दलित छात्रा देविका ने आत्महत्या कर ली क्योंकि उसके पास ऑनलाइन शिक्षा तक पहुँचने के साधन नहीं थे। केरल सरकार द्वारा इस प्रणाली को नियमित करने की कोशिश की जा रही थी। ऐतिहासिक रूप से, प्रौद्योगिकी को समाज को लोकतांत्रिक बनाने का एक साधन माना जाता है। देविका और ऑनलाइन शिक्षा इत्यादि जैसे मामलों में हमने देखा है कि भारत में, प्रौद्योगिकी लोगों को हाशिए पर अथवा उससे बाहर धकेलने का माध्यम बन गई है। वर्तमान विशिष्ट संदर्भ में इस विरोधाभास से कैसे निपटा जा सकता है?
मुझे लगता है कि मैं इस प्रश्न का उत्तर आपके पूर्व-प्रश्न में दे चुकी हूँ। किसी विशेषाधिकार रहित पृष्ठभूमि वाले बच्चों के लिए ऑनलाइन शिक्षा एक आपदा बन सकती है। देविका ने आत्महत्या कर ली क्योंकि वह बहिष्कार के गहरे कुएं में धकेल दी गई थी। उसके पास स्मार्टफोन नहीं था और टीवी सेट की मरम्मत तक कराने के लिए उसके परिवार के पास पैसे नहीं थे। देविका जैसे लाखों बच्चे हैं। लेकिन उन युवाओं के लिए भी जिनके पास स्मार्टफोन हैं- स्कूल और विश्वविद्यालय के परिसर में कक्षाओं के बाहर जो कुछ होता है वह भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितनी कक्षा में चंलने वाली गतिविधियाँ। दलित, आदिवासी और आजकल मुस्लिम छात्रों को स्कूल और कॉलेज परिसरों में अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। हम सब को मिलकर इन लड़ाइयों को भी लड़ना होगा। ऑनलाइन हो कर खुद को सबसे अलग कर लेना हमारे समाज के लिए बेहद खतरनाक होगा। मैं ऑनलाइन शिक्षा के इस नये विचार को लेकर अत्यंत भयभीत हूं – जो सरकारें, लंबे समय से शिक्षा में विनिवेश की इच्छुक रही हैं वो इस माध्यम का सहारा लेकर शिक्षा का निजीकरण करने की कोशिश करेगी। उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।
हाल ही में अनेक अतर्राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों के साथ मिलकर आपने “प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल” नाम का का मंच स्थापित किया है। इससे पूर्व भी “लेफ्ट इंटरनेश्नलिस्म” और “ब्लैक इंटरनेश्नलिस्म” जैसे मंच बने हैं। इस तरह के अधिकांश प्रयास विघटित हो गये और हमारी राजनीतिक कल्पनाएँ भी कहीं न कहीं राष्ट्रीय और नस्लीय हैं। ऐसे में “प्रोग्रेसिव इंटरनेश्नलिस्म” राष्ट्रीय स्तर पर लोकलुभावनवाद और विश्व प्रणालियों की पूर्ण विफलता के संदर्भ में आगे कैसे बढ़ेगा?
अंतर्राष्ट्रीय पहलकदमियों का विशेष महत्व है। ऐसी पहलकदमियां हमें परिप्रेक्ष्य, समझ, संरक्षण के तरीके और एकजुटता के मार्ग सुझाती है। विशेष रूप से तब जब हमारे जैसे देशों में, राजनीतिक बयानबाजी के नाम पर बदसूरत हिंदू राष्ट्रवाद का बोलबाला है। लेकिन यह भी सत्य है कि अंतर्राष्ट्रीयतावाद स्थानीय सांगठनिक कार्य और विरोध को प्रतिस्थापित नहीं कर सकता। ऐसा करना एक बड़ी गलती होगी। हमें अपनी लड़ाईयां लड़नी होगी, और इस लड़ाई के अधिकांश हिस्से में हम अकेले ही होंगे। इसमें कोई अन्य हमारी मदद नहीं कर सकता।
वैश्विक स्तर पर प्रतिरोध आंदोलन क्रमिक सुधारवादी आशावादी कार्यों की बजाय आमूलचूल और प्रणालीगत परिवर्तन की मांग कर रहे हैं। भारत में, हिंदू नाजी शासन में भी हिंदू उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी अपने आशावादी सुधारवादी राजनीतिक एजेंडे पर जोर देते हैं। आप इसे भारतीय संदर्भ में कैसे देखती हैं?
इसका संक्षिप्त उत्तर तो यही है कि यथास्थिति में जिन लोगों का सामाजिक / आर्थिक / बौद्धिक कुछ भी दांव पर होता है, उनके लिए क्रांति करना विरली ही बात होती है। वे व्यवस्था में थोडा बहुत रंग-रोगन कर या उसे ठोक-पीट कर ठीक करना चाहते हैं। चीज़ों का थोड़ा-बहुत इधर-उधर हेर-फेर; इससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए वे अपना विश्वास बनाए रखते हैं, आज भारत की लगभग हर सार्वजनिक संस्था न्याय, समतावाद और लोकतंत्र की कसौटी पर खरी उतरती नहीं दिखाई देती। वर्तमान हिंदू नाज़ी शासन में आप द्वारा किये गये वर्गीकरण में शामिल कई लोग बह जाएंगे। लेकिन फासीवादी विचारधारा में श्रेष्ठताबोध का विचार, ब्राह्मणवाद और भूदेव के विचार, जिसके अनुसार ब्राह्मण ही भूमि का देवता है, से भिन्न नहीं है। यह देख पाना कठिन नहीं है कि ‘दैवीय आदेश के कारण कुछ लोग श्रेष्ठ ही पैदा होते हैं और कुछ हीन’ जैसे विचार श्रेष्ठताबोध से ग्रसित फासीवादी विचारधारा से कैसे घुल-मिल जाते हैं।
हमने देखा है कि कैसे एनआरसी-सीएए-एनपीआर आंदोलन में, संविधान और भारतीय राष्ट्रीय ध्वज का इस्तेमाल प्रमुखता से किया गया। हमारा प्रश्न विशेष रूप से संविधान के बारे में है। क्या आपको लगता है कि संविधान का इस्तेमाल, दलित-बहुजन-मुस्लिम के मुख्य सवाल से ध्यान हटाने के लिए किया जा रहा है? आपके अनुसार इसके निहितार्थ क्या होंगे?
यह अत्यंत जटिल मामला है। सोचे-समझे कारणों से लोगों को अपनी पहचान चेहरे पर पोत कर अलग-थलग पड़ जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है। भारतीय संविधान, डॉ अम्बेडकर ने जिसकी मसौदा समिति की अध्यक्षता की थी, अपने समय से बहुत आगे का दस्तावेज़ था। भारत में पहली बार नैतिक और कानूनी रूप से निर्धारित किया गया कि सभी मनुष्य समान हैं और उनके समान अधिकार हैं। भारत जैसे जातिप्रथा से ग्रस्त विविध समाज में सबसे ऊपर और सब से नीचे की पायदान पर बैठे लोगों के अतिरिक्त सभी लोग किसी न किसी पर अत्याचार करते हैं और किसी न किसी का अत्याचार सहन करते हैं। ऐसे समाज के लिए समानता और संवैधानिक नैतिकता का विचार बहुत बड़ी बात थी।
दलितों के लिए विशेष रूप से यह एक पवित्र पुस्तक है। विडंबना यह है कि अंबेडकर खुद संविधान के कई पहलुओं से बहुत निराश थे और उनका मानना था कि इसे एक जीवंत दस्तावेज होना चाहिए और हर पीढ़ी को इसे सुधारने की दिशा में काम करना चाहिए। पर हिंदू दक्षिणपंथी ताकतों द्वारा संविधान पर लगातार हमलों से बचाने की आवश्यकता है। हमें इसके लिए जुटना होगा ताकि संविधान को बचाया जा सके। अब जब आरएसएस सत्ता में है तो संविधान बचाने वालों को संविधानवाद जैसा कोई रास्ता अपनाना पड़ेगा।
साल 2019 बेहद चौंकाने वाला था। कश्मीर के विशेष दर्जे को निरस्त कर दिया गया। मुस्लिम विरोधी नागरिकता संशोधन अधिनियम लागू कर दिया गया। इन क़दमों के माध्यम से सरकार द्वारा संविधान का घोर उल्लंघन किया गया। सरकार के इन क़दमों का सीधा सा अर्थ यह है कि संविधान का पुनर्लेखन करने और भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की बजाए ऐसे व्यवहार किया जाए जैसे संविधान नाम की कोई चीज़ ही नहीं है। मुख्यधारा की मीडिया द्वारा मुसलमानों को राष्ट्रविरोधी, पाकिस्तान-समर्थक और आतंकवादी के रूप में प्रदर्शित करना, उनके लिए भद्दी और अमानवीय भाषा का इस्तेमाल करना, अदालतों और पुलिस कार्रवाई में उनके प्रति पक्षपात और सड़कों पर उनके साथ खूनखराबा; ऐसी स्थिति में विरोध करने वाले मुसलमानों को लगा कि खुद को बचाने के लिए उनके पास सिर्फ एक ही रास्ता बचा है कि वे सड़कों पर उतर कर भारतीय ध्वज लहरायें और संविधान की प्रस्तावना का पाठ करें।
अब जब मुसलमानों का सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार किया जाने लगा है, अब जब मुख्यधारा का मीडिया कोरोनाजिहाद और मानवबम जैसे हैशटैग के साथ समाचार प्रसारित करता है, जब सीएए विरोधी आन्दोलन और कोरोना संकट के दौरान मुसलमानों का इलाज़ करने से मना कर देने जैसी खौफनाक ख़बरें सुनने को मिलती हैं; ऐसे हालात में भाजपा नेता कपिल मिश्रा अकड़ भरी डींगे हांक रहा है और वित्त-राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर जिसने “देश के गद्दारों को, गोली मारों सालों को” जैसे नारे लगाये, वित्त मंत्री की बगल में बैठकर प्रेस-वार्ता को संबोधित करता है। जनता को इस तरह के निर्लज्ज संकेत शीर्ष से मिल रहे हैं।
क्या हम उस दृश्य को भूल सकते हैं जब फैजान, जिसके गले में लाठी उतार कर पुलिस ने उसे पहले राष्ट्रगान गाने के लिए मजबूर किया और फिर सड़क पर मरने के लिए छोड़ दिया? क्या आप कल्पना भी कर सकते हैं कि अगर ऐसा ही कुछ अमरीका में किसी अफ्रीकी अमरीकी के साथ होता तो उसका परिणाम क्या होता? हमारी शर्म कहाँ खो गई है?
खैर, संविधानवाद पर आपके प्रश्न का उत्तर देते हुए मैं इतना ही कह सकती हूँ कि किसे विरोध करने दिया जाएगा, किसे बोलने दिया जाएगा; यह विरोध करने और बोलने वाले के धर्म, जाति, नस्ल और लिंग पर निर्भर करता है। यहाँ समानता नाम की कोई चीज़ नहीं है; समानता के विचार का कोई संकेत ही नहीं है, दिखावे भर के लिए भी नहीं। इसी वजह से हम बौद्धिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से एक राष्ट्र के तौर पर अभिशप्त हो रहे हैं। सभी के लिए न्याय, सम्मान और गरिमा की कोशिश करने से अधिक मुक्तिकामी और उल्लासपूर्ण कुछ और हो नहीं सकता। ऐसा करने के लिए हमें वर्ग, जाति, लिंग के साथ-साथ सम्प्रदायवाद के प्रिज्म से देखना होगा। यह प्रतिरोध-आंदोलनों के भीतर देखने पर भी उतना ही लागू होता है और जितना जिनके खिलाफ हम लड़ रहे हैं उन्हें देखने के लिए भी। और जब तक हम यह नहीं सीखते तब तक हम बौने ही बने रहेंगे।
यह इंटरव्यू दलित कैमरा से साभार प्रकाशित है। अनुवाद कुमार मुकेश ने किया है।
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