जान ख़तरे में है इंसान की, फिर क्या जल्दी है आस्था के प्रदर्शन की?


क्या हम कभी इसके पीछे की तर्कप्रणाली को जान सकेंगे कि जब मुल्क में कोविड-19 संक्रमण के महज 500 मामले थे तो मुल्क के कर्णधारों ने दुनिया में सबसे सख्त कहा जाने वाले लॉकडाउन का ऐलान कर दिया और 140 करोड़ आबादी के इस मुल्क को तैयारी के लिए महज चार घंटे दिये। वहीं अब जबकि कोविड के संक्रमित मरीजों की संख्या में लगातार उछाल आ रहा है, रोज नये नये रिकॉर्ड बन रहे हैं; कोविड-19 से पीड़ित लोगों की तादाद में एक दिन में 9,304 से वृद्धि हुई है जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है तथा कोविड से पीड़ित कुल लोगों की तादाद 2,16,919 हो गयी है जबकि एक दिन में मरने वालों की संख्या 260 हुई है; कोविड से बुरी तरह प्रभावित मुल्कों की सूची में भारत सातवें नम्बर पर पहुंचा है, तब सरकार ने ‘अनलॉक’ करने की योजना बनायी है!

निश्चित ही कोई कह सकता है कि ऐसे असुविधाजनक प्रश्न यहां नहीं पूछे जाने चाहिए।

अब जैसी स्थिति है, गृह मंत्रालय अपनी एक चरणबद्ध योजना के साथ हाजिर हुआ है कि भारत को किस तरह ‘अनलॉक’ किया जाएगा। देश को खोलने के मौजूदा चरण का- जिसे अनलॉक-1 कहा जा रहा है- फोकस अर्थव्यवस्था पर होगा। यह तय किया गया है कि मॉल, होटल, रेस्तरां तथा प्रार्थना स्थल 8 जून से खुलेंगे।

आर्थिक मंदी को लेकर सरोकारों को समझा जा सकता है जबकि सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़े विगत ग्यारह साल में सबसे निचली वृद्धि दर पर हैं और अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित दिखती है। लेकिन यह बात समझ से परे दिखती है कि प्रार्थना स्थल खोलने की इतनी क्या जल्दी है।

क्या यह इसी वजह से किया गया क्योंकि सुश्री ममता बनर्जी ने पहले ही ऐलान कर दिया था कि 1 जून से बंगाल में सभी धार्मिक स्थल खोले जाएंगे? या कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा द्वारा प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में रखी गयी मांग को सम्बोधित करना था, जिसमें उन्होंने 1 जून से धार्मिक स्थल खोलने की अनुमति मांगी थी ताकि भक्तों की मांगों को पूरा किया जा सके? या इसके जरिये विभिन्न धार्मिक प्रतिष्ठानों में उठ रही आवाज़ों को सम्बोधित करना था, जहां काफी समय से लॉकडाउन की जरूरत पर ही प्रश्न उठ रहे थे? यह भी कहा जा रहा था कि उन्हें आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।

ऐसी रिपोर्टें भी प्रकाशित हुई हैं जिसमें बताया गया है कि तिरुपति मंदिर- जो सबसे धनी हिन्दू मंदिर कहा जाता है- उसने 1200 के करीब ठेका श्रमिकों को काम से निकाल दिया है।

ध्यान रहे कि धार्मिक स्थल 25 मार्च से ही बन्द चल रहे हैं, जब भारत सरकार की तरफ से इस वायरस के संक्रमण की कड़ी तोड़ने के नाम पर बहुत सख्त किस्म के लाकडाउन का ऐलान किया। इसके बाद तीन दफा लॉकडाउन बढ़ाया गया, लेकिन धार्मिक स्थान बन्द ही रखे गये। आर्थिक गतिविधियों को शुरू करने की बात- सभी सावधानियां बरतते हुए- तो समझ में आती है, लेकिन यह बात समझ से परे है कि जब जानकारों के मुताबिक देश में समुदाय आधारित संक्रमण फैल रहा है! तब ऐसे कदम क्यों उठाए जाएं कि मुख्यतः आत्मिक शांति हासिल करने के लिए हजारों या सैकड़ों की तादाद में लोगों के इकट्ठा होने के रास्ते को सुगम किया जाए, जबकि कोविड-19 के संक्रमण की दर में कहीं से कमी नहीं आती दिख रही है, और जब मुल्क के अलग अलग हिस्सों से यह रिपोर्ट आ रही हैं कि अस्पताल मरीजों से भरे पड़े हैं और इलाज करने के लिए स्वास्थ्यकर्मियों- डॉक्टरों, नर्सों की- जबरदस्त कमी देखने में आ रही है?       

देश के कुछ हिस्सों में चीज़ें निश्चित ही सामान्य नहीं हैं। यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि मुंबई में कोविड अस्पताल बनाने के लिए केरल से 50 डॉक्टरों और 100 नर्सों की एक बड़ी टीम पहुंच रही है। ब्रहन्मुंबई म्युनिसिपल कार्पोरेशन ने उनसे सम्पर्क किया कि कोरोना महामारी को रोकने में हमारी मदद करें। केरल से दो वरिष्ठ डॉक्टर मुंबई पहुंच गये हैं और बाकी दल भी जल्द ही पहुंचने वाला है।   

हम गुजरात की स्थिति से भी वाकिफ़ हैं जो महाराष्ट्र की तरह कोविड संक्रमण से बुरी तरह प्रभावित राज्य दिखता है और किस तरह गुजरात उच्च अदालत ने कोविड नियंत्राण में असफलता के लिए, उसके अपने कुप्रबंधन के लिए गुजरात सरकार की जबरदस्त आलोचना की है।

अब हुकूमत की बागडोर सम्भालने वालों की ओर से भले ही यह दावे किये जा रहे हों कि कोविड-19 के खिलाफ लम्बे संघर्ष में हम ‘‘जीत’’ के रास्ते पर हैं, मगर जमीनी स्थिति कतई उत्साहित करने वाली नहीं है।

इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त़ कोविड-19 से बुरी तरह प्रभावित दुनिया के 10 मुल्कों की सूची में भारत 9वें पायदान से 7वें पायदान पर पहुंच गया है अर्थात स्थिति अधिक ख़राब हुई है। कोविड संक्रमित मरीजों की तादाद जहां अमेरिका में 18 लाख है, ब्राजील में पांच लाख तक पहुंची है तो रूस में चार लाख है।

यह बात पहले भी चर्चा में आ चुकी है कि इतने केसों के चलते भारत एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में अव्वल बन गया है और उसने चीन को बहुत पहले ही पछाड़ दिया है, जबकि इस आसन्न महामारी की सूचना उसे पहले ही मिल चुकी थी।

धार्मिक स्थलों में पहुंचने पर लगी रोक हटाने के हिमायती लोगों/सरकार की तरफ से यह भी दलील दी जा रही है कि वह कोविड-19 से बचने के लिए जरूरी एहतियात बरतने के लिए लोगों को प्रेरित कर सकते हैं, वह इस बात को सुनिश्चित कर सकते हैं कि दस से अधिक लोग एकत्र न पहुंचें या धार्मिक स्थलों पर किसी भी किस्म का जमावड़ा न लगे, लेकिन भारत जैसे विशाल मुल्क की उतनी ही विशाल आबादी को देखते हुए इन सुझावों पर अमल करना नामुमकिन होगा।

पड़ोसी पाकिस्तान इस मामले में एक ऐसे अनुभव का प्रत्यक्षदर्शी रहा है, जिससे सीखा जा सकता है।

याद रहे कि रूढिवादी तत्वों और उलेमाओं के दबाव में झुकते हुए पाकिस्तान के राष्ट्रपति अल्वी ने उलेमाओं के साथ बैठ कर एक 20 सूत्री योजना तैयार की कि अगर श्रद्धालु मस्जिदों में, इबादतगाहों में पहुंचते हैं तो क्या क्या सावधानी बरती जा सकती है। इसमें मास्क पहनना, हाथ मिलाने या गले मिलने पर पाबंदी, श्रद्धालुओं द्वारा अपना मुंह छूने पर पाबंदी ऐसे तमाम नियम बनाए गए थे। मगर जब इन स्पेशल आपरेटिंग प्रोसिजर्स के अमल का वक्त आया, तो वह सभी हवाई साबित हुए। तमाम जगहों पर पुलिसवाले श्रद्धालुओं के कोप का निशाना बने। देश की अस्सी फीसदी मस्जिदों से यही ख़बरें आयीं कि इस आचार संहिता का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन हुआ।

अगर विगत दो माह से अधिक वक्त़ से अलग अलग महाद्वीपों में निवास कर रहे इन विभिन्न आस्थाओं से सम्बद्ध लोगों ने कोरोना महामारी के संकट के मददेनज़र अपने सियासी लीडरों की बातों का पालन किया था, तो फिर क्या उन्हें यह नहीं समझाया जा सकता था कि कुछ और सप्ताहों के लिए वह अपने निजी दायरों में ही अपने आस्था से जुड़े आचारों को निभायें, जैसा कि मार्च के आखिर से वह करते आये थे। क्या उन्हें यह नहीं कहा जा सकता था कि एक आस्तिक, जो खुदा की सर्वशक्तिमानता और सब जगह मौजूदगी की बात को मानता है तथा वह बाकी सभी को ‘ईश्वर की संतान’ ही मानता है, तो फिर इन बाकी जनों की भलाई के लिए या उनकी जिन्दगी सलामत रहे इसके लिए वह आस्था के सार्वजनिक प्रदर्शन से कुछ समय बचे। मंदिर, मस्जिद, गुरद्वारे या चर्च आदि स्थान पर जाने की जिद न करे।

क्या उसे यह नहीं बताया जा सकता था कि संयुक्त राज्य अमेरिका जैसा मुल्क- जिसके पास दुनिया के उच्चतम क्वालिटी के डाक्टर और अस्पताल मौजूद हैं- वहां एक लाख से अधिक लोगों ने इस महामारी में अपनी जान खोयी है। अमेरिका के हिसाब से यह आंकड़ा वाकई बड़़ा है क्योंकि चाहे वियतनाम युद्ध देखें या 50 के दशक की शुरुआत में कोरिया में चले युद्ध पर गौर करें, जिनमें अमेरिकी सेना सहभागी थी, तो इन दोनों युद्धों में अमेरिका ने जितने सैनिक खोये, उससे बड़ा यह आंकड़ा है।

विशेषज्ञों की बात पर गौर करें तो हम पाते हैं कि आने वाले महीनों में, खासकर जून-जुलाई में, आंकड़ों में जबरदस्त तेजी आने वाली है। मिसाल के तौर पर, प्रोफेसर रणदीप गुलेरिया, जो आल इंडिया इन्स्टिट्यूट आफ मेडिकल साइंसेज़ के निदेशक हैं और भारत की कोविड विरोधी रणनीति बनाने वालों में अग्रणी हैं, उन्होंने आकलन करके इसी बात की ताईद की है।

इस घड़ी में दक्षिण कोरिया के अनुभव को ध्यान में रखा जा सकता है और एक अदद मरीज़- जिसे पेशंट 31 कहा गया- की वहां निभायी भूमिका को परखा जा सकता है। मार्च के पूर्वार्द्ध में यह किस्सा सुर्खियां बना था। मार्च की शुरुआत में यह बात उजागर हुई थी कि कुछ सप्ताह के अन्दर दक्षिण कोरिया कोविड-19 के चन्द मामलों से हजारों मामलों तक पहुंचा था और जिसके लिए एक छोटे से चर्च को जिम्मेदार माना जा रहा था।

‘‘स्योल महानगर प्रशासन ने इस चर्च के खिलाफ बाकायदा एक शिकायत दर्ज की तथा उसे हत्या का जिम्मेदार माना। मालूम हो कि इस चर्च से सम्बंधित पेशन्ट 31 को ‘‘सुपर स्प्रेडर’ अर्थात कोविड का ‘महाप्रसारक’ घोषित किया गया।”

किस्सा यह हुआ था कि इस चर्च से सम्बंधित एक महिला, जो चीन के वुहान से लौटी थी, उसे कोविड का संक्रमण था लेकिन इसको उजागर किये बगैर वह महिला चर्च की प्रार्थना सभाओं में आती रही और लोगों को संक्रमित करती रही।

हम चाहे तो बांग्लादेश के इस्कॉन मंदिर के उदाहरण को भी देख सकते हैं जिसमें यही पाया गया था कि यह आश्रम 8 मार्च को बन्द हो गया था, लेकिन वहां के निवासियों में से 31 श्रद्धालु कोरोना से संक्रमित पाये गये थे। अपने मुल्क में हम चाहें तो मरकज़ के उदाहरण को भी देख सकते हैं।

एक बार जब देश में धार्मिक स्थलों से लॉकडाउन हट जाय तथा श्रद्धालुओं का वहां पहुंचना शुरू हो, तो इस बात की कल्पना करना कठिन नहीं होगा कि शारीरिक दूरी, मास्क पहनना या हाथ मिलाने तथा गले मिलाने आदि पर लगी पाबंदियां किस तरह हवा हो जाती हैं। महज 15 दिन पहले जब सरकार ने अल्कोहल की दुकानों को खोलने की इजाज़त दी थी तब पूरे मीडिया में वह बातें सुर्खियां बनी थीं कि कैसे सारे नियमों को ताक पर रख कर लोग कतारों में खड़े थे।

न हमारे पास इतनी संख्या में सुरक्षाकर्मी हैं- पुलिस या अन्य अर्द्धसुरक्षा बल के जवान- जो इतनी भीड़ को नियंत्रित कर सकते हैं, जो इन धार्मिक स्थानों पर पहुंचना शुरू करेगी और हुकूमत के पास इतनी इच्छाशक्ति है कि वह ऐसी भीड़ के खिलाफ सख्त कदम उठाने की बात करे।

आज जबकि अंततः यह तय किया गया है कि धार्मिक स्थल खोले जाएंगे तो इस बात को याद करना सुकूनदेह हो सकता है कि किस तरह अप्रैल और मई ऐसे दो महीने थे, जब वेटिकन से लेकर मक्का तक, मुंबई से लेकर मिनियापोलिस तक, सब जगह छोटे तथा बड़े धार्मिक स्थलों को जनता के लिए बन्द कर दिया गया था, वह एक ऐसा दौर था जब आस्था ने विज्ञान के लिए रास्ता सुगम किया था।

आम तौर पर जो एकांगी धारणा हमारे समाजों में मौजूद रहती है, इससे विपरीत हम सभी ने यही पाया था कि मुस्लिमबहुल मुल्क संयुक्त राज्य अमीरात, सउदी अरब, इरान, अल्जीरिया, टयुनीशिया, जॉर्डन, कुवैत, फलस्तीन, तुर्की, सीरिया, लेबनान और मिस्र, सभी ने समूहों में प्रार्थनाओं को स्थगित किया था। और जब मस्जिदों की तालाबन्दी को लेकर पाकिस्तान के अन्दर रूढ़िवादी मुल्लाओं की तरफ से विरोध होने लगा तो मिस्र की अल अजहर मस्जिद के प्रमुख ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति की विशेष गुजारिश पर फतवा जारी किया था, जिसमें खतरनाक कोविड वायरस पर रोकथाम के लिए जुम्मे की नमाज़ को स्थगित करने का आदेश दिया गया था।    

फतवे में इस बात पर जोर दिया गया था कि सार्वजनिक सत्संग- जिसमें मस्जिदों में सामूहिक नमाज़ अता करना भी शामिल होता है- से कोरोना वायरस के फैलाव में आसानी हो सकती है और मुस्लिम मुल्कों की हुकूमतों के पास यह पूरा इख्तियार है कि वे ऐसी घटनाओं को रद्द कर दें। ज़रूरत पड़े तो इसमें यह भी कहा गया था कि अज़ान- जिसके तहत प्रार्थना के लिए आवाज़ दी जाती है- के शब्दों को भी संशोधित किया जा सकता है, जिसमें यह कहा जा सकता है कि ‘नमाज़ के लिए आने की बात कहने के बजाय’ आप अपने घर पर ही नमाज़ अता करें कह सकते हैं।

इस पूरे मसले पर एक विचारप्रवर्तक लेख में प्रोफेसर परवेज हुदभॉय, जो पाकिस्तान के अग्रणी भौतिकीविद और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, उन्होंने लिखा था:

‘‘…अधिकतर शिक्षित लोग अब इस बात को समझ रहे हैं कि क्यों वैज्ञानिक दृष्टिकोण काम करता है और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं करता है। इतना ही नहीं, बेहद अतिरूढ़िवादी और विज्ञान को खारिज करने वाले विश्व नेता भी वैज्ञानिकों से अपील कर रहे हैं कि वे राहत कार्य में तेजी लाएं। आस्था की उनकी तमाम बातें और अपने बर्तन पीटने या बाल्कनियों से ताली पीटने के आवाहन, अंततः यहीं समाप्त होते हैं कि जल्द से जल्द कोरोना वायरस के लिए मारक वैक्सीन और दवाइयों का आविष्कार हो। झांसेबाजी, शेखी और शब्दाडंबर की एक सीमा होती है।   

इन दिनों जिस विपरीत दौर से हम गुजर रहे हैं, तब इस चरण को याद करना और दोहराना कम महत्वपूर्ण नहीं है।


सुभाष गाताडे वरिष्ठ पत्रकार और वामपंथी कार्यकर्ता हैं

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5 Comments on “जान ख़तरे में है इंसान की, फिर क्या जल्दी है आस्था के प्रदर्शन की?”

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