पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) राजस्थान सरकार द्वारा तीसरी बार ‘राजस्थान विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध विधेयक, 2025’ को 9 सितंबर 2025 को राज्य विधानसभा में पारित किए जाने की कड़ी निंदा करता है। यह उल्लेखनीय है कि यह विधेयक विपक्ष की अनुपस्थिति में बीना किसी चर्चा के पारित किया गया है। इतने महत्वपूर्ण विधेयक, जो संवैधानिक अधिकारों को प्रभावित करता है, को बिना बहस के जल्दबाजी में पारित करना विधानसभा अध्यक्ष की अलोकतांत्रिक कार्यशैली को दर्शाता है।
पीयूसीएल ने कहा है कि इस विधेयक को स्वीकृति न देने के लिए तथा राज्यपाल और राष्ट्रपति को इसे वापिस लौटने के लिए गुहार लगाई जाएगी।कपीयूसीएल के अनुसार, यह एक क्रूर कानून है, जिसकी वैधता संदिग्ध है। यह व्यक्तियों से उनके संवैधानिक अधिकार—अंतःकरण की स्वतंत्रता—को छीनता है, धर्मांतरण के लिए कठोर प्रक्रियात्मक प्रावधान लागू करता है, और इसमें दी गई सजा के प्रावधान किसी भी अदालत में टिक नहीं सकते। यह अधिनियम संविधान के सभी मौलिक अधिकारों को दरकिनार करता है। ये प्रावधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अंतर-धार्मिक संवाद, पसंद, समानता और स्वतंत्र इच्छा का उल्लंघन करते हैं, अत्यधिक व्यापक हैं, अत्यधिक दंडात्मक हैं, जटिल प्रक्रियाओं में उलझे हैं, और एक धर्म की नीतियों को बढ़ावा देते हैं।
पीयूसीएल इस विधेयक के जवाब में एक विस्तृत नोट भेजेगा, लेकिन यहां कुछ प्रमुख चिंताएं हैं:
प्रमुख आपत्तियां
पीयूसीएल के अनुसार, 3 सितंबर 2025 के विधेयक की हर धारा में समस्याएं हैं:
a. परिभाषा खंड की व्यापकता: धारा 2 में दी गई परिभाषाएं कई मामलों में अत्यधिक व्यापक और मनमानी हैं, क्रूर हैं, और इनकी अनुचितता की जांच होनी चाहिए। ये परिभाषाएं राज्य सूची के किसी भी प्रविष्टि से संबंधित नहीं हैं। ‘प्रलोभन’ की परिभाषा वर्तमान में लागू 11 अन्य राज्यों के कानूनों से भी अधिक व्यापक है। इसी तरह, ‘जबरदस्ती’ में मनोवैज्ञानिक दबाव को शामिल किया गया है, जिसके लिए पुलिस के पास कोई प्रशिक्षण या प्रक्रिया मौजूद नहीं है।
b. निषेधात्मक घोषणा: धारा 3 एक निषेधात्मक घोषणा है। धारा 5 के आपराधिक प्रावधानों के साथ मिलकर, यह दर्शाता है कि धर्मांतरण अमान्य और दंडनीय अपराध है, भले ही धर्मांतरित व्यक्ति 18 वर्ष से अधिक उम्र का वयस्क हो और अपनी इच्छा से नए धर्म का पालन करना चाहता हो (देखें धारा 2(g))।
c. विस्तृत दायरा: विधेयक उन व्यक्तियों तक विस्तारित है जो धर्मांतरण को ‘उकसाते, समझाते या साजिश करते’ हैं। ‘समझाने’ को शामिल करना इतना व्यापक है कि धर्मों के बीच सामान्य बातचीत भी इस निषेध के दायरे में आ जाएगी।
d. विवाह संबंधी प्रावधान: नए प्रावधान विवाह के अधिकार को बाधित करते हैं और कई प्रावधानों के जरिए इसे जटिल बनाते हैं, जिसमें संभवतः ‘समलैंगिक’ विवाह या व्यवस्थाएं भी शामिल हैं।
e. ‘घर वापसी’ को छूट: स्पष्टीकरण I(2) में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी ‘तत्काल पूर्ववर्ती धर्म’ में लौटता है, तो इसे इस अधिनियम के तहत धर्मांतरण नहीं माना जाएगा। लेकिन ‘तत्काल पूर्ववर्ती धर्म’ का अर्थ अस्पष्ट है। इसका मतलब कितना पुराना धर्मांतरण होना चाहिए—सदियों पुराना? क्या यह पूर्व के धर्मांतरण को एक उचित अवधि पहले का होना चाहिए? बिना किसी पक्षपात के, क्या यह सभी मुसलमानों, ईसाइयों, बौद्धों (विशेषकर पूर्वोत्तर के, जिनके धर्म रीति-रिवाजों से शासित हैं) और आंबेडकरवादी धर्मांतरण, जो मूल धर्म को अस्वीकार करते हैं, को ‘घर वापसी’ के लिए दबाव डालने का समर्थन नहीं करता? यह अत्यंत समस्याग्रस्त है।
f. कठोर दंड प्रावधान: दंड इतने क्रूर और अनिवार्य हैं कि वे किसी भी अदालत में टिक नहीं पाएंगे। उदाहरण के लिए, धारा 3 के उल्लंघन पर न्यूनतम 7 वर्ष की कैद, जो 14 वर्ष तक बढ़ाई जा सकती है, साथ ही 5 लाख रुपये का जुर्माना। यदि महिला अनुसूचित जाति/जनजाति, नाबालिग या अक्षम है, तो न्यूनतम 10 वर्ष की कैद, जो 20 वर्ष तक बढ़ाई जा सकती है, और न्यूनतम 10 लाख रुपये का जुर्माना। सामूहिक धर्मांतरण के लिए न्यूनतम 20 वर्ष की कैद, जो आजीवन कारावास तक बढ़ाई जा सकती है, और 25 लाख रुपये का जुर्माना।
अन्य आपत्तिजनक प्रावधान
(a) जिला मजिस्ट्रेट द्वारा प्रत्येक धर्मांतरण और अंतर-धार्मिक विवाह की जांच (धारा 8-9) अत्यधिक बोझिल और गोपनीयता का उल्लंघन करने वाली है।
(b) अपराध में शामिल व्यक्तियों में वे भी शामिल हैं जो ‘परामर्श, समझाते या प्रेरित करते’ हैं, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संवाद का स्पष्ट उल्लंघन है (धारा 11(iv))।
(c) साक्ष्य का बोझ उस व्यक्ति पर डाला गया है जिसने धर्मांतरण कराया या सुगम बनाया (धारा 12), जो संवैधानिक रूप से गलत है क्योंकि साक्ष्य का बोझ हमेशा अभियोजन पक्ष पर होना चाहिए।
पिछले सफल विरोध का इतिहास
2005 और 2008 में पीयूसीएल ने संवैधानिक तर्कों के साथ तत्कालीन राज्यपालों को इस कानून की गैर-कानूनी प्रकृति समझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दोनों बार बिल को राज्यपालों ने तत्कालीन राष्ट्रपतियों—श्रीमती प्रतिभा पाटिल और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम (2005) और श्री एसके सिंह (राज्यपाल, 2008) के समय श्रीमती प्रतिभा पाटिल (राष्ट्रपति)—को भेजा गया। इन प्रयासों के कारण राजस्थान में अब तक ऐसा कोई कानून लागू नहीं हो सका। 2018 में 2008 का बिल कुछ प्रावधानों की वैधता पर सवालों के साथ राजस्थान को वापस भेजा गयाथा।
पीयूसीएल द्वारा इस विधेयक में व्यापक गड़बड़ियों को देखते हुए विरोध किया जाएगा तथा राज्यपाल एवं राष्ट्रपति से इसे स्वीकृति नहीं देने के लिए आग्रह किया जाएगा।
भंवर मेघवंशी
(अध्यक्ष)
अनंत भटनागर
(महासचिव)