देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था संसद से जिन 146 सदस्यों को निलंबित कर दिया गया था उन्हें अब क्या करना चाहिए? क्या उन्हें ऐसा मान लेना चाहिए कि वे अब सांसद नहीं रहे? संसदीय प्रजातंत्र के भविष्य को लेकर निराश हो जाना चाहिए? क्या इस बात की कोई गारंटी है कि बजट सत्र जब भी आयोजित होगा उन्हें इसी तरह के निलंबन का अपमान फिर से नहीं झेलना पड़ेगा? निलंबित किए गए सांसद सिर्फ़ हाड़-मांस के पुतले नहीं हैं! वे देश की लगभग एक-चौथाई आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं।
सांसदों के निलंबन की कार्रवाई बताती है कि सत्तारूढ़ दल को न सिर्फ़ जनता की ओर से न्यायोचित मांगें उठाने वाले सदस्यों की जरूरत नहीं बची, उसका एजेंडा उस जनता के बिना भी पूरा हो सकता है जो सवाल करने वाले प्रतिनिधियों को चुनकर भेजती है। हुकूमत ने अब ऐसे प्रतिनिधियों की गैर-मौजूदगी में भी देश के प्रजातांत्रिक भविष्य को प्रभावित करने वाले क़ानून बनाने की ताक़त अख़्तियार कर ली है।
विपक्षी सांसदों की गैर-मौजूदगी में नागरिक जीवन और प्रजातंत्र को प्रभावित करने वाले पैंतीस विधेयक लोकसभा और राजसभा द्वारा पारित कर दिये गए। इनमें भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य संहिता जैसे महत्वपूर्ण विधेयक भी शामिल हैं जिनके कारण पड़ने वाले प्रभावों का अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता। विधेयकों के क़ानूनी रूप लेते ही हर तरह की असहमति के ख़िलाफ़ क़ानूनों के मारक प्रभाव की असलियत सामने आने लगेगी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पहले बार ऐसे चौंका देने वाले घटनाक्रम का देश को साक्षी बनना पड़ रहा है। दुनिया की किसी अन्य प्रजातांत्रिक व्यवस्था में इस तरह के निलंबन और बिना बहस-संशोधनों के विधेयकों को क़ानूनों में बदल देने की कार्रवाई कभी देखी नहीं गई। सिर्फ़ अधिनायकवादी हुकूमतों में ही एक व्यक्ति का राज चलता है। वही संसद होता है और उसका हर कहा कानून बन जाता है।
संसद की नई इमारत के निर्माण और गरिमापूर्ण धार्मिक आयोजन के बीच संपन्न हुई ऐतिहासिक ‘राजदंड’ की स्थापना के साथ कल्पना यही की गई थी कि देश के संसदीय प्रजातंत्र में एक नए युग की शुरुआत हो रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी परिवर्तन के नायक के रूप में इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाने वाले हैं। कल्पनाओं के विपरीत स्थापित यह होता दिखाई दे रहा है कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में पुराने से नए संसद भवन की तरफ़ पैदल मार्च करते हुए सत्तारूढ़ दल सिर्फ़ 1927 में निर्मित औपनिवेशिक इमारत को ही नहीं, बल्कि धर्मनिरपेक्ष संविधान और लोकतांत्रिक परंपराओं को भी विदाई दे रहा था।
विपक्षी सांसद सरकार से आखिर मांग क्या रहे थे? उनकी मांग सिर्फ़ इतनी थी कि 13 दिसंबर 2023 के दिन संसद भवन के सुरक्षा कवच में जो गंभीर सेंध लगी उस पर देश के शीर्ष नेतृत्व को सदन में वक्तव्य देना चाहिए। देश की जनता को बताया जाना चाहिए कि सुरक्षा व्यवस्था को चकमा देकर दो युवा कैसे संसद के भीतर तक पहुंचने में कामयाब हो गए। विपक्ष की मांग का जवाब घटना पर कोई वक्तव्य देने के बजाय सांसदों के निलंबन की कार्रवाई से दिया गया। चिंता का विषय हो सकता है अगर विपक्ष के प्रति कार्रवाई की आड़ में जनता को भी कोई संदेश दिया जा रहा हो। संदेश यह कि पुराना जो कुछ भी है वह समाप्त किए जाने के कगार पर है।
एक जीते-जागते प्रजातंत्र में विपक्ष के खिला। इस तरह की कार्रवाई के पीछे केवल दो कारणों की तलाश की जा सकती है- पहला कारण सत्तारूढ़ दल का यह आत्मविश्वास कि प्रधानमंत्री के तिलिस्म और पार्टी की कट्टर हिंदुत्ववादी विचारधारा में विश्वास रखने वाले मतदाताओं की संख्या में न सिर्फ़ कोई कमी नहीं हुई है बल्कि उसमें वृद्धि हो रही है। तीन राज्यों के चुनाव नतीजे इस दावे का प्रमाण हैं। परिणामस्वरूप मोदी न सिर्फ़ विपक्ष के खिलाफ कार्रवाई करने से नहीं हिचकिचा रहे हैं, वे भाजपा में कायम हो गए सत्ता केंद्रों पर भी निर्ममता से प्रहार कर रहे हैं। प्रधानमंत्री शायद स्थापित करना चाहते हैं कि उनके अकेले की ताक़त के बल पर ही पार्टी लोकसभा चुनावों में पिछली बार से ज़्यादा सीटें हासिल करके दिखाएगी।
दूसरा और ज्यादा विश्वसनीय कारण सत्तारूढ़ दल का यह डर यह हो सकता है कि गैर-भाजपा दलों को प्राप्त होने वाले साठ प्रतिशत से ज्यादा मतों का आपस में विभाजन इस बार नहीं हो पाएगा। विपक्ष के मुक़ाबले कम मत प्राप्त होने के बावजूद बहुमत की सरकार बना पाना भाजपा के लिए कठिन साबित हो सकता है। लोकसभा के चुनाव नतीजे हाल के तीन हिन्दीभाषी राज्यों के बजाय तेलंगाना, कर्नाटक और हिमाचल-पंजाब की तरह चौंकाने वाले प्राप्त हो सकते हैं। इंडिया गठबंधन की गतिविधियों ने भाजपा को चिंतित कर रखा है। सांसदों के निलंबन के विरोध में 22 दिसंबर को दिल्ली सहित सभी राजधानियों में हुए धरना-प्रदर्शनों का एनडीए जवाब ही नहीं दे पाया। चुनाव पूर्व प्रारंभ होने वाली राहुल गांधी की दूसरी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ कर्नाटक और तेलंगाना के बाद भाजपा की रीढ़ माने जाने वाले इलाकों पर प्रहार कर सकती है।
अमित शाह ने उम्मीद जताई है कि 2024 के चुनावों में भाजपा को 2019 के मुक़ाबले दस प्रतिशत ज्यादा वोट प्राप्त हो सकते हैं। इस सिलसिले में उन्होंने तीन राज्यों में हुई जीत का हवाला दिया है। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को 37.4 प्रतिशत वोट और 303 सीटें प्राप्त हुईं थीं। विभाजित विपक्ष और अन्य दलों को बचे 62.6 प्रतिशत वोट और सीटें मिली थीं।
भाजपा को 2019 के मुकाबले दस प्रतिशत अधिक मत मिलने का मतलब यही होगा कि 2024 के चुनावों में विपक्ष डेढ़ सौ से भी कम सीटों पर सिमट जाएगा। अमित शाह जो कह रहे हैं अगर वही सत्य है तो यह अभी से मान लेना चाहिए कि 2029 के चुनावों के बाद तो संसद पूरी तरह से विपक्षमुक्त हो जाएगी और एक पार्टी की हुकूमत देश पर क़ाबिज़ हो जाएगी। क्या यह ‘मुमकिन’ हो पाएगा? क्या अमित शाह देश को अभी से डराना चाह रहे हैं?