वह 2006 का एक यादगार दिन था। रियाध में मेरे अब्बा के चचेरे भाई जुमे की नमाज़ के बाद घर आए हुए थे। अम्मी ने उस दिन कोरमा बनाया था। दस्तरख्वान पर बैठकर हम सब ने कोरमा खाने के बाद कहवा पिया। अब्बू अपने भाई के साथ फर्श पर बैठकर चावल का कूकर खोलने की ज़ोर आज़माइश में लगे हुए थे। इस बीच पसरी लंबी खामोशी को उनके चचेरे भाई ने एक दोहे से तोड़ा:
समंदर लागी आगि, नदियां जलि कोइला भई,
देखि कबीरा जागि, मंछी रूषां चढ़ि गई
यह कबीर की उलटबासी थी, जिन्होंने अलहदा धर्मों के बीच विभाजनों के पार जाकर परम सत्ता की एकरूपता की बात की थी। दोहा सुनकर मैं चौंक उठी थी। मैंने उसका मतलब पूछा। उन्होंने हंसते हुए अपने कंधे उचकाते हुए कहा, “आप जितना रूहानियत में जाते हैं उतने ही पागल होते जाते हैं।” अब्बा ने ठहर कर उन्हें तीखी निगाह से देखा, फिर अपने काम में जुट गए।
अपने चचेरे भाई के जाने के बाद अब्बा ने मुझसे कहा, “वो नहीं जानता कि वो किस बारे में बात कर रहा है। उसे इस सब का बहुत ज्ञान नहीं है। रूहानियत में सनकने जैसी कोई बात नहीं होती है।” आम तौर से लोग रूहानियत और मज़हब को एक दूसरे का पर्याय समझते हैं। अकादमिक भाषा में तो इनका फ़र्क बहुत साफ़ है। रूहानियत बातिन (सूक्ष्म) है, मज़हब ज़ाहिर (स्थूल) है। सर्वव्यापी और अंतर्यामी खुदा के दोनों रूप हैं, दृश्य भी और अदृश्य भी, लेकिन उसे मानने वाले ज़्यादातर लोग दिखने वाले प्रतीकों को ही समझते हैं।
यह बात खासकर औरतों पर और उनसे जुड़े मसलों में बहुत साफ़ नज़र आती है। इनमें से सबसे विवादास्पद है सर ढकना जिसे आम भाषा में ‘हिजाब’ कहते हैं।
***
इस साल अपने जन्मदिन पर एक पैरोकारी के सिलसिले में मुझे थाईलैंड जाने का मौका मिला था। मेरे दोस्त जो मेरे सहकर्मी भी हैं, के साथ मिलकर हमने तय किया कि इस छोटे से दौरे को थोड़ा बढ़ा दिया जाए ताकि इस देश को थोड़ा देखा जाए। बैंकॉक से तीन घंटे की दूरी पर एक छोटा सा द्वीप है – पटाया। अपने पड़ाव के दौरान हम लोग होटल के करीब समुद्रतट पर कई बार गए ताकि इलाके की खूबसूरती और विशेषताओं से अच्छी पहचान कायम हो सके।
एक दिन हमने ऐसे ही समुद्रतट को पैदल नापने का सोचा। मैंने साथियों को आगे जाने दिया और मैं खुद कंकरीट की एक ढलान पर समुंदर की ओर मुंह करके बैठ गई। ढलान छोटी और सरल थी। लहरें मेरे पैरों को पखार रही थीं। इस पल का सुख लेने के लिए मैंने अपने घुटने मोड़, अपनी बांहों पर ठोड़ी को टिका लिया और अतल गहराइयों से उठती भव्य लहरों को देखती रही।
मेरे चारों ओर मध्यम हवा बह रही थी लेकिन हिजाब की इतनी तहों के भीतर मैं उसे महसूस नहीं कर पा रही थी। मैंने देखा कि आसपास कोई नहीं है और अपना हिजाब उतार दिया।
सत्रह साल बाद मेरे बालों ने हवा की छुअन को महसूस किया था।
पिछली बार ऐसा अहसास 2004 में हुआ था। तब मैं आठ बरस की थी। रियाध के एक छोटे से अपार्टमेंट के भीतर से उस वक्त मैं खिड़की से बाहर देख रही थी। हवा बहुत तेज़ थी, इसका पता इससे चल रहा था कि लोग अपने फड़फड़ाते थॉब और काफ़िये को कस के थामे हुए थे।
मेरे पिता और मां कश्मीर में पैदा हुए और पले-बढ़े। यहां बसने से पहले वे सउदी अरब के कई शहरों में रह चुके थे। मेरे अब्बा फिज़ियोथेरपिस्ट थे और अम्मी घर का काम संभालती थीं। पहले वे उर्दू की टीचर थीं, लेकिन शादी के बाद उन्होंने पढ़ाना छोड़ दिया था।
उस दिन अम्मी के हाथ से कांच का एक फूलदान छूट गया था। अब्बा के अस्पताल जाने से पहले ही उन्होंने फूलदान को कबर्ड से निकालने के लिए उन्हें राज़ी कर लिया था। केवल ज़रूरत के सामान के साथ जीने के अब्बा के रवैये से वे आजिज़ आ चुकी थीं। इसीलिए जब फूलदान टूटा तो उन्होंने मुझे इशारा किया कि फेंकते हुए एक भी सुबूत छूटने न पाए और बाहर कहीं मैं कोई बेजा हरकत न कर दूं, इसकी सख्त हिदायत दी।
मैंने उत्साह में तुरंत हामी भरी, चप्पल पहनी और झोला उनसे छीन लिया। हफ्ता भर हो गया था घर से बाहर कदम रखे हुए, तो नीचे मैं आराम-आराम से गई। तब बिना मर्द के बाहर निकलना संभव नहीं होता था।
बिल्डिंग से बाहर कदम रखते ही मुझे बालों और गरदन पर हवा के थपेड़े का अहसास हुआ। मुझे अचानक हिंदुस्तान में देखा एक विज्ञापन याद आ गया। कुछ माह पहले रिश्तेदारों के यहां हम लोग श्रीनगर गए थे। उस विज्ञापन में एक औरत अपना सिर आगे-पीछे झटक कर अपने खूबसूरत बाल दिखा रही थी।
उस औरत की खुशी मुझे महसूस हो रही थी। कचरे का प्लास्टिक बड़े से पीले कूड़ेदान के हवाले करते हुए मैं उस विज्ञापन की धुन को गुनगुना रही थी और उस औरत की नकल कर रही थी। मेरे ज़ेहन में अब तक वह कितना साफ़ था। मैंने कनखियों से देखा कि एक दुकान के बाहर कुछ फिलीपीनो मर्द कतार में बैठे धुआं उड़ाते मुझे घूर रहे थे। मैंने तुरंत उसे अनदेखा किया और इस छोटे से पल का सुख मन में संजोए वापस घर आ गई।
ऊपर आकर मैंने दरवाज़ा खोला तो मेरी मां की निगाहें मुझे खा जाने को आतुर दिखीं, “मैं देख रही थी तुमने क्या किया। तुम्हारे अब्बू से मैं बात करूंगी। अब तुम्हें हिजाब पहनना चाहिए।”
उस दिन अब्बा जब घर आए तो अम्मी उन्हें रसोई में ले गईं और फुसफुसा कर कुछ बात की। मुझे याद है, उस पल मैं खिड़की से बाहर देख रही थी। मेरे मन में बेचारगी और अपराध बोध का मिलाजुला अहसास था। पछतावे में आंसू निकल गए थे।
इसके बाद से मैंने हिजाब पहनना शुरू किया। अपनी क्लास की 30 लड़कियों के बीच हिजाब पहनने वाली मैं अकेली थी। वो कितना बंद-बंद सा था, और कितना भारी भी। कई बार जल्दबाज़ी में स्कूल जाते वक्त मैं हिजाब भूल जाती थी। ऐसा शायद इसलिए भी था क्योंकि मुझे मेरे बाल ऐसे नहीं लगते थे कि जिन्हें मुझे छिपाने की ज़रूरत महसूस हो।
मुझे लगता था कि बाल तो शरीर का कुदरती हिस्सा हैं, लेकिन मेरे अब्बा का फरमान बहुत साफ था।
उन्होंने कहा था, “तुम हज़रत ज़ैनब को मानती हो तो इसे तुम्हें पहनना ही चाहिए”। हज़रत ज़ैनब को शिया लोग मानते हैं। वे आखिरी पैगम्बर के नवासे इमाम हुसैन की बहन थीं और इज़्ज़त और गौरव, साहस व त्याग की मिसाल थीं। हर शिया लड़की को उनके जैसा बनने को कहा जाता था, खासकर इमाम हुसैन की शहादत के मौके पर मुहर्रम के दिन। इमाम हुसैन और उनके 72 साथी करबला की जंग में दस हज़ार की फौज के सामने डट गए थे और तानाशाह यजीद की गुलामी से उन्होंने इंकार कर दिया था।
हज़रत ज़ैनब इस जंग का अभिन्न हिस्सा थीं। जैसा कि मौलाना लोग बताते हैं, जंग में कैद करने के बाद उन्हें यजीद के महल में घसीट कर ले जाया गया। उनके जन्म के बाद पहली बार उनके बाल उन दुष्ट मर्दों के सामने खुल गए जो औरतों को बुरी नज़रों से देखते थे। उस वक्त हज़रत जैनब ने मज़बूती से अपना सिर ऊंचा कर उन आततायियों की सत्ता को दुत्कारा था। उनकी बेइज़्ज़ती को देखकर यजीद के खिलाफ़ पूरी अवाम ने बगावत कर दी। लिहाज़ा उन्हें, बंदी बनाई गई बाकी औरतों को और उनके ज़ख्मी भाई को घर जाने की इजाज़त देनी पड़ी। घर पहुंचने पर उनके शहर के लोगों का वहां तांता लग गया। वे उनसे पूछने लगे कि उन्होंने वहां क्या देखा। तब हज़रत ज़ैनब ने जवाब दिया था, ‘मैंने अल्लाह के नूर के अलावा वहां और कुछ नहीं देखा”।
ऐसी तकरीरें बंद कमरों में ही होती थीं। हमें डर था कि कहीं सऊदी की सरकार को इन बातों की भनक न पड़ जाए। यहीं से मुझे समझ में आया कि एक मुस्लिम औरत होने के नाते बनी-बनाई धाराओं के खिलाफ़ जाने का क्या मतलब हो सकता है। फिर चाहे वह स्कूल में पढ़ाई जाने वाली दुनियावी तालीम की बात हो जहां मैंने सीखा कि पृथ्वी अपनी धुरी पर रोज़ घूमती है। या इंसान की खुदमुख्तारी की बातें जब घर आकर मेरे अब्बा कहते कि “उसे कौन घुमाता है”। मुझे केवल अपने मज़हब को ही ज्ञान का इकलौता स्रोत मानने को कहा या फिर ऐसा सोचने के लिए उत्साहित किया जाता था। यदा कदा कुछ दुनियावी मामलों में स्कूल में सिखाई बातें जस का तस मान लेनी होती थीं।
इसके चलते हिजाब को लेकर मेरा नज़रिया बदलता गया। मैं पहले के मुकाबले कहीं ज़्यादा अपनापे और इज़्ज़त से उसे पहनने लगी। कभी अगर मैं ऊंची आवाज़ में बोल उठती या खुलकर हंस देती, तो खुद ही कुछ देर के लिए शर्मिंदा होकर बैठ जाती और खुद को लानत भेजने लगती थी।
लेकिन जल्द ही मेरे सामने एक छुपा हुआ पहलू ज़ाहिर हो गया जब दो साल बाद मेरे अब्बा के चचेरे भाई ने कबीर का वह दोहा पढ़ा।
वजूद के दो विरोधी पहलुओं को एक साथ मिलाकर देखने के इस पुराने अदबी नज़रिए ने मुझे न सिर्फ बेचैन कर दिया बल्कि उससे कहीं ज़्यादा मैं डर गई थी।
वो तो 17 साल बाद थाईलैंड में जब समुंदर को मैं एकटक देख रही थी और मेरे बाल मेरे सिर पर नाच से रहे थे, इस दोहे का जादू उस वक्त मुझ पर ज़ाहिर हुआ। वहां मैंने अपने भीतर एक विराट मौन को महसूस किया। समंदर से भी विराट और विस्तृत खामोशी, जो महज़ कुछ देर के लिए मेरे उघड़ेपन में पनाह पा रही थी। आदतन मैंने आसमान में ताका और अपनी ओर प्यार से देखते हुए खुदा की मौजूदगी का तसव्वुर किया, जो इस तवाज़ुन में होने की मुझे इजाज़त दे रहा था – जहां गायब और हाज़िर के बीचो-बीच हिजाब एक मीठा राग बन चुका था। यह परंपरागत अनुभव के दायरे से बाहर का अहसास था। मैं खुद को सुन पा रही थी। एक आवाज़ थी जो मुझसे कह रही थी कि उठो, प्यार की इन लहरों के संग बह चलो। यह आवाज़ इतनी मुतलक थी कि मेरे भीतर का सब कुछ पिघल कर जन्नत की ओर बह रही एक नदी में तब्दील हो गया।
***
समय के साथ मैंने महसूस किया कि हर मुस्लिम औरत ने अपने साथ ऐसे संबंध न अनुभव किए हैं और न ही उन्हें महसूस किया है।
मेरी बहन मेरे जैसी नहीं थी, या ईमान वाली दूसरी औरतों की तरह जिन्हें लगता था कि उन्हें किसी एक पक्ष को चुनने को मजबूर किया गया है। बचपन से ही वह मुझसे ज़्यादा धार्मिक थी। वह सारे कर्मकांड बहुत ध्यान से करती थी। इसके चलते अब्बा के साथ उसके रिश्ते अच्छे थे। उसे उसकी समझदारी और होशियारी के लिए सराहा जाता था। वह एक आदर्श बेटी थी और स्कूल में उसे एक ज़िम्मेदार छात्र माना जाता था।
मुझे इस्लाम के बारे में सिखाने में मेरी बहन का बड़ा प्रभाव रहा है। स्कूल में एक दिन एक महिला शिक्षक ने समलैंगिकता के बारे में हमें पढ़ाया। मुझे याद है उन्होंने कहा, “गे होने का मतलब है कि आप किसी को भी प्यार कर सकते हैं।” मुझे लगा कि अपनी बहन के लिए मेरे अहसास को बताने के लिए आखिरकार एक शब्द मिल गया है। मैं काफी उत्साह से उसके पास स्कूल के बाद गई और कहा,
“मैं तुम्हारे लिए गे हूं।”
बहन का चेहरा तो जैसे काटो तो खून नहीं वाली मुद्रा में आ गया। उसने हौले से मुझे कंधे पर चिकोटी काटी और बोली, “अल्लाह इसकी इजाज़त नहीं देता, तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो।” फिर मेरी ओर झुक कर घबराहट में उसने कहा, “तुम मुझे इस तरह नहीं देख सकतीं, समझीं?”
उसको और अल्लाह को नाराज़ करके मैं शर्मिंदा थी। मैंने इस अहसास को अपने सीने में गहरे दबा दिया, इस सवाल के साथ, कि “हर किसी को बराबर और बेशर्त प्यार करने का यह अहसास क्या है?”
जब मैं अपनी मां और बहन के साथ 2009 में कश्मीर वापस आई, उसके बाद मैंने पाया कि मेरी संस्कारी बहन का गढ़ा हुआ व्यक्तित्व समय के साथ टूटने लगा। वो जब दिल्ली के एक कॉलेज में साहित्य की पढ़ाई करने गई, तो वापसी में अपने साथ वर्जीनिया वुल्फ और सीमोन दी बोउवार की किताबें ले आई। अपने बगल में उसने मुझे बैठाया और प्यार से वे किताबें थमा दीं।
फिर बोली, “वर्जीनिया को पढ़ो, इसके बाद तुम जो हो वो नहीं रह जाओगी और खुद को नए सिरे से गढ़ोगी।” उसने कहा,
“सीमोन तुम्हें तुम्हारे हक के बारे में बताएगी और मज़बूत बनाएगी। फिर तुम्हें अहसास होना शुरू होगा कि तुम खुद को कितना कम जानती थीं।‘
मैं देख रही थी कि रियाध के उस चाक-चौबंद फ्लैट की दीवारों के भीतर पाई दीनी तालीम और अपनी जड़ों पर सवाल करने की सलाहियत किताबें उसे दे रही हैं। तमाम चीज़ें अपनी जगह, उसे अब अपने सिर पर ओढ़ा हिजाब भी भारी लगने लगा था। मुस्लिमों में औरतें एक दूसरे को सिर ढंकने की जो नसीहतें देती हैं और आदमी भी औरतों को ऐसा करने के लिए कहते हैं, उसका आधार कुरान की एक आयत है:
‘ईमान वालियों से कहें कि अपनी आंखें नीची रखें और अपने गुप्तांगों की रक्षा करें और अपनी शोभा का प्रदर्शन न करें, सिवाय उसके जो प्रकट हो जाए, और अपनी ओढ़नियां अपने सीनों पर डाली रहें।” (सूरह-अल-नूर 24, आयत 31)
मेरी बहन ने सीमोन के लिखे के संदर्भ में इस आयत को समझने की जब कोशिश की, तो उसकी खोपड़ी में भूचाल आ गया। सीमोन लिखती हैं, “भविष्य की औरतों के लिए यह पूरी तरह स्वाभाविक होगा कि उसे अपनी ही बिरादरी द्वारा थोपी गई बंदिशों पर गुस्सा आए। सवाल यह नहीं है कि उसे इन बंदिशों को क्यों खारिज कर देना चाहिए, असल बात यह समझने की है कि वह इसे स्वीकार ही क्यों करती हैं।”
हमारे माता-पिता ने जिस तरह उसे पाला था, उसके लिहाज़ से तो ऐसी किताबें दुश्मन मानी जाती थीं।
हमारे अब्बा ऐसी लिखावट को पसंद नहीं करते थे। उनका कहना था कि दक्षिण एशियाई शियाओं की तहज़ीब पर ये सब लागू नहीं होता है। इसके बावजूद मेरी बहन अपने पढ़े पर कायम रहती।
एक दिन मेरी बहन को कहा गया कि हमारे अब्बा के सगे भाई और उनका परिवार घर आने वाले हैं। कश्मीर के राजनीतिक और धार्मिक शिया नेताओं के साथ उस परिवार के अच्छे रिश्ते थे, लिहाज़ा हमारे लिए उनके सामने अदब से पेश आना बेहद ज़रूरी था। उस वक्त मेरी बहन ने हिजाब कुछ ढीला किया हुआ था जिससे उसके अच्छे-खासे बाल झलक रहे थे। वह अक्सर मेहमानों के सामने बिना हिजाब के ही आ-जा रही थी।
अम्मी उस दिन उसे कोने में ले गईं और हिजाब पहनने को कहा। बहन ने इंकार कर दिया। बिना कुछ कहे अम्मी अपने काम में वापस लग गईं। फिर रिश्तेदार आए तो उन्होंने उनका स्वागत किया। संयोग से उनके जवान बेटे भी साथ आए हुए थे। कायदे के मुताबिक रिश्तेदारी में किसी के बाल देखने की उन्हें मनाही थी। वे सब बैठ कर बातें कर ही रहे थे कि मेरी बहन कमरे में आ गई। अचानक कुछ हलचल हुई। एक झटके में हमारे दोनों चचेरे भाइयों ने अपनी नज़रें नीची कर लीं। मेरी बहन को कोई फ़र्क नहीं पड़ा। वो मां के बगल में बैठ गई, हालांकि मैंने देखा कि उसके हाथ कांप रहे थे। वो सीधे हमारे दोनों चचेरे भाइयों को देख कर बात कर रही थी। वे दोनों उसके सवालों का बमुश्किल ही जवाब दे रहे थे।
लंबी खामोशी के बाद उनकी मां ने हमारी अम्मी को देख कर कहा, ‘क्या हुआ? तुम अपनी बेटी को कुछ कह नहीं रही? उसका हिजाब कहां है?’
हमारी अम्मी ने उन्हें देखा और कुरान की एक आयत पढ़ दी। कहते हैं कि पैगम्बर से जब किसी को अपने धर्म में लाने के बारे में सवाल पूछा गया था तब उन्होंने यह जवाब दिया था:
‘धर्म में जब्र के लिए कोई जगह नहीं है’’ (सूरह-अल-बकरा 2, आयत 256)
मैंने और बहन ने हैरानी से मां की तरफ़ देखा। बहन की आंखों से गरमाहट और प्यार उमड़ रहा था। मैं तो मां के शब्दों से ही अभिभूत थी। मेरी अम्मी ने हिजाब को स्वीकार करने की सामूहिक और ज़ाहिर ज़िम्मेदारी के साथ-साथ निजी रूहानियत को भी जगह बख्शी थी। इतना ही नहीं, मां ने बहन के फ़ैसले का सम्मान किया। यह औरतों की एकजुटता को दिखाता था। ऐन उसी पल मैंने हज़रत ज़ैनब और उनके बीच समानताओं को भी समझ लिया। हज़रत ज़ैनब जो अपने दर्द के खिलाफ़ चुनौती बनकर खड़ी हो गई थीं और जिन्होंने अपने नज़रिए से खुद की दर्दभरी स्थिति और दुनिया की दया के सामने अपना अफसाना रखा – जो बेहद खूबसूरत था।
उनके शब्द ने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि कैसे उनके शब्द कबीर के छंदों की तरह कमरे के तनाव को दूर करते हुए खुलते जा रहे थे। अब मेरे सामने सवाल यह था कि क्या मुझे ‘आज़ादी’ को समझने के लिए सिर का दुपट्टा हटाने की ज़रूरत थी? क्या ‘पवित्रता’ को समझने के लिए इसे ओढ़े रखना ज़रूरी है? इसके बजाय, बिना व्यक्तिगत पहचान को जोड़े, क्या मैं हिजाब पहनने की सामूहिक ज़िम्मेदारी लेने की हिम्मत कर सकती हूं?
इन सारे सवालों में सबसे ज़रूरी कि क्या इस तरह मैं पूरी तरह से मुसलमान होंगी?
अपनी पैदाइश से ही हम औरतें एक कमतरी के अहसास तले जीती हैं। फिर चाहे वो सार्वजनिक जगहें हों या बंद कमरे, ताकत और हैसियत के साथ हमारा अनचाहा रिश्ता हमें गढ़ता जाता है। मैंने देखा है कि किस तरह से तकरीरों की बुनावट, उनके कहने-समझाने के ढंग और बिरादरी के बीच फैलाने के तरीकों में भी यह ताकत काम करती है।
मसलन, कश्मीर में मुहर्रम पर शिया बिरादरी में जो तकरीर की जाती थी उसे देने वाले का काम होता था कि वे आज के समाजी मसाइल को करबला की जंग के आईने में दिखाकर समझाएं। तकरीर करने वाला अगर मर्द होता था, जैसा कि बड़े जलसों में आम बात थी, तो उसे ‘मौलाना’ कहते थे। मौलाना का मायने है ऐसा अदीब जो रूहानी मामलों में बहुत जानकार हो और जिसे इंसानी और समाजी ज़िम्मेदारियों के साथ उसके रिश्तों का ज्ञान हो।
यही तकरीर अगर कोई औरत करती तो उसे ‘ज़ाकिरा’ कहते थे। यह अरबी ‘ज़िक्र’ के लिए ज़नाना शब्द है। ज़िक्र का मतलब है याद करना। इसका मायने यह है कि ज़ाकिरा को करबला की घटनाओं को याद करते हुए उसे सुनाना होता था। यहां दिलचस्प बात यह थी कि मर्दों के जलसे में मौलाना के नीचे ज़ाकिरों का एक अलग समूह बैठा करता था जिसका काम नोहे गाकर तजि़यत पैदा करना होता था।
यह फ़र्क अपने आप में इल्मी अलगाव पैदा करने वाला था।
इल्म के दूसरे इदारों में भी यही अलगाव दिखता था। अगर मैं अपने किसी दोस्त को पढ़ाई से जुड़ी कोई बात अच्छे से समझा पाती थी तो मुझे टीचर कहा जाता था और यह कि मैं अच्छी मां बनूंगी। यही काम क्लास का कोई लड़का करता तो उसे ‘इंटेलिजेन्ट’ (दिमागदार) कहा जाता था जिसका भविष्य अच्छा होगा। जिस भी तरीके से मुझे ज्ञान दिया जाता था, उन सबकी अपनी बंदिशें होती थीं और उनमें आज़ादी के अपने दायरे होते थे।
इससे मेरे दिमाग में एक खयाल आया: क्या मैं रस्सी के दो सिरों को आपस में जोड़ कर एक गांठ लगा सकती हूं – एक सिरा मज़हब का और दूसरा आज़ादी का? ज़ाहिर और बातिन का पुराना रास्ता- जिसे विज्ञान और मज़हब, नारीवाद और रूढि़वाद, सेकुलर और मज़हबी ज्ञान की जंग में भुला दिया गया है – क्या औरतें भी कबीर की तरह ईश्वर को पा सकती हैं? क्या दोनों के बीच वाकई कोई फ़र्क है भी?
मेरे मां-बाप बताते थे कि जब मैं पैदा हुई थी, मेरी दादी दो दिन तक गमी में थीं कि लड़की पैदा हो गई। कभी-कभार मेरे अब्बा जब घर में किसी मर्द के न होने का अफसोस जताते, तब मैं भी उदास हो जाती थी। आज हालांकि अपने अब्बा को आस्था की तनी हुई रस्सी पर चलता देख, अपनी बहन के इंकलाबी खयालों को देख और अपनी अम्मी की पत्थर जैसी मज़बूती को देखकर मैं और विनम्र होती जाती हूं कि लोग आखिरकार अपनी आज़ादी को तलाश ही लेते हैं। ईरान से लेकर हिंदुस्तान तक मज़हबी ज्ञान की हमारी समझदारी में भले फ़र्क हो, लेकिन सबका निचोड़ एक ही है। हर हिजाब पहनी लड़की आज आगे बढ़कर अपने भीतर की उसी खूबसूरती को तलाश और समझ पा रही है, जिसे हज़रत ज़ैनब ने ख्वाहिश और फ़र्ज़ के बीच कभी देखा था।
अगर आप चाहें तो मेरे साथ आ सकते हैं, लेकिन कोई ज़बरदस्ती नहीं है।
स्वतंत्र पत्रकार एवं प्रोग्राम एसोसिएट हमीदा सैयद, धर्म, पहचान एवं संघर्ष के मुद्दे पर लेखन कार्य करती हैं। वे एक कवि हैं। वर्तमान में ऑनलाइन भेदभाव एवं यौनिकता और प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार (SRHR) की विभिन्न युवा-नेतृत्व वाली पहलों से जुड़ी हुई हैं। हमीदा ने मनोविज्ञान, संघर्ष विश्लेषण और सामाजिक विज्ञान अनुसंधान विषयों की पढ़ाई की है। यह लेख द थर्ड आई से साभार प्रकाशित है।
चित्रांकन: आयना विनाया