आज के इस भयावह व जटिल समय में कविता किसी मशाल की तरह प्रकाश दिखाती है, साथ ही सम्बल भी देती है। कविता मनुष्य को मनुष्य बनाना चाहती है, उसके भीतर मानवता का बीज बोती है और श्रेष्ठ जीवन की कल्पना में सहायक होती है। काव्य का आलोक और आभा-मण्डल केवल आकर्षित ही नहीं करता बल्कि प्राण-चेतना को झकझोरता है, भाव-संवेदनाएं जागती हैं और जीवन स्पन्दित, झंकृत हो उठता है। यह कवि पर निर्भर करता है कि वह अपने अनुभूत संसार का कौन सा चेहरा दिखाना चाहता है। इसी से सारा परिदृश्य बदल जाता है।
मेरे सामने जयपुर, राजस्थान के महत्वपूर्ण कवि शैलेन्द्र चौहान का नवीनतम कविता संग्रह “सीने में फाँस की तरह” है। यह शीर्षक पर्याप्त रूप से संकेत दे रहा है कि कवि के भीतर कोई बेचैनी है, कुछ भाव-विचार अटके पड़े हैं और ये कविताएं उसी के प्रतिफल के रूप में निःसृत हुई हैं।
यह उनका पाँचवाँ कविता संग्रह है। उनके दो कहानी संग्रह भी छप चुके हैं। संस्मरणात्मक उपन्यास, आलोचना पुस्तक के साथ उनके हिस्से में ‘धरती” पत्रिका के संपादन का भी दायित्व है। उन्होंने ‘धरती’ पत्रिका के अनेक विशेषांक और अंक कवियों पर निकाले हैं। उन्होंने इस संग्रह में कोई भूमिका या आत्म-कथन जैसा कुछ नहीं लिखा है। सब कुछ पाठकों, समीक्षकों और आलोचकों पर छोड़ रखा है। इस संग्रह में कुल 57 कविताएं हैं जिनके विविध विषय पाठकों को भिन्न-भिन्न दुनिया में ले जाते हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए उनके शब्द-सामर्थ्य, गहन भाव-संवेदनाओं का अनुभव होता है और उनके बिम्ब, प्रतीक अलग प्रभाव छोड़ते दिखते हैं।
सीने में फाँस की तरह (कविता संग्रह)
कवि शैलेन्द्र चौहान
मूल्य रु. 200/-
प्रकाशक न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली
शैलेन्द्र चौहान की कविताओं के सन्दर्भों को पकड़ना किंचित कठिन है, शायद सहज भी, वे एक-दूसरे से जुड़े भी हैं और दूर-दूर छिटके हुए भी। ‘सम्मोहन’ कविता में रॉबिनहुड घोड़ा है, आयकर विभाग का नोटिस है, पुराने लकड़ी के संदूक में पीले होते जाते पन्नों की किताब है और हर बिम्ब के साथ कवि के गहरे भाव हैं। सबसे भयावह है- भानुमती के कुनबे में/सरकता साँप/आस्तीनों में घुस जाता चुपचाप।
कवि के सीने की फाँस है सेलेब्रिटी बनाम सामान्य मनुष्य। वह कहते हैं- सराहना में/खो जाते सामान्यजन स्वतः/अपने आप। लगभग सभी कविताओं में कवि ऐसे ही विचलित होता है और मानवता के पक्ष में अपनी आवाज उठाता है। ‘आदिवासी’ कविता में निमाड़, मालवा के आदिवासियों का संघर्ष, उनकी बेबसी, उनके दुख, गरीबी और पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है। ‘मिथ’ बड़े पृष्ठभूमि की कविता है जिसमें कवि ने अन्तर्विरोधों को रेखांकित किया है। यह कविता व्यवस्था पर प्रश्न उठाती है, व्यंग्य करती है और किसान, आदिवासी की गरीबी का चित्रण करती है। ‘कोंडबा’ एक आदिवासी श्रमिक की व्यथाकथा है। कविता में कवि श्रमिक, सैनिक, चौकीदार और दुनिया भर के मजदूरों के साथ खड़ा होता है। उसकी दृष्टि में कल-कारखाने हैं, गौरैया, कठफोड़वा व गाय है, संभ्रांत लोगों की गंदी नालियाँ साफ करते श्रमिक हैं। पचहत्तर वर्ष के कोंडबा के लिए किसी के मन में दया नहीं है, विधान-सभाओं में नाना विषयों पर बहसें होती हैं, कोंडबा की चर्चा कहीं नहीं है। कोंडबा या वैसे लोगों के लिए कवि के प्रश्न जरूरी हैं, सामयिक हैं और झकझोरते हैं। देश के उजाड़ जंगलों और गाँवों की बदहाली पर ‘वन ग्राम’ सशक्त कविता है। कवि की संवेदना देखिए- हम खाए जा रहे हैं पृथ्वी का हर अंग, प्रत्यंग/ खोदकर, काटकर, जलाकर/ निष्ठुर हो कर रहे हैं प्रकृति का विनाश। ‘दुकानदार’ कविता में व्यंग्य है और व्यक्ति की पहचान भी कि तुम थे तमाशबीन/वे थे दुकानदार। ‘दंडवत’ आज के लेखक, संपादक, सामाजिक मीडिया पर जबरदस्त व्यंग्य की कविता है।
‘बौनों के देश में’ अच्छा व्यंग्य है, आज की सच्चाई है और बहुतेरे लोग इस फन मे माहिर हैं। ‘मौसम बहुत सुहाना है’ कविता में कवि ने अपनी सोच को खूब हवा दी है, पाठकों पर निर्भर करता है, वे सहमत हैं या असहमत। दुनिया में सब तरह के लोग हैं, हर विचार के मानने वाले मिल जाएंगे और विरोधी भी। यह रचनाकार को ही तय करना है, वह किसके साथ है, किसे सत्य मानता है और सम्पूर्ण मानवता के लिए स्वयं क्या करता है। ‘चाह यही बस’ कविता के भाव स्वतः स्पष्ट हैं और कवि को विशेष पार्टी के राज के हालात दिखाई दे रहे हैं। ‘शायद मैं शायद तुम’ व्यवस्था पर चोट करती कविता है। ऐसे हालात हैं और कवि ने अंगुली रख दी है।
हिन्दी, उर्दू के शब्द कविताओं को किसी विशेष ऊँचाई तक ले जाते हैं। कवि में बेचैनी है, आक्रोश है और उसका संकेत स्पष्ट है। ‘कुछ कमजोरियाँ’ कविता में कवि सभी की पहचान करता है और अपनी कमजोरियों की भी। अपनी कमजोरियों को सामने लाना कवि का साहसिक कृत्य कहा जाएगा। ‘अवसान’ कविता में कवि व्यंग्य करता है कि इस व्यवस्था को हत्यारों, तस्करों, चोर-लुटेरों से परेशानी नहीं है बल्कि सहानुभूति है। उनकी परेशानी अन्यत्र है। होना तो यह चाहिए, जो भी गलत है उस पर कलम चले और खूब चले। अक्सर अपनी सुविधा और विचारधारा के अनुसार हम दुनिया को बाँटते रहते हैं। इससे न समाज का भला होता है, न देश का और न साहित्य का। कालक्रम में सबका मूल्यांकन होना ही है और टिकते वही हैं जिन्होंने सत्य समझने की कोशिश की है। ‘फिलवक्त’ कविता में छह दशक का उल्लेख है, जबकि यह आदिम काल से कहा जाता रहा है, मनुष्य का स्वभाव यही है। कवि के प्रश्न अपनी जगह सही हैं क्योंकि वह मनोविज्ञान समझता है और सम्यक संदेश देता है। ‘आगे की राह कौन’ कविता में कवि बेचैन है। यह केवल उसकी ही बेचैनी नहीं है बल्कि लाखों-करोड़ों लोग हैं। वह कतिपय धनाढ्य लोगों से तुलना करता है, व्यवस्था में पल रहे लोगों को देखता है, उनके दुष्चक्रों को समझता है और दुखी होता है। कविता मशाल तभी बनती है जब प्राण-चेतना को झकझोरती है। ‘धर्मनिरपेक्षता एक मिथ है’ कविता में कवि ने गहरा चिन्तन किया है, अपनी सोच को पाठकों को सौंपा है और स्वयं लिखता है- लेकिन तनिक कन्फ्यूज हूँ/मन में सवाल है/धर्मनिरपेक्षता क्या इसी को कहते हैं? ‘दलित प्रेम’ आज की सत्ता-व्यवस्था पर व्यंग्य करती कविता है। प्रसंग सभी को पता है और उसका परिणाम भी। आगे पूरी कविता राजनीतिक हो जाती है।
शैलेन्द्र चौहान के इस संग्रह में महत्वपूर्ण कविता है- ‘सोचना अच्छी बात नहीं’। कहीं पढ़ा था- ‘वह मनुष्य है,सोचता भी है।’ कवि सोचता है और हर किसी को सोचना पड़ता है। हमारे सामने सोचने के लिए कवि ने बहुत से विषयों की चर्चा की है, सब अपनी जगह सही है और हमें उनके साथ खड़ा होना चाहिए। समस्या तब खड़ी होती है जब कवि लिखता है-
लोग कहते हैं इससे नकारात्मकता बढ़ती है
सोचना अच्छी बात नहीं है
शायद सोचने वालों से ज्यादा निकम्मा और कोई न हो।
“लोग कहते हैं” सबसे भयानक बीमारी है दुनिया को भ्रमित करने के लिए। कवि ने उसी का सहारा लिया है परन्तु स्वयं मुक्त नहीं हो पा रहा है। ‘खराब कविताएं’ में कवि ने अपने पाठकों, समीक्षकों, आलोचकों को अपने तरीके से निपटाने की कोशिश की है। भई आप अपने बारे में जो सोचिए, मानिए, दूसरों के बारे में उन्हें सोचने-विचारने दीजिए। वैसे आपका शहीदाना अंदाज या मासूमियत भली लग रही है। आप कहें या न कहें, लोगों को जो समझना है, समझेंगे ही। मेरा आग्रह है, यह बेचैनी बनी रहे ताकि हमें अच्छी कविताएं मिलती रहें।
‘सीने में फाँस की तरह’ कविता के शीर्षक पर ही इस संग्रह का नामकरण किया गया है। पहले की दोनों कविताओं के बाद कोई ऐसी ही कविता को जन्म लेना था, यह कवि की विकास यात्रा है। इस कविता के सारे बिम्ब मिलकर कोई बड़ा फलक सृजित करते हैं, कवि के सीने में फाँस की तरह अटके पड़े हैं और समाज की सच्चाई बयान करते हैं। ‘ब्रह्मज्ञान’ में ‘सजल उर’ की चर्चा करके कवि ने प्रमाणित किया है, हृदय ही महत्वपूर्ण है और उसके बिना जीवन में बहुत कुछ नहीं है। बुद्ध, ब्रह्मराक्षस और जीवन के अन्य सारे प्रसंग कवि को प्रभावित करते हैं, बेचैन करते हैं। ‘फूल भी कहां खिले हैं अभी’ मार्मिक कविता है और सारे बिम्ब झकझोरते हैं।
‘मेरा हृदय गीतों से गुंजायमान है–‘ अलग भाव-भूमि की कविता है। हमारे भीतर बहुत सी संभावनाएं हैं परन्तु कोई होना चाहिए जो कहे- ‘तुम गाओ’। कवि की पंक्तियाँ देखिए- मैं बहुत आह्लादित हूँ/ उसने मेरे बारे में कुछ अलग ढंग से सोचा/जब उसने कहा कि/तुम गाओ। शैलेन्द्र जी की कविताओं के प्रश्न कभी-कभी चौंकाते हैं, कभी-कभी उनका बिम्ब-प्रतीक चयन अचंभित करता है और सहज नहीं होता उनके मन्तव्य तक पहुँचना। केवल ‘गम्भीर कवि हैं’ कहने से काम नहीं चलता, वे सशक्त भी हैं और किंचित उलझे हुए भी। अच्छा लग रहा है, ‘दुःस्वप्न’ कविता के सारे बिम्बों के साथ कवि का चिपकना, बेहतरी की तलाश करना और अंत में कहना- यह दुःस्वप्नों का दौर है मित्रो/सावधान रहने की आवश्यकता है।
कवि की चेतना में राजनीति है, वे कविता में लिखते हैं- ‘एक राजनीतिक भाष्य इन दिनों’। बिजली, बादल, पतंग और बेंजामिन फ्रेंकलिन के माध्यम से कवि के राजनीतिक भाष्य को समझने की जरूरत है। ‘यह नहीं है कोई झूठ’ यथार्थ और किंचित व्यंग्य की कविता है। उनके अनुभव अपनी जगह सही हैं, भले कोई सहमत हो या नहीं। हम किसी के अनुभव को झुठला नहीं सकते। ‘सांत्वना’ किसान आंदोलन के बाद की कविता है और कवि के प्रश्न अपनी जगह गलत नहीं है।
शैलेन्द्र चौहान की कविताओं के शीर्षक भी कम रोचक नहीं हैं, सीधे मुद्दों से जुड़ जाते हैं और प्रभाव डालते हैं। ‘मिटेंगे अब अपराधों के साये’ कविता का विस्तार ध्यान खींचता है, सारे परिदृश्य हमारे लिए सुपरिचित हैं और कवि सबको होश में आने की सलाह देता है। ‘जय जयकार’ कविता में कवि का चिन्तन देखिए- सब के सब बुरे नहीं होते/ज्यादातर अच्छे, कुछ बुरे होते हैं/और कुछ/न बुरे होते हैं न अच्छे। कवि ने बड़ी साफगोई से अच्छे-बुरे होने की स्थिति-परिस्थिति का चित्रण किया है। ‘हम एक-दूसरे के शत्रु होना नहीं चाहते थे’ कविता हमारे आपसी सम्बन्धों पर मनोवैज्ञानिक चिन्तन करती है। ‘कबीर बड़’ कविता हमें किसी अलग लोक-चिन्तन में ले जाती है और कवि के भीतर के अन्तर्विरोध का दर्शन करवाती है। कवि का दृश्य, प्रतीक और बिम्ब चयन अद्भुत है। ‘अग्निगर्भा हूँ मैं’ कविता में मां को लेकर कवि की यह बात बिल्कुल सही है- नहीं सोचता उसके बारे में कोई/जिस तरह सोचती है वह हमेशा/उन सबकी खातिर। मां को लेकर इतने अच्छे बिम्बों-प्रतीकों के साथ लिखी गई कविताओं में से यह एक है। मां गाँव मे रह गयी सदानीरा नदी है, वह आग है, लगातार जलती है, समा गई है अग्निगर्भ में और एक नए विश्व की आशा में कवि सदियों से अग्निगर्भा है।
शैलेन्द्र जी के शब्द कविताओं में नृत्य की मुद्रा अख्तियार करते हैं और पाठकों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। उनकी रचनाओं के पात्र ‘काँपते हुए’ दिखते हैं परन्तु लक्ष्यों की ओर लगे रहते हैं और कवि उन्हें हर जगह, सर्वत्र, अनेक शहरों में खोज लेता है। ‘जघन्यतम’ निठारी की घटना को लेकर स्वतः स्पष्ट कविता है। ‘सूखा’ में सिलिका जेल के माध्यम से कवि ने पूरे विस्तार का दृश्य दिखाया है। शैलेन्द्र जी की कविताओं में खास तरह की दुरूहता है, कई बार समझ में आती हैं, कई बार नहीं आती, बार-बार पढ़ना पड़ता है। इसके दृश्य, बिम्ब और प्रश्न विचलित करते हैं और संवेदित भी। ‘लोअर परेल’ बंद कपड़ा मिलों की व्यथा समेटे कविता है। ‘अंततोगत्वा’ निरपेक्ष भाव की कविता है। आज के मानव मन की सच्चाई यही है- हम थोड़ी देर विह्वल होते हैं और अपनी राह चल देते हैं।
‘विकास’ हमारे बदलाव को रेखांकित करती सशक्त कविता है। ‘भोर की उजास’ में कवि एक एक्टिविस्ट लड़की की उजली, प्रफुल्लित आँखों के बारे में कुछ कह पाने में समर्थ नहीं है, वह उसकी उत्साही, परिवर्तनकामी और स्वप्निल आँखों को सलाम करता है। ‘प्रणयरत’ बिम्बों-प्रतीकों के मायाजाल में उलझी कविता है। यह कविता ऐतिहासिक तौर पर मांडवगढ़ किले की रानी रूपमती से जुड़ती है। उत्तरोत्तर शैलेन्द्र जी की कविताएं गूढ़, रहस्यमयी होती जा रही हैं और सारे बिम्ब दुरुह-चिन्तन की ओर खींच रहे हैं। ‘फफूँद’, ‘शुभ-लाभ’, मनोघात’ जैसी कविताएं भिन्न भाव-दशा का संदेश देती हैं। ‘कोरोना के बाद’ एक सशक्त कविता है। कवि की पंक्तियाँ देखिए-
कोरोना बीतने के बाद बदल गया है काफी कुछ
कम हो गई है आने वाले युवाओं, बच्चों और स्त्रियों की संख्या
दिखते हैं कुछ प्रौढ़, ज्यादातर बूढ़े
राजनीतिक चिंताओं में डूबे
भक्तिभाव से आलोड़ित
ये कविताएं ऐतिहासिक सन्दर्भों से भरी पड़ी हैं। ‘ईहा’ कविता में सारंगी शीर्षहीन स्त्री सी है, तलाश रही है कोई चेहरा। कवि ‘बूंदी’ के विरल सौन्दर्य में डूबता है, उसे लोक-रुचि के दृश्य पसंद हैं और वह प्रश्न करता है- इतना सब पाने और देने के बाद/वो क्या है जो तुम नहीं पा सके? कवि का जन्म यहीं हुआ है, वह यहीं जीना-मरना चाहता है। ‘व्याप्ति कविता की’ में कवि की दृष्टि बहुत व्यापक है। उसे सर्वत्र कविता के तत्व दिखाई देते हैं, वह लिखता है- कुछ भी तो कविताओं से परे नहीं। ‘चीता चीता’ विदेशों से चीता लाए जाने के बाद की कविता है।
सुखद है, कवि की निगाह देश में व्याप्त संगतियों-विसंगतियों पर रहती है और वह कविताओं के माध्यम से अपनी भावनाएं व्यक्त करता है। एक सच यह भी है, कवि की इस संग्रह की अधिकांश कविताएं प्रतिक्रिया-स्वरूप लिखी गई हैं। स्वानुभव के आधार पर लिखा सृजन सुख देता है, टिकता है और मान दिलवाता है जबकि प्रतिक्रिया में लिखा साहित्य, साहित्य की धरोहर नहीं बनता।
‘कैसा नखलिस्तान’ सरदार सरोवर डैम और केवड़िया गाँव में बनी सरदार पटेल की विशाल मूर्ति पर लिखी कविता है। उनकी चिंता छह हजार गाँवों, अड़तालीस हजार ग्रामवासियों और पुनर्वसन में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर वाजिब है। ‘काठ का घोड़ा’ गुजरात चुनाव पर राजनीतिक चिन्तन की कविता है। ‘सर्दियाँ टोरंटो में’ कविता में बर्फ ही बर्फ है। कवि की पंक्तियाँ देखिए- यह मेरे अपने देश की बर्फ है/जमी है सत्ताधारियों के मस्तिष्क में/छल-प्रपंच, कुटिलता सी/मध्यवर्गियों के मन में कुंठा और अहमन्यता सी/गरीबों के अस्तित्व पर यह जमी है सदियों से। कवि स्वयं इस बर्फ से बाहर आना चाहता है। रिलायंस पर एक कविता है। ‘शेयर खान’ कविता में उन्होंने ज्वलन्त मुद्दे उठाए हैं और प्रश्न भी। कवि का व्यंग्य देखिए- ये जो दसियों करोड़ गरीब है/ये अपनी मेहनत की कमाई/दाँव पर लगाकर/रगड़ रहे हैं अपने हाथ/भारत बनेगा बड़ी वैश्विक आर्थिक शक्ति/बड़ा ग्लोबल मार्केट/ नरकंकालों का भारी जखीरा।
‘अठारह सौ सत्तावन’ कविता में कवि कोई भिन्न भाव-भूमि दिखलाना चाहता है। इतिहास की हर घटना का अपना महत्व है। शैलेन्द्र जी के सीने में ऐसे अनेक फाँस हैं जिसका उपाय उन्हें ही खोजना है। ‘बेचारगी’ विक्रम और बेताल प्रसंग से उपजी प्रतिक्रियात्मक कविता है। कवि वर्तमान हालात में उन कथाओं को लेकर उनके पात्रों की बेचारगी प्रकट करता है। ‘मुरादाबाद’ कविता में कवि के प्रश्न समझने योग्य हैं- कल्पना करना मुश्किल है/कैसे हो जाते हैं ये/उन्मादी और उग्र किन्हीं क्षणों में/धर्म के नाम पर। ‘गोठ’ कविता में मेहनतकश लोगों के प्रति सहानुभूति रखते हुए कवि का भाव-चिन्तन देखिए- दाल,बाटी,चूरमा के ये कारीगर/ हम जैसों की स्वादग्रंथि के/बस साधक थे। संग्रह की अंतिम कविता ‘फाल’ में कवि मौसम के बदलाव के साथ-साथ प्रकृति में हो रहे बदलाव को महसूस करता है। शायद इस संग्रह की एकमात्र कविता है जिसमें प्रकृति, मौसम, पहाड़, पार्क, वृक्ष आदि की उदासी, उनका सूनापन सब दिखाई दे रहा है।
कवि शैलेन्द्र की कविताओं में कविता के तत्वों के साथ-साथ विरोध, नारेबाजी और अन्तर्द्वन्द है। पाठकों के लिए तनिक अधिक स्पष्टता की जरूरत है। वे दुनिया को सब कुछ बताना चाहते हैं जो उनके मन में है। दुनिया में सब कुछ भयानक, असुन्दर और वीभत्स ही नहीं है बल्कि यह दुनिया सत्यं-शिवं-सुन्दरम् भी है। हमारे पास हृदय भी है, करुणा, दया, संवेदना जैसी भावनाएं हैं। इनका उपयोग न हो तो हमारे जीवन की सरसता, मधुरता खतरे में पड़ जाएगी। कोई फाँस जकड़े रहेगी। शैलेन्द्र बहुत गम्भीरता से अपने आसपास की दुनिया को देखते हैं, विसंगतियों को खोज निकालते हैं। वे इस स्थिति को बदलने की इच्छा रखते हैं और मानवता के हित की बातें करते हैं।