मानवता के जाज्वल्यमान नक्षत्र: गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर


निर्विवाद रूप से यह यह स्वीकार्य है कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर एक विलक्षण प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे एक ही साथ साहित्यकार, संगीतज्ञ, समाज सुधारक, अध्यापक, कलाकार एवं संस्थाओं के निर्माता थे। वे एक स्वप्नदृष्टा थे, जिन्होंने अपने सपनों को साकार करने के लिए अनवरत् कर्मयोगी की तरह काम किया।

उनका जन्म कोलकाता के जोड़ासाँको, ठाकुरबाड़ी में 7 मई 1861 को एक साहित्यिक माहौल वाले कुलीन समृद्‍ध परिवार में हुआ था। बचपन से ही रवीन्द्रनाथ की रुचि गायन, कविता और चित्रकारी में देखी जा सकती थी। महज 8 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी और 16 साल की उम्र से कहानियां और नाटक लिखना प्रारंभ कर दिया था। समृद्ध परिवार में जन्म लेने के कारण रवीन्द्रनाथ का बचपन बड़े आराम से बीता। कुछ माह तक वे कलकत्ता में ओरिएण्टल सेमेनरी में पढ़े पर उन्हें यहाँ का वातावरण बिल्कुल पसंद नहीं आया। इसके उपरांत उनका प्रवेश नार्मन स्कूल में कराया गया। यहाँ का उनका अनुभव और कटु रहा। विद्यालयीन जीवन के इन कटु अनुभवों को याद करते हुए उन्होंने बाद में लिखा जब ‘मैं स्कूल भेजा गया तो, मैंने महसूस किया कि मेरी अपनी दुनिया मेरे सामने से हटा दी गई है। उसकी जगह लकड़ी की बेंच तथा सीधी दीवारें मुझे अपनी अंधी आखों से घूर रही हैं’ इसीलिए जीवनपर्यन्त गुरुदेव विद्यालय को बच्चों की प्रकृति, रुचि एवं आवश्यकता के अनुरूप बनाने के प्रयास में लगे रहे।

रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्रारंभिक शिक्षा सेंट जेवियर स्कूल में हुई थी जिसके बाद 1878 में उन्हें बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए लंदन विश्वविद्यालय में दाखिला दिलाया गया लेकिन वहां के शिक्षा के तौर-तरीके रवीन्द्रनाथ को पसंद न आए और 1880 में बिना डिग्री लिए ही वे भारत लौट आए।

गुरुदेव 1901 में सियालदह छोड़कर शांति निकेतन आ गए। प्रकृति की गोद में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शांति निकेतन की स्थापना की। शांति निकेतन में एक खुले वातावरण प्राकृतिक जगह में एक लाइब्रेरी के साथ 5 विद्यार्थियों को लेकर शांति निकेतन स्कूल की स्थापना की थी, जो आगे चलकर 1921 में विश्वभारती नाम से एक समृद्ध विश्वविद्यालय बना। शांति निकेतन में टैगोर ने अपनी कई साहित्यिक कृतियां लिखीं थीं और यहां मौजूद उनका घर ऐतिहासिक महत्व का है।

रवींद्रनाथ टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की। रवींद्र संगीत बांग्ला संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। टैगोर के संगीत को उनके साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता। उनकी ज़्यादातर रचनाएं तो अब उनके गीतों में शामिल हो चुकी हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित ये गीत मानवीय भावनाओं के कई रंग पेश करते हैं। अलग-अलग रागों में गुरुदेव के गीत यह आभास कराते हैं मानो उनकी रचना उस राग विशेष के लिए ही की गई थी।

रवींदनाथ टैगोर का अधिकतर साहित्य काव्यमय रहा, उनकी बहुत सी रचनाएं उनके गीतों के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने तकरीबन ढाई हजार गीतों की रचना की। रविन्द्रनाथ की रचनाएं यह अहसास कराने वाली होती थीं जैसे उन्हें रागों के आधार पर रचा गया हो।

टैगोर की महान रचना ‘गीतांजली’ 1910 में प्रकाशित हुई जो उनकी कुल 157 कविताओं का संग्रह है। मूल गीतांजलि वस्तुतः बाङ्ला भाषा में पद्यात्मक कृति थी। इसमें कोई गद्यात्मक रचना नहीं थी, बल्कि सभी गीत अथवा गान थे। इसमें 125 अप्रकाशित तथा 32 पूर्व के संकलनों में प्रकाशित गीत संकलित थे। पूर्व प्रकाशित गीतों में नैवेद्य से 15, खेया से 11, शिशु से 3 तथा चैताली, कल्पना और स्मरण से एक-एक गीत लिए गये थे। इस प्रकार कुल 157 गीतों का यह संकलन गीतांजलि के नाम से सितंबर 1910 ई॰ (1317 बंगाब्द) में इंडियन पब्लिकेशन हाउस, कोलकाता द्वारा प्रकाशित हुआ था। इसके प्राक्कथन में इसमें संकलित गीतों के संबंध में स्वयं रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा था – “इस ग्रंथ में संकलित आरंभिक कुछेक गीत (गान) दो-एक अन्य कृतियों में प्रकाशित हो चुके हैं। लेकिन थोड़े समय के अंतराल के बाद जो गान रचित हुए, उनमें परस्पर भाव-ऐक्य को ध्यान में रखकर, उन सबको इस पुस्तक में एक साथ प्रकाशित किया जा रहा है।”

यह बात अनिवार्य रूप से ध्यान रखने योग्य है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर को नोबेल पुरस्कार मूल बाङ्ला गीतों के संकलन इस ‘गीतांजलि’ के लिए नहीं दिया गया था बल्कि इस गीतांजलि के साथ अन्य संग्रहों से भी चयनित गानों के एक अन्य संग्रह के अंग्रेजी गद्यानुवाद के लिए दिया गया था। यह गद्यानुवाद स्वयं कवि ने किया था और इस संग्रह का नाम ‘गीतांजलि: सॉन्ग ऑफ़रिंग्स’ रखा था। ‘गीतांजलि: सॉन्ग ऑफ़रिंग्स’ नाम में ‘सॉन्ग ऑफ़रिंग्स’ का अर्थ भी वही है जो मूलतः ‘गीतांजलि’ का है अर्थात् ‘गीतों के उपहार’। वस्तुतः किसी शब्द के साथ जब ‘अंजलि’ शब्द का प्रयोग किया जाता है तो वहाँ ‘अंजलि’ का अर्थ केवल दोनों हथेली जोड़कर बनाया गया गड्ढा नहीं होता, बल्कि उसमें अभिवादन के संकेतपूर्वक किसी को उपहार देने का भाव सन्निहित होता है। पाश्चात्य पाठकों के लिए यही भाव स्पष्ट रखने हेतु कवि ने अलग से पुस्तक के नाम में ‘सॉन्ग ऑफ़रिंग्स’ शब्द जोड़ दिया।

‘गीतांजलि: सॉन्ग ऑफ़रिंग्स’ में मूल बाङ्ला गीतांजलि से 53 गीत लिये गये थे तथा 50 गीत/गान कवि ने अपने अन्य काव्य-संकलनों से चुनकर इसमें संकलित किये थे, जिनके भाव-बोध गीतांजलि के गीतों से मिलते-जुलते थे। अंग्रेजी अनुवाद में बाङ्ला गीतांजलि के बाद सन् 1912 में रचित ‘गीतिमाल्य’ (1914 में प्रकाशित) से सर्वाधिक 16 गीत लिए गए थे तथा 15 गीत नैवेद्य से संकलित थे। इसके अतिरिक्त चैताली, कल्पना, खेया, शिशु, स्मरण, उत्सर्ग, गीत-वितान तथा चयनिका से भी कुछ कविताओं को चुनकर अनूदित रूप में इसमें स्थान दिया गया था। अंग्रेजी गद्यानुवाद वाला यह संस्करण 1 नवंबर 1912 को इंडियन सोसायटी ऑफ़ लंदन द्वारा प्रकाशित हुआ था। यह संस्करण कवि रवीन्द्रनाथ के पूर्वपरिचित मित्र और सुप्रसिद्ध चित्रकार विलियम रोथेन्स्टाइन के रेखाचित्रों से सुसज्जित था तथा अंग्रेजी कवि वाई॰वी॰ येट्स ने इसकी भूमिका लिखी थी। मार्च 1913 में मैकमिलन पब्लिकेशन ने इसका नया संस्करण प्रकाशित किया।

कविताओं और गीतों के अतिरिक्त उन्होंने अनगितन निबंध लिखे, जिनकी मदद से आधुनिक बंगाली भाषा अभिव्यक्ति के एक सशक्त माध्यम के रूप में उभरी। टैगोर की विलक्षण प्रतिभा से नाटक और नृत्य नाटिकाएं भी अछूती नहीं रहीं। वह बंगला में वास्तविक लघुकथाएं लिखने वाले पहले व्यक्ति थे। अपनी इन लघुकथाओं में उन्होंने पहली बार रोजमर्रा की भाषा का इस्तेमाल किया और इस तरह साहित्य की इस विधा में औपचारिक साधु भाषा का प्रभाव कम हुआ।

अपने जीवन में रवींद्रनाथ ने अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, चीन सहित कई देशों की यात्राएं कीं। 51 वर्ष की उम्र में जब वे अपने बेटे के साथ समुद्री मार्ग से भारत से इंग्लैंड जा रहे तब उन्होंने अपने कविता संग्रह गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद किया।

गुरुदेव के सामाजिक जीवन की बात करें तो उनका जीवन मानवता से प्रेरित था, मानवता को वे देश और राष्ट्रवाद से ऊपर देखते थे। रवीन्द्रनाथ गांधीजी का बहुत सम्मान करते थे। महात्मा की उपाधि गांधीजी को रवीन्द्रनाथ ने ही दी थी, वहीं रवीन्द्रनाथ को ‘गुरुदेव’ की उपाधि महात्मा गांधी ने दी। 12 अप्रैल 1919 को रवीन्द्रनाथ टैगोर ने गांधी जी को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने गांधी जी को ‘महात्मा’ का संबोधन किया था, जिसके बाद से ही गांधी जी को महात्मा कहा जाने लगा।

बेमिसाल बहुमुखी व्यक्तित्व वाले टैगोर ने दुनिया को शांति का संदेश दिया, लेकिन दुर्भाग्य से 1920 के बाद विश्व युद्ध से प्रभावित यूरोप में शांति और रोमांटिक आदर्शवाद के उनके संदेश एक प्रकार से अपनी आभा खो बैठे। एशिया में परिदृश्य एकदम अलग था। 1913 में जब वह नोबेल पुरस्कार (प्रसिद्ध रचना गीतांजलि के लिए) जीतने वाले पहले एशियाई बने तो यह एशियाई संस्कृति के लिए गौरव का न भुलाया जा सकने वाला क्षण था। वह पहले गैर-यूरोपीय थे जिनको साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। नोबेल पुरस्कार गुरुदेव ने सीधे स्वीकार नहीं किया। उनकी ओर से ब्रिटेन के एक राजदूत ने पुरस्कार लिया था और फिर उनको दिया था। उनको ब्रिटिश सरकार ने ‘सर’ की उपाधि से भी नवाजा था जिसे उन्होंने 1919 में हुए जलियांवाला बाग कांड के बाद लौटा दिया था, हालांकि ब्रिटिश सरकार ने उनको ‘सर’ की उपाधि वापस लेने के लिए मनाया था, मगर वह राजी नहीं हुए।

वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं- भारत का राष्ट्र-गान ‘जन गण मन’ और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान ‘आमार सोनार बाँग्ला’ गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं। स्वामी विवेकानंद के बाद वह दूसरे व्यक्ति थे जिन्होंने विश्व धर्म संसद को दो बार संबोधित किया। रवीन्द्रनाथ टैगोर की बड़ी भूमिका स्वतंत्रता पूर्व आंदोलनों में भी रही है। 16 अक्टूबर 1905 को बंग-भंग आंदोलन का आरंभ टैगोर के नेतृत्व में ही हुआ था। इस आंदोलन के चलते देश में स्वदेशी आंदोलन को बल मिला। जलियांवाला बाग में सैकड़ों निर्दोष लोगों के नरसंहार की घटना से रवीन्द्रनाथ को गहरा आघात पहुंचा था, जिससे क्षुब्ध होकर उन्होंने अंग्रेजों द्वारा दी गई ‘नाइट हुड’ की उपाधि को वापस लौटा दिया था।

गुरुदेव ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लान्ति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया। जीवन के अन्तिम समय से कुछ पहले इलाज के लिए जब उन्हें शान्ति निकेतन से कोलकाता ले जाया जा रहा था तो उनकी नातिन ने कहा कि आपको मालूम है हमारे यहाँ नया पावर हाउस बन रहा है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि हाँ पुराना आलोक चला जाएगा और नए का आगमन होगा। प्रोस्टेट कैंसर के कारण 7 अगस्त 1941 को गुरुदेव इस दुनिया से सदैव के लिए प्रयाण कर गए। लोगों के बीच उनका इतना ज्यादा सम्मान था कि उनकी मृत्यु के बारे में कोई भी व्यक्ति यकीन नहीं करना चाहता था।



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