किसानों, मजदूरों, कर्मचारियों, नवयुवकों तथा गृहिणियों के लिए इस वर्ष के बजट में कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे ऐसा लगता कि सरकार उनके विषय में कुछ सोच भी रही है या वे भी इस देश के नागरिक हैं और देश उनसे ही मिलकर बना है। देश की 99 प्रतिशत आबादी के प्रति सरकार का ठंडापन और बेरुखी चौंकाती है और डराती भी है। इस नीरस और निराशाजनक बजट की प्रशंसा के लिए एक अनूठा और हास्यास्पद तर्क गढ़ा गया- पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के बाद भी सरकार ने आम लोगों को राहत पहुंचाकर उनका दिल जीतने की कोशिश नहीं की, कोई लोकलुभावन घोषणा इस बजट में नहीं की गई।
आम लोगों की दुःख-तकलीफों के प्रति सरकार की निर्मम निर्लिप्तता की एक और व्याख्या संभव है। सरकार लोगों के आर्थिक जीवन की बेहतरी को चुनावी सफलता के लिए गैर-जरूरी मानती है। सरकार का विश्वास है कि इस देश का बहुसंख्यक वर्ग तमाम आर्थिक दुश्वारियों के बावजूद धर्म और संप्रदाय के आधार पर मतदान करेगा। अपने कष्ट भुलाकर वह अपने काल्पनिक शत्रुओं पर हो रहे अत्याचारों में परपीड़क आनंद तलाश करेगा।
बजट में सरकार कहीं भी गरीब, कमजोर और जरूरतमंद के साथ खड़ी दिखाई नहीं देती। मनरेगा के लिए वित्तीय वर्ष 2022-23 में 73000 करोड़ का प्रावधान किया गया है जो मनरेगा के जानकारों की दृष्टि में निराशाजनक है। विगत वित्तीय वर्ष के संशोधित आकलन की तुलना में वर्तमान बजट में मनरेगा हेतु आवंटित राशि में 25.51 प्रतिशत की कटौती की गई है। कोविड-19 के इस भयानक दौर ने मनरेगा के महत्व को उजागर किया है और यह आशा की जाती थी कि न केवल सरकार इसे ज्यादा मजबूती देगी बल्कि शहरी इलाकों के लिए भी कोई ऐसी ही योजना लाई जाएगी। वित्तीय वर्ष 2020-21 में कोविड-19 के कारण हुए लॉकडाउन के दौर में मनरेगा की जीवनरक्षक भूमिका के मद्देनजर सरकार ने इसके लिए अतिरिक्त चालीस हजार करोड़ का आवंटन किया और इस प्रकार मनरेगा के लिए वित्तीय वर्ष 2020-21 में कुल आवंटन एक लाख दस हजार करोड़ का था। इसके बावजूद मनरेगा की इस वित्तीय वर्ष के लिए लंबित देनदारियां सत्रह हजार करोड़ रुपये थीं। वर्ष 2021-22 में मनरेगा का बजट घटाकर 73000 करोड़ रुपये कर दिया गया जिसका नब्बे प्रतिशत मात्र छह माह में ही व्यय हो गया। देश के इक्कीस राज्यों के पास मनरेगा चलाने के लिए धन ही नहीं था।
पीपुल्स एक्शन फ़ॉर एम्प्लायमेंट गारंटी तथा नरेगा संघर्ष मोर्चा के विशेषज्ञों द्वारा न्यूनतम मजदूरी, एक्टिव जॉब कार्ड तथा 100 दिन के काम को आधार बनाकर की गई गणना के अनुसार मनरेगा के लिए दो लाख चौंसठ हजार करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी। पीपुल्स एक्शन फ़ॉर एम्प्लायमेंट गारंटी के विशेषज्ञ इस वर्ष 21000 करोड़ रुपये की लंबित देनदारियां रहने का अनुमान लगा रहे हैं। यदि इन्हें घटा दिया जाए तो शेष 52000 करोड़ रुपयों में केवल 22 दिन मनरेगा योजना चलाई जा सकती है। हो सकता है कि सरकार वर्ष 2021-22 के पच्चीस हजार करोड़ रुपये की भांति इस वर्ष भी कुछ अतिरिक्त राशि की घोषणा करे किंतु कुल मिलाकर सौ दिन रोजगार देने की संवैधानिक बाध्यता से सरकार मुंह मोड़ रही है।
नेशनल सोशल असिस्टेंस प्रोग्राम के तहत केंद्र सरकार बीपीएल परिवारों को नाम मात्र की (200-300 रुपये) मासिक पेंशन देती है। इसका बजट 9652 करोड़ रुपये विगत 15 वर्षों से अपरिवर्तित है। स्वाभाविक है कि पेंशन की राशि में भी कोई इजाफा नहीं हुआ है।
यह बजट लंबे किसान आंदोलन के स्थगन के बाद आया था और यह उम्मीद थी कि किसानों और सरकार के बीच हुए समझौते के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता इसमें दिखाई देगी किंतु बजट का अवलोकन करने पर ऐसा लगता है कि किसानों के साथ सरकार का समझौता, आंदोलन खत्म कराने के लिए अपनाई गई एक धूर्त रणनीति मात्र था। सरकार का किसानों की मांगें पूरी करने का कोई इरादा नहीं है।
कृषि एवं सहायक गतिविधियों के लिए इस वर्ष का बजट सम्पूर्ण बजट का 3.84 प्रतिशत है जबकि विगत वर्ष यह कुल बजट का 4.26 प्रतिशत था। ग्रामीण क्षेत्र के लिए बजट आवंटन 2021-22 में संशोधित आकलन के बाद 206948 करोड़ रुपये था जो इस वर्ष के बजट एस्टीमेट में घटकर 206293 करोड़ रुपये है। विगत वित्तीय वर्ष में ग्रामीण क्षेत्र के लिए बजट कुल बजट का 5.59 प्रतिशत था जो अब घटकर 5.23 प्रतिशत रह गया है।
वर्ष 2018 से किसानों को दी जा रही प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के बजट में हुई मामूली वृद्धि से किसान हताश हैं। 6000 रुपये की वार्षिक सहायता वैसे ही अपर्याप्त थी किंतु महंगाई की बढ़ती हुई दर के कारण यह नितांत असंतोषजनक बन गई है, व्यावहारिक तौर पर इसमें 15 प्रतिशत की कमी हुई है। आशा की जा रही थी कि इसमें सरकार कोई सम्मानजनक वृद्धि करेगी किंतु वित्तीय वर्ष 2021-22 के 67500 करोड़ रुपये के आवंटन में मामूली वृद्धि करते हुए इसे 68000 करोड़ रुपये किया गया है जो यह दर्शाता है कि सरकार का महंगाई के विरुद्ध किसानों को संरक्षण देने का कोई इरादा नहीं है।
फरवरी 2016 में प्रधानमंत्री द्वारा 6 वर्ष में किसानों की आय दोगुनी करने की घोषणा के बाद 29 फरवरी 2016 को प्रस्तुत बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसका समावेश किया था। फरवरी 2022 में इस घोषणा के 6 वर्ष पूरे हो गए किंतु वित्त मंत्री का बजट भाषण इस विषय में मौन था। उन्होंने नहीं बताया कि किसानों की आय वर्तमान में कितनी है और यदि यह दुगुने से बहुत कम है तो इसका कारण क्या है। सरकार द्वारा किसानों की आय का आकलन करने के लिए गठित कमेटी ने गणना कर बताया था कि 2015-16 में किसानों की अनुमानित आय 8059 रुपये थी। कमेटी ने यह भी कहा कि मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2022 तक इस आय को बढ़ाकर 21000 रुपये करना होगा तभी वह दोगुनी मानी जाएगी। एनएसएसओ 2018-19 के आंकड़े किसानों की आय में मामूली वृद्धि को स्वीकारते हैं तथा उसे 10000 रुपये के लगभग परिकलित करते हैं। इसके बाद के वर्षों में भारत में कृषि क्षेत्र में हुई वृद्धि और विकास के आंकड़ों को यदि उपयोग में लाया जाए तो यह आय लगभग 11200 रुपये के करीब पहुंचती है। बढ़ती महंगाई को ध्यान में रखने पर दरअसल किसानों की आय घटी है न कि बढ़ी है।
वित्त मंत्री ने समर्थन मूल्य पर धान और गेहूं की खरीद के आंकड़ों का बड़े गर्व से उल्लेख किया किंतु दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई यह है कि वर्ष 2020-21 की तुलना में धान और गेहूं की समर्थन मूल्य पर खरीद का आंकड़ा कम हुआ है। वर्ष 2020-21 में किसानों से 1286 लाख मीट्रिक टन धान और गेहूं खरीदा गया जिससे 1.97 करोड़ किसान लाभान्वित हुए तथा इसके लिए बजट 2.48 लाख करोड़ रुपये था जबकि वर्ष 2021-22 में किसानों से 1208 लाख मीट्रिक टन धान और गेहूं खरीदा गया जिससे 1.63 करोड़ किसान लाभान्वित हुए तथा इसके लिए बजट 2.37 लाख करोड़ रुपये था। प्रसंगवश यह उल्लेख जरूरी है कि लाभान्वित किसानों की यह संख्या देश में किसानों की कुल संख्या का मात्र दस प्रतिशत ही है।
कहा गया था कि प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान (पीएम आशा) को प्रारंभ करने के पीछे भावना यह है कि प्रत्येक किसान को बढ़ी हुई एमएसपी का फायदा मिले। वित्तीय वर्ष 2019-20 में पीएम आशा का बजट 1500 करोड़ रुपये का था यद्यपि तब भी जरूरत 50000 करोड़ रुपये के बजट की थी। बाद में 2020-21 में इसे घटाकर 500 करोड़ रुपये और 2021-22 में इसे और कम कर 400 करोड़ रुपये कर दिया गया। इस वित्तीय वर्ष में पीएम आशा का बजट केवल एक करोड़ रुपये है अर्थात यह योजना बंद कर दी गई है।
इसी प्रकार मार्केट इंटरवेंशन स्कीम तथा प्राइस सपोर्ट स्कीम के लिए वित्तीय वर्ष 2021-22 के संशोधित आकलन के अनुसार बजट 3959.61 करोड़ रुपये था जिसमें वित्तीय वर्ष 2022-23 में 62 प्रतिशत की कटौती करते हुए इसे 1500 करोड़ रुपये कर दिया गया है।
यदि सरल भाषा में कहा जाए तो एमएसपी पर खरीद में गिरावट आई है और एमएसपी की प्राप्ति सुनिश्चित करने वाली योजनाओं को या तो बंद किया जा रहा है या इनके बजट में भारी कटौती की गई है। कुल मिलाकर किसान आंदोलन के नेताओं के लिए सरकार का संदेश स्पष्ट है- वह एमएसपी के मुद्दे को महत्वपूर्ण नहीं मानती।
फ़ूड एंड न्यूट्रिशनल सिक्योरिटी के बजट में भी कटौती की गई है। वर्ष 2021-22 के रिवाइज्ड एस्टीमेट के अनुसार इसका बजट 1540 करोड़ रुपये था जो अब घटाकर 1395 करोड़ रुपये कर दिया गया है।
डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ पल्सेस टु स्टेट्स एंड यूनियन टेरिटरीज़ हेतु 2021-22 में बजट आकलन 300 करोड़ रुपये था किंतु वास्तविक व्यय केवल 50 करोड़ रुपये हुआ। इस वर्ष इसके लिए केवल 9 करोड़ रुपये का आवंटन हुआ है। इससे पता चलता है कि सरकार बच्चों के मध्याह्न भोजन में दालों की पौष्टिकता सम्मिलित नहीं करना चाहती, न ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये गरीबों तक दाल पहुंचाने का उसका कोई इरादा है।
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के बजट में कटौती की गई है। वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट में इसके लिए 15989 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था जिसे 2022-23 में घटाकर 15500 करोड़ रुपये कर दिया गया है।
भाजपा शासित उत्तर प्रदेश में ही यह योजना दम तोड़ रही है। विगत तीन वर्षों में इस योजना से लाभान्वित किसानों की संख्या क्रमशः 61.41 लाख, 46.42 लाख और 41.89 लाख रही है। लाभान्वितों की संख्या में यह भारी गिरावट योजना की कमियों की ओर संकेत करती है।
कोरोना काल में घोषित बहुचर्चित एक लाख करोड़ रुपये के एग्रीकल्चरल इंफ्रास्ट्रक्चर फण्ड की स्थिति विगत वित्तीय वर्ष में यह रही थी कि इसमें केवल 2600 करोड़ रुपये ही सैंक्शन हो सके थे और वास्तविक व्यय महज 900 करोड़ रुपये था।
विगत वित्तीय वर्ष में कृषि अवशिष्ट प्रबंधन हेतु 700 करोड़ रुपये का प्रावधान था किंतु वर्तमान बजट में यह शीर्ष ही हटा दिया गया है। पराली जलाने का मुद्दा पिछले कुछ वर्षों में चर्चा में रहा है। किसानों को अवशेष प्रबंधन के लिए दी जाने वाली सहायता को समाप्त कर देना दुःखद और आश्चर्यजनक है।
किसानों को अल्प अवधि के ऋण पर ब्याज सब्सिडी के लिए वित्तीय वर्ष 2021-22 में 19468 करोड़ रुपये का प्रावधान था जिसमें मामूली वृद्धि की गई है और अब यह 19500 करोड़ रुपये है जो अपेक्षाओं से बहुत कम है।
10000 किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) के गठन और संवर्धन के लिए पिछले वर्ष के बजट में 700 करोड़ रुपये का प्रावधान था जिसे घटाकर इस बजट में 500 करोड़ रुपये कर दिया गया है।
वित्त मंत्री ने इंटरनेशनल मिलेट ईयर की चर्चा की और मिलेट मिशन का जिक्र किया। लोकसभा में कृषि मंत्री ने जुलाई 2021 में दिए गए अपने एक उत्तर में यह स्वीकार किया था कि तीन मोटे अनाजों ज्वार, बाजरा और रागी का सर्वाधिक उत्पादन करने वाले दो राज्यों उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में इन अनाजों की खरीद शून्य थी। सरकार ने फूड सब्सिडी में 27.59 प्रतिशत की भारी कटौती की है। पिछले वित्तीय वर्ष के संशोधित आकलन के अनुसार फ़ूड सब्सिडी 2.9 लाख करोड़ रुपये थी जबकि वर्तमान वित्तीय वर्ष के लिए यह 2.1 लाख करोड़ रुपये है। पीएम आशा योजना को बंद किया जा रहा है। मिड डे मील योजना की स्थिति भी अच्छी नहीं है। पीएम पोषण कार्यक्रम हेतु बजट वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिए 10234 करोड़ रुपये है जो विगत वित्तीय वर्ष के बराबर ही है। सक्षम आंगनबाड़ी एवं पोषण 2.0 योजनाओं के लिए इस वित्तीय वर्ष का बजट 20263 करोड़ रुपये है जो पिछले वित्तीय वर्ष के संशोधित आकलन 20000 करोड़ रुपये से जरा ही अधिक है। इन परिस्थितियों में मोटे अनाज की खरीद कैसे हो पाएगी इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
यही स्थिति जैविक खेती की है। प्रधानमंत्री इस विषय में अनेक बार चर्चा कर चुके हैं किंतु सामान्य रासायनिक उर्वरकों पर तो जीएसटी 5 प्रतिशत है जबकि जैविक खेती में प्रयुक्त होने वाले अनेक कंपाउंड्स पर जीएसटी की दर बहुत अधिक है।
बजट में उर्वरक सब्सिडी में भारी कटौती की गई है। विगत वित्तीय वर्ष में संशोधित आकलन के अनुसार यह 1.40 लाख करोड़ थी जबकि वर्तमान वित्तीय वर्ष के बजट आकलन के अनुसार यह 1.05 लाख करोड़ है।
बजट में पशुपालन और डेयरी उद्योग के विषय में कुछ भी नहीं है न ही खाद्य प्रसंस्करण आदि के विषय में कुछ कहा गया है।
किसान आंदोलन के नेता यह अनुभव करते हैं कि सरकार तीन कृषि कानूनों की वापसी से अपमानित अनुभव कर रही है, वह किसानों से नाराज है और यह बजट किसानों के प्रति एक प्रतिशोधात्मक कार्रवाई की तरह है। बहरहाल यह बजट ग्रामीण भारत और किसानों की उपेक्षा के लिए तो सुर्खियां बटोर ही रहा है।
लेखक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं