तन मन जन: बदलते भू-उपयोग और जीवों से हमारे रिश्ते में छुपा है महामारियों का भविष्य


सन् 2020 में कोरोना वायरस संक्रमण के विश्वव्यापी प्रसार और प्रचार ने यह तो स्पष्ट कर दिया है कि अब कोई भी खतरनाक वायरस संक्रमण पूरी दुनिया को हिला सकता है। परमाणु युद्ध, गृह युद्ध, आदि से भी ज्यादा घातक अब ऐसे वायरस संक्रमण हैं जो जानवरों से मनुष्यों में आकर तबाही मचा रहे हैं। देखा जा सकता है कि पूरी दुनिया में जमीन के उपयोग का तरीका बदल रहा है। तेजी से जंगल काटे जा रहे हैं। रासायनिक खेती बढ़ती ही जा रही है। जानवरों का केन्द्रीकृत उत्पादन भी बढ़ रहा है। इन वजहों से कई जगहों पर जानवरों/पक्षियों में पल रहे जानलेवा वायरस मनुष्यों में प्रवेश कर महामारी के रूप में तांडव मचा रहे हैं।

हाल ही में चमगादड़ों से मनुष्य में आए सार्स कोरोना वायरस-2 के स्थान और उत्पत्ति का रहस्य अभी भी बना हुआ है। बर्कले स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, मिलान के पॉलि‍टेक्निक यूनिवर्सिटी तथा न्यूजीलैंड के मैसी यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने बताया कि सार्स कोव-2 ने पहले हॉर्स-शू चमगादड़ को संक्रमित किया फिर यह इन्सानों में फैल गया। इस नये अध्ययन में पश्चिमी यूरोप से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया तक के देशों को शामिल किया गया। अध्ययन बताता है कि जहां-जहां जमीन के उपयोग का तरीका बदल रहा है और हॉर्स शू चमगादड़ों की प्रजातियां मौजूद हैं वहां से और भी खतरनाक प्रकार के कोरोना वायरस के उत्पन्न होने की पूरी आशंका है।

इस अध्ययन में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर पाओलो डिआडोरिका ने बताया है कि जमीन का उपयोग बदलना तथा पारम्परिक खेती का हाइटेक एवं मुनाफावादी होना जुनोटिक बीमारियों (जानवरों से मनुष्यों में होने वाला रोग) का बड़ा कारण है। जमीन का उपयोग बदलने से वातावरण के कार्बन स्टॉक, माइक्रोक्लाइमेट तथा पानी की उपलब्धता पर असर पड़ता है और इसे नये खतरनाक वायरसों के उत्पन्न होने की सम्भावना ज्यादा रहती है। वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि तेजी से विकास(?) के नाम पर बदले जा रहे चीन के कई क्षेत्र ऐसे हॉटस्पॉट हैं जहां जानलेवा वायरस पल रहे हैं और वे कभी भी कोहराम मचा सकते हैं। चीन के अलावा कई अन्य सम्भावित देश हैं जहां कोरोना वायरस के नये वैरिएन्ट उत्पन्न हो सकते हैं। जापान के कुछ हिस्से, फिलीपींस के उत्तरी भाग, चीन का दक्षिणी भाग शंघाई, थाइलैण्ड, भारत जहां जानवरों का उत्पादन बढ़ा है वहां से नये वायरस आ सकते हैं। मिलान की पॉलिटेक्निक यूनिवर्सिटी में वाटर एण्ड फूड सेफ्टी की प्रोफेसर मारिया क्रिस्टीना रूली के अनुसार जंगल काटे जाने तथा नयी फसल एवं खेती और केन्द्रीकृत पशुपालन/उत्पादन के कारण नये वायरस उत्पन्न हो सकते हैं जो मानव सभ्यता के लिए आत्मघाती होंगे।

बर्कले, मिलान तथा न्यूजीलैण्ड के उपरोक्त यूनिवर्सिटी के अघ्ययन का निचोड़ यह है कि जमीन का उपयोग बदलने से कई प्राकृतिक घर उजड़ गया है। कई ऐसी प्रजातियां हैं जिनके जीने के लिए जीवों को एक खास तरह का माहौल चाहिए होता है, जिसे लोगों ने नष्ट कर दिया है। ऐसे जीव स्पेशलिस्ट कहलाते हैं। ये वहीं रहते हैं, हर हाल में। दूसरी प्रजातियों के जीव को जनरलिस्ट कहा जाता है जिन्हें तोड़फोड़ से कोई असर नहीं पड़ता। दिल्ली में वायुसेना भवन (केन्द्रिय सचिवालय) के आसपास बन्दरों की उपस्थिति इस बात का प्रमाण है कि सरकार की लाख कोशिशों के बाद भी उन्हें वहां से हटाया नहीं जा सका है। स्पेशलिस्ट प्रजाति के जीव अपनी बसाहट उजाड़ दिए जाने के बाद यह तो कहीं और चले आते हैं या वहीं स्वयं को नष्ट कर लेते हैं, लेकिन जनरलिस्ट प्रजाति के जीव खुद को बचाने के लिए इन्हें वहीं इंसानी बस्तियों में ही रहने लगते हैं। इससे जूनोटिक बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। प्रो. माओलो डियाडोरिको कहते हैं कि हॉर्स-शू चमगादड़ जर्नलिस्ट श्रेणी के जीव हैं जो महामारी के वायरस फैलाएंगे ही। उसके पहले भी पाओलो क्रिस्टीना और केविड हेमैन का अध्ययन भी इस बात का खुलासा करता है कि कैसे अफ्रीका के जंगलों को नष्ट कर वहां के जीवों का घर बरबाद किया गया और इसी वजह से इबोला वायरस इन्सानों में फैला।

Courtesy: Nature

कथित विकास की चकाचौंध में लगभग सभी (कुछ अपवादों को छोड़कर) अन्धे और मतिभ्रमित हो चुके हैं। अपने लालच के लिए लोग जंगल काटकर जीवों की बसाहट उजाड़ रहे हैं। यदि हम किसी जीव की बसाहट उजाड़ेंगे तो वह हमें कैसे माफ करेगा? चीन पिछले दो दशक से जंगल काट कर वृक्षारोपण और हरियाली बढ़ाने के अभियान में चैंपियन रहा है फिर भी जीवों का विनाश नहीं रुका। जंगलों के दायरे छोटे होने से पर्यावरण खतरे भी बढ़ेंगे। वाइल्डलाइफ कॉरिडोर बनाने के बावजूद जीव सुरक्षित और सरंक्षित नहीं है, मसलन मनुष्यों में जुनोटिक रोगों का प्रसार होना स्वाभाविक है क्योंकि ऐसे में मनुष्यों और जानवरों का सम्पर्क बढ़ा है। प्रो. पाओलो पूछते हैं कि पर्यावरण की सेहत बिगड़ेगी तो इन्सान वहां बचेंगे? ये आपस में एक दूसरे के पोषक हैं। पर्यावरण में मनुष्य और जीवों का एक समानुपातिक रिश्ता है। इसलिए पर्यावरण के प्राकृतिक स्वरूप को छेड़ना उचित नहीं है। वैज्ञानिकों की यह चेतावनी जानते समझते हुए भी मनुष्य और सरकार नासमझ बने हुए हैं। यह नासमझी ही मानव विनाश का कारण बनेगी।

कोविड-19 के उद्भव और दहशत से काफी पहले से दुनिया के जीव वैज्ञानिक जूनोटिक वायरसों पर अध्ययन कर रहे हैं। अभी एक वेब आधारित समूह ने दुनिया में मौजूद 887 जूनोटिक वायरसों (जानवरों से वायरस) की एक सूची तैयार की है। इसमें 30 वायरस तो ऐसे हैं जो भविष्य में इन्सानों के लिए जानलेवा साबित होंगे। ये महामारियों के रूप में पूरी दुनिया में कहर बरपा सकते हैं। यह अध्ययन यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के संक्रामक रोग विशेषज्ञ जोना मैजेट का है। इन वायरसों को संक्रामकता के आधार पर तीन वर्गों में बांटा गया है- राष्ट्रीय, अर्धवैश्विक तथा वैश्विक। राष्ट्रीय स्तर पर जो वायरस कहर बरपा सकते हैं वे हैं- लास्सा या एरेना वायरस (Arenavirus), इबोला या फिलोवायरस (Filovirus), मार्बल या फिलोवायरस, सार्स कोरोना वायरस, 229ई, बीटा कोरोना वायरस, रैब्डोवायरस, बुनिया वायरस (Bunyavirus), पुमाला वायरस, शेरेफान बैट कोरोना वायरस, योरोपियन बैट लिसा वायरस, लागुना नेग्रा वायरस, काउपाक्स वायरस, आदि। अर्धवैश्विक वायरसों में सार्स-कोव-2 निपाह वायरस, रेट्रो वायरस, कोरोना वायरस प्रेडिक्ट कोव-35, बोर्ना वायरस, माउस कोरोना वायरस, मंकी पाक्स वायरस, आदि।

वैश्वीकरण के दौर में देखा जा रहा है कि इन्सान भले ही इन्सान से दूरी बना रहा है लेकिन जानवरों से इसकी निकटता बढ़ रही है। पालतू और आहार के रूप में मनुष्य और पशु-पक्षी पहले से ज्यादा नजदीक है। इसलिए जानवरों के संक्रमण का खतरा भी बढ़ा है। अध्ययन बता रहा है कि जिन वायरसों से इन्सान को ज्यादा खतरा है उसमें सार्स-कोव-2 कोरोना वायरस सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि इस वायरस के परिवार में दुनिया के कोई 887 वायरस शामिल हैं। एक और वायरस है सिनियन इम्यूनोडेफिसिएन्सी वायरस यानि सिव। यह बन्दरों से इन्सानों में आया और इसी की वजह से एचआइवी/एड्स फैला था। एक और वायरस है कोरोना वायरस 229ई। इस वायरस का एक अलग स्ट्रेन इन्सानों में जुकाम के लक्षण पैदा करता है। एक और वायरस है मुटीन कोरोना वायरस जो मल्टीपल स्क्लेसेसिस जैसी बीमारियां पैदा कर सकता है। मकाऊ फोमी वायरस भी बन्दरों से इन्सान में आकर तबाही मचा सकता है। डॉ. जोना मैजेट का अध्ययन डरावना है। ये वायरस वातावरण में मौजूद रहते हैं और इन्सान के सम्पर्क में आते ही सक्रिय हो जाते हैं। अध्ययन में 30 वायरसों का रिस्क स्कोर 155 आया है यानि कि ये खतरनाक किस्म के वायरस हैं जो जानवरों से मनुष्य में आकर जानलेवा तबाही मचाने की हैसियत रखते हैं। जोना मैजेट का यह अध्ययन अभी प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज में प्रकाशित हुआ है। इस अध्ययन में 13 देशों के 65 विशेषज्ञ शामिल थे।

अभी देश और दुनिया कोरोना वायरस संक्रमण के चंगुल से मुक्त भी नहीं हो पायी है और नये तथा घातक महामारियों की चर्चा से आम लोगों में निराशा और दहशत का माहौल है। इसी बीच माइक्रोसाफ्ट के सहसंस्थापक बिल गेट्स ने भविष्य की महामारी को लेकर चेतावनी जारी की है। बिल गेट्स का दावा है कि भविष्य में जो महामारी आएगी वह वर्तमान महामारी से भी 20 गुणा ज्यादा घातक होगी। लोग जानते हैं कि कोरोना वायरस संक्रमण ने लगभग 50 लाख लोगों की जानें ली हैं लेकिन आने वाली महामारियों में करोड़ों जानें जा सकती हैं। गेट्स की चिन्ता यह भी है कि वायरसों के खतरे से दुनिया की सरकारें भी लापरवाह हैं। चेतावनी यह है कि लोगों को जन शिक्षण और जन स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ाई जाए तो स्थिति बेहतर हो सकती है। कोरोना वायरस संक्रमण और इससे बचाव के वैक्सीन की राजनीति से सबक लेने की जरूरत है। बिल गेट्स ‘‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’’ का भी जिक्र करते हैं। ‘‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’’ यानि उस देश द्वारा अपने लिए वैक्सीन की समुचित मात्रा रिजर्व कर ही दूसरे देशों को वैक्सीन उपलब्ध कराना जो वैक्सीन का उत्पादन या निर्माण कर रहा हो, हालांकि ‘‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’’ कोई नया विचार नहीं है। अमीर और सम्पन्न देश पहले से ही इस राह पर हैं। सन् 2009 में एच1एन1 फ्लू के प्रकोप के दौरान भी योरोप में इसी नाम पर वैक्सीन की जमाखोरी हुई थी।

अभी कोरोना वायरस संक्रमण ने महामारी से निबटने के विभिन्न राज्यों/देशों की हैसियत को बेपर्दा कर दिया है। हमने देखा कि कहीं भी बीमारियों के सर्विलांस जांच, इलाज व प्रबन्धन की सही व्यवस्था नहीं थी। स्थिति अफरातफरी की थी। राजनीतिक नेतृत्व भी या तो निश्चिन्त या लापरवाह रहा। लोग जान बचाने के लिए इस अस्पताल से उस अस्पताल तक बदहवास भाग रहे थे। न तो स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार या प्रशासन का पूरा नियंत्रण था न ही दवाओं पर कोई स्पष्टता थी। चारों तरफ मौत का भय और प्रशासनिक अव्यवस्था ने देश की मरघट में तब्दील कर दिया था, हालांकि संक्रमण के कम होते ही दुनिया भर के लोगों में सोच और समझ के स्तर पर काफी बदलाव दिखा मगर भारत में लोग अभी भी लापरवाह और नासमझ ही दिख रहे हैं।

तन मन जन: बिल गेट्स का ‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’ और नई दहशतें

वैसे तो दुनिया भर में कई देश महामारियों से लड़ने की तैयारी में जुट गए हैं। बीमारियों के सर्विलांस को लेकर दुनिया भर में तैयारियां भी हो रही हैं। महामारियों से निबटने की तैयारियों को लेकर लैंसेट पत्रिका में हाल ही में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई है। इसमें लोगों के हिसाब से नीतियां बनाना, रीयल टाइम डाटा, सटीक सर्विलांस, आदि व्यवस्था को लेकर भविष्य की तैयारी की जा सकती है। भविष्य में बीमारियों का सर्विलांस इन्टिग्रेटेड नेशनल सिस्टम पर आधारित होगा। इसमें कई तरीके काम आ सकते हैं। पहला है- सीआरवीएस यानि सिविल रजिस्ट्रेशन एवं वाइटल स्टैटिस्टीक्स या सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम। इससे मौत की दर और बीमारी की ताकत का पता चलेगा। दूसरा तरीका है प्रयोगशालाओं से पुष्टि यानि बड़े पैमाने पर जांच। तीसरा तरीका है डिजिटल डाटा यानि युनिक हेल्थ आइडेन्टिफायर्स। चौथा है- डाटा ट्रान्सपेरेन्सी। इसमें लोगों के स्वास्थ्य सम्बन्धी सूचनाएँ अन्तर्राष्ट्रीय एजेन्सियों के निगरानी में होंगी। पांचवां है- सरकारें स्वास्थ्य बजट बढ़ाएं यानि लगभग 4 अमरीकी डॉलर प्रति व्यक्ति अर्थात् 292 रुपये प्रति व्यक्ति सालाना निवेश ताकि देश में सतत् स्वास्थ्य प्रणाली विकसित हो सके। यह तो बड़े कारपोरेट एवं अन्तराष्ट्रीय एजेन्सियों की राय है, लेकिन भारत में हमारी पहल क्या हो यह हमें सोचने समझने की जरूरत है।

तन मन जन: निजीकरण की विफलता के बाद क्या हम क्यूबा के स्वास्थ्य मॉडल से सबक लेंगे?

इसमें शक नहीं कि वैश्विक महामारी के दौर में देश के आम नागरिकों की सेहत और आजीविका दोनों संकट में हैं और यदि सरकार ने ईमानदारी से जनपक्षिय निर्णय नहीं किये तो यहां के लोग वैश्विक या देशी महामारी की स्थिति में बड़ी कीमत चुकाएंगे। कोरोना वायरस संक्रमण को अब दो वर्ष हो जाएंगे मगर आज भी हमारी सरकारों की प्राथमिकताओं में स्वास्थ्य से ज्यादा सड़क, पुल, भवन आदि क्षेत्र ही हैं। महज वोट बटोरने की नीयत से बनी नीतियों पर सरकारों का ज्यादा ध्यान है। स्वास्थ्य आपातकाल की स्थिति में भी जनता के पक्ष में सर्वोच्च न्यायालय को ही खड़ा देखा गया है। सरकार न तो विपक्षी दलों की सुनती है और न ही जनता की। महज चुनाव जीतने के हथकण्डों के सामने आम आदमी की सेहत आवारा पशु की तरह देखी जा सकती है। व्यापक जनशिक्षण, जन जागरण एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी सूचनाओं को दबाकर हम देश की जनता का स्वास्थ्य नहीं संभाल सकते। जब तक व्यक्ति आत्मस्वाभिमान एवं सही समझ तथा जनहित व देशहित में नहीं सोचेगा तब तक हर बीमारी या महामारी ऐसे ही लाखों जानें लेती रहेंगी और हम अपनी तक दौर को कोसने के अलावा और कुछ कर भी नहीं पाएंगे। अन्धभक्ति से ऊपर उठें तभी देश और देश के जन की बात हो सकती है।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं।


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