दो बच्चियों के खोने और मिलने से उपजे कुछ विचार


ये गांधी जयंती की शाम की बात है जब करीब 8 बजे साकेत चौराहे से आनंद बाजार की ओर जाने वाले रास्ते पर मैं परिवार के साथ कुछ खरीदने के लिए रुका था।  तभी मैंने देखा मेरी पत्नी अनुराधा किन्हीं दो छोटी बच्चियों से बात कर रही थी।  धूल से सने  उन बच्चियों के बाल और मैले कपड़े देखकर वही लगा जो किसी भी मध्यवर्गीय इंसान को लग सकता है- कि वे कुछ माँग रही होंगी,  लेकिन फिर उनकी आँखों में आँसू और मेरी पत्नी के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभरती देखीं तो लगा मामला कुछ और होगा। पूछने पर पता चला कि वे दोनों बच्चियाँ अपने समूह से बिछड़ गयी थीं और ज़ार-ज़ार रोये जा रही थीं। दोनों की उम्र 6-7 साल की दिख रही थी।

अनुराधा, जो गुजराती स्कूल में शिक्षिका भी है, उसने बच्चियों के लिए “कुछ करो” के अंदाज़ में मेरी तरफ़ देखा। तत्काल जो दिमाग़ में आया वो मैंने कर डाला। डायल 100 से कोई जवाब न मिलने पर फ़ोन में पुलिस आइजी हरिनारायण चारी मिश्रा का नंबर दर्ज था।  मैंने तुरंत लगा दिया, हालाँकि थोड़ा संकोच था लेकिन जब तक संकोच प्रबल हो पाता, पहली घंटी बजते ही दूसरी ओर से फ़ोन उठा लिया गया।  मैंने खेद व्यक्त करते हुए कहा कि इतने छोटे से काम के लिए आपको परेशान कर रहा हूँ, लेकिन 100 नंबर नहीं लग रहा है और दो बच्चियाँ अपनों से बिछुड़ी यहाँ रो रही हैं।  उन्होंने जवाब में कहा- आप एक मिनट रुकें, आपको फ़ोन आएगा।  और आया। एक मिनट के भीतर ही आया।  उन्होंने कहा आइजी ऑफिस से बोल रहे हैं। मैंने मामला बताया और जगह समझायी।  बड़ी मुश्किल से 3-4 मिनट इंतज़ार किया और सोचा कि फिर से उस नंबर पर फ़ोन लगाऊँ जिससे फ़ोन आया था। तभी मोटरसाइकिल पर दो पुलिसवाले नमूदार हुए। 

तब तक रोते हुए बच्चों के पास भीड़ लग गयी थी।  एक ऑटोवाले भाई उन लड़कियों को समझा रहे थे कि रो मत, अपना घर बता दो तो मैं तुम्हें वहाँ छोड़ दूँगा। एक महिला अपनी बेटी के साथ बच्चियों को कुछ खाने की सामग्री दे रही थी। एक नौजवान वहाँ खड़े लोगों और पुलिसवालों को बता रहा था कि आप लोग परेशान मत हो, ये 7-8 बच्चे इस इलाक़े में झुण्ड में भीख माँगने आते हैं, अभी इनके बाकी साथी आ जाएँगे। ऐसा ज्ञान देकर वो चले गए,  लेकिन लोग उनके जितने व्यावहारिक नहीं थे।  उनकी सहानुभूति उन बच्चियों के साथ थी।  मैंने पुलिसवालों से परिचय पूछा तो उन्होंने बताया कि वे पलासिया थाने से टीआइ संजय सिंह बैस साहब के आदेश से वहाँ आए थे।  ज़ाहिर है आइजी ऑफिस से पलासिया थाने फ़ोन पहुँचा होगा।  नौजवान पुलिस कॉन्स्टेबल्स ने बच्चियों से प्यार से पूछताछ की, लेकिन जिस तरह के काम में वे बच्चियाँ थीं उसमें उन मासूमों को पुलिस से डरना बहुत छोटी उम्र में ही सिखा दिया जाता होगा। वे और तेज़ रोने लगीं। आख़िरकार यह तय किया गया कि दोनों में से एक कांस्टेबल बच्चियों के पास रुकेंगे और दूसरे जाकर आसपास इन बच्चों के साथियों को तलाश करने की कोशिश करेंगे।  इसी बीच एक बच्ची ने अपने भाई का नंबर भी बताया जिससे सबके चेहरों पर राहत दिखी लेकिन, मेरे लगाने पर वो नंबर बंद निकला। राहत की जगह वापस परेशानी तारी हो गयी।

एक बच्ची कह रही थी कि उनका घर इंदौर में है और उन्हें कोई इंदौर पहुंचा दे।  हमारे ये कहने पर भी उन्हें कोई शांति नहीं मिल रही थी कि ये इंदौर ही है जहाँ हम खड़े हैं। रोते हुए वे कह रही थीं नहीं ये इंदौर नहीं, ये तो छप्पन दूकान है।  बच्चियाँ घबरा गयी थीं, उन्हें किसी बात से दिलासा नहीं मिल रही थी।  वे रोये जा रही थीं।  पुलिस की मौजूदगी से वे और घबरा गयी थीं। 

उन्हें बहुत प्यार से समझाया कि ये पुलिस आपको परेशान नहीं करेगी बल्कि घर छोड़ देगी, लेकिन वे उनके साथ जाने के लिए तैयार नहीं थीं। तभी उनमें से किसी ने बिचौली काँकड़ का नाम लिया। पुलिस की मौजूदगी से निश्चिन्त होकर करीब आधा घंटा वहाँ रूककर और अपना नंबर पुलिस वालों को देकर मैं वहां से चला आया। 

क़रीब एक घंटे बाद एक फ़ोन आया- सर, मैं पुलिस कांस्टेबल कन्हैयालाल दांगी बोल रहा हूँ। उन बच्चियों के साथ जो बड़ी बच्ची थी, वो आ गयी है। अब हम इन्हें इनके घर छोड़ने जा रहे हैं। दांगी जी ने उस बड़ी बच्ची से मेरी बात भी करवायी जिसे मैंने समझाया कि अपनी बहनों को ऐसे कभी अकेले छोड़कर मत जाया करो। ये कहने का मेरा साहस न हुआ कि भीख माँगना ग़लत बात है। ऐसा मत किया करो।  आप जब किसी को बेहतर ज़िंदगी का रास्ता नहीं दिखा सकते तो जीवन जीने की जो राह उसने चुनी है, उसके गलत-सही होने का फैसला भी हम करने वाले कौन होते हैं। 

बहरहाल, फिर क़रीब आधे घंटे बाद कांस्टेबल दांगी जी ने फ़ोन करके बताया – सर, बच्चियों को उनके घर पिपल्या हाना काँकड़ स्कीम नंबर 140 में छोड़ दिया है।  उनके माँ-पिता के साथ उनका फोटो खींच कर भी आपको भेज दिया है। मैंने फोटो देखा, और तब तक बच्चियों की फ़िक्र से परेशान अपनी पत्नी को दिखाया जिससे वो भी निश्चिन्त हुई, कांस्टेबल दांगी और कांस्टेबल रिंकू यादव का शुक्रिया अदा किया।  आइजी मिश्रजी को शुक्रिया का सन्देश भेजा।  फिर इस घटना के बारे में थोड़ा सोचा-

1. पुलिस में मानवीय मूल्यों को धारण करने वाले कर्मियों की प्रशंसा होनी चाहिए। 

2. प्रशासन को शहर में रहने वाले लोगों के लिए रोज़गार के प्रबंध भी सोचने चाहिए। शहर में रहने वाले हर नागरिक को मानवीय गरिमा के साथ अपनी रोजी-रोटी कमाने का अवसर मुहैया करवाना भी सरकार की ज़िम्मेदारी है। धर्मार्थ भोजन बाँटना, प्याऊ खोलना अच्छे काम हैं लेकिन ऐसी व्यवस्था कायम करना जहाँ किसी को भीख माँगने की आवश्यकता महसूस ही न हो, इससे बड़ा जनहित का काम कोई नहीं।  और जो ये मानते हैं कि लोग मक्कार हैं, वे तो भीख ही माँगना चाहते हैं क्योंकि इसमें कोई मेहनत नहीं लगती तो मुआफ़ कीजिए – दिन भर धूप, बरसात, ठण्ड में गाड़ियों के पीछे भागकर या चौराहों पर लोगों की गालियाँ सुनते हुए दिन भर के 100-200 रुपये कमाने में जितनी मेहनत लगती है, उससे कम में वे ठेला चला सकते हैं, बिल्डिंग पर काम कर सकते हैं या क्लर्क बन सकते हैं, अगर उन्हें ये मौका मुहैया करवाया जाए तो। 

3. साठ, 62 या 65 की उम्र में जो आर्थिक, मानसिक व शारीरिक रूप से सक्षम लोग रिटायर होकर पार्कों में घूमते और आध्यात्मिक सत्संगों में समय बिताते हैं, उनकी शेष स्वस्थ आयु का लाभ लेने के लिए वरिष्ठ नागरिक मंचों की सहायता से उनका गरिमामय योगदान लेना चाहिए कि वे अपने आसपास मौजूद गरीब बस्तियों के बच्चों को व्यावहारिक और रोज़गारोन्मुख शिक्षा देने का कार्यक्रम बनाएँ। इसके लिए तमाम शिक्षाविदों, गैर-सरकारी और सरकारी संगठनों और जाति-धर्म से ऊपर उठकर हर समुदाय के अधिकांश वरिष्ठजनों का सहयोग प्राप्त हो सकता है। 

अगर यह बात प्रशासन तक पहुँचती है और इस दिशा में कोई सार्थक पहल होती है तो इंदौर का नाम केवल बाहरी स्वच्छता के लिए ही नहीं, बल्कि समाज की आंतरिक स्वच्छता के लिए भी देश-दुनिया में जाना जा सकेगा। लेकिन इसके लिए सबसे ज़रूरी बात यही है कि शासन और प्रशासन की इच्छाशक्ति हो।  



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