कलंकित अतीत और धुँधला भविष्य: न्याय की तलाश में विमुक्त जन


शायद यह मेरी मजबूरी है या आत्मप्रशिक्षण का परिणाम, मुझे भारत का संविधान बहुत अच्छा लगता है। इसने एक ऐसे देश को बदलने का बीड़ा उठाया हुआ है जो अन्याय, हिंसा, बहिष्करण की हजार-हजार परतों को अपने ऊपर चढ़ाए हुए आगे बढ़ना चाहता है। यह कभी आगे बढ़ता है तो कभी मुँह के बल गिर पड़ता है। फिर भी अच्छी बात यह है कि यह देश चल रहा है- भविष्य की ओर। व्यक्तियों, समुदायों, नेताओं, अधिकारियों और सेठों के साथ कमजोर, गरीब, सताये और संतप्त लोग, अस्पृश्य और अपराधी करार दिए गए समूह लोकतंत्र के एक विशाल जुलूस में अपनी-अपनी गति से जा रहे हैं- एक दूसरे को धकियाते हुए, एक दूसरे से जगह माँगते हुए, अपनी जगह बनाते हुए। कुछ को जगह मिल जा रही है, कुछ को आवाज उठाने का मौका और वे लोकतंत्र से उपजी सत्ता में थोड़ी सी भागीदारी पा जा रहे हैं। कुछ को यह मौका नहीं मिल पा रहा है।

भारत का लोकतांत्रीकरण कई तरीके से हुआ है। आज़ादी की लड़ाई की विरासत से निकले विभिन्न दलों, व्यक्तियों, विचारों ने इसका लोकतांत्रीकरण किया है। आज़ादी के बाद उन समूहों ने अपनी आवाज़ बुलंद की है जो पीछे छूटते गए थे जैसे महिलाएं, आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्गों के समुदाय। उनकी पार्टियाँ बनीं, नेता उपजे, कुछ आगे गए, कुछ बिला गए, लेकिन एक ऐसा समूह भी है जो अपनी आवाज़ लोकतंत्र की रंगशाला में प्रस्तुत नहीं कर पाया। उसके पास राजनीति को ‘परफ़ॉर्म’ करने वाला कोई बड़ा दल और नेता नहीं हुआ।

उन्हें आजकल ‘विमुक्त’ समुदाय कहते हैं। ‘विमुक्त’ समुदाय के यह लोग कौन हैं?

यह वे लोग हैं जिनकी संख्या 1946 में एक करोड़ थी और जो जन्मजात आपराधी माने जाते थे। जब देश आज़ाद नहीं हुआ था, उसके ठीक पहले भारत की संविधान सभा में जो बहस हो रही थी, उसमें सेंट्रल प्रोविंस और बरार से आए एच. जे. खांडेकर ने बड़ी ही व्यग्रता से उनकी बात रखी। 21 जनवरी 1947 को उन्होंने उन ‘एक करोड़ लोगों की बात उठायी जो जो जन्म लेते ही बिना किसी जुल्म के जरायमपेशा मान लिए जाते हैं’। उन्होंने इस समुदाय के लिए सुरक्षात्मक उपाय लागू करने की अपील की।

लोकतंत्र में हिस्सेदारी और आज़ादी के अनुभव: घुमंतू और विमुक्त जन का संदर्भ

तब जवाहरलाल नेहरू के ‘उद्देश्यों के प्रस्ताव’ पर बहस हो रही थी। 21 नवम्बर 1949 को एक बार फिर उन्होंने इस मुद्दे की तरफ संविधान सभा का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि इस संविधान के अधीन बोलने की आजादी और कहीं भी आने-जाने की आजादी तो दी जा रही है लेकिन देश के एक करोड़ अभागे नागरिकों को आने-जाने की आजादी नहीं है। यहां के अपराधी जनजातियों को कहीं भी आने-जाने की सुविधा अभी प्राप्त नहीं है। इस संविधान में इनके बारे में कुछ नहीं कहा गया है। क्या शासन ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ को हटाकर उन लोगों को स्वतंत्रता प्रदान करेगा?

इससे थोड़ा पहले उसी साल, 28 सितम्बर 1949 को गृह मंत्रालय ने अनंतशयनम अयंगर की अध्यक्षता में एक ‘क्रिमिनल ट्राइब्स इनक्वायरी कमेटी’ का गठन किया और 1950 में जब इसकी रिपोर्ट आयी तो इन समुदायों का दुर्भाग्य देखिए कि एक बार फिर कहा गया कि यह समुदाय बस तो जाएंगे लेकिन अपराध करते रहेंगे। इसलिए उन्हें ‘आदतन अपराधी’ अधिनियम में पाबन्द किया जाय। साथ ही उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए ईमानदारी और कर्मठता के जीवन में लाने की बात की गयी। पूरे भारत में 31 अगस्त 1952 में क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट समाप्त कर दिया गया। इसी की याद में ‘विमुक्त दिवस’ मनाया जाता है।

यह ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ क्या था?

‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ 12 अक्टूबर 1871 को पास किया गया था। इस एक्ट से देश की एक बड़ी जनसंख्या को आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया गया। आपराधिक जनजाति घोषित करने का काम प्रशासन को दिया गया था। जब उसके ‘पास पर्याप्त कारण’ हो जाते थे तो किसी जिले का जिलाधिकारी यह घोषणा कर देता था। इसके पहले थाने की रिपोर्ट जाती थी। अपराधी घोषित किए जाने वाले समुदाय के बालिग लोगों, यानि 14 वर्ष से ऊपर के लोगों की गिनती होती थी। उनके आपराधिक रिकार्डों की वर्गीकृत सूची तैयार करके किसी थाने के अधीन आने वाले समुदाय की घोषणा हो जाती थी।

1871 से लेकर 1921 के बीच कम से कम 190 के करीब समुदाय इस कानून की निगहबानी में ले आए गए। 1947 में जब देश आज़ाद हुआ तो केवल तब उत्तर प्रदेश में पूरे भारत की ‘क्रिमिनल ट्राइब’ की जनसंख्या का 40 प्रतिशत निवास कर रहा था। 1500,000 लोग उत्तर प्रदेश में इस श्रेणी मे चिन्हित किए गए थे। यह समुदाय ‘मुख्य धारा के समुदाय की संरचना में अवांछित’ करार दिए गए थे। जी. एन. देवी का मानना है कि इंग्लैण्ड और यूरोप में भी घुमंतुओं के प्रति एक अलग नजरिया काम कर रहा था। उन्हें कम प्रतिष्ठा प्राप्त थी, इसका कारण सत्रहवीं सदी में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच जारी युद्धों में बड़ी संख्या में सैनिक रखने और उन्हें वेतन देने के लिए बहुत सारे धन की जरूरत थी। धन जुटाने के लिए उन्होंने कर संग्रह के प्रारूप में बदलाव किया। पहले उपजाऊ फसलों पर कर लेने का प्रावधान था लेकिन अब भूमि मापन के आधार पर कर आरोपण किया गया। जो कर अदा कर सकते थे समाज में उनकी इज्जत थी और जो भूमिहीन थे, कर नहीं अदा कर सकते थे, समाज में उनकी इज्जत कम होने लगी। भूमिहीन वैकल्पिक समुदायों की भी समाज में इज्जत इतनी कम हो गयी कि इन्हें संशय की दृष्टि से देखा जाने लगा।

यूरोप के जिप्सी समुदाय को वहां बहुत प्रताड़ना सहनी पड़ी। इस बात का असर औपनिवेशिक भारत में अंग्रेज प्रशासकों पर भी हुआ। उसके परिणामस्वरूप घुमन्तू जनों को आपराधिक जनजाति सूची में रख दिया गया। इस एक्ट को पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, पंजाब और अवध में लागू किया गया।

इस एक्ट ने पुलिस को बहुत अधिकार दिए। समुदायों को पुलिस थाने में जाकर अपना पंजीकरण करवाना होता था। पुलिस उन्हें एक लाइसेंस देती थी। वे पुलिस की अनुमति के बिना जिले से बाहर नहीं जा सकते थे। यदि वे अपना स्थान बदलते तो इसकी सूचना पुलिस को देनी होती थी। बिना पुलिस की अनुमति से यदि समुदाय का कोई सदस्य एक से अधिक बार अपनी बस्ती या गाँव से अनुपस्थित रहता था तो उसे तीन वर्ष तक का कठोर कारावास का भागीदार होना पड़ता था।

उनके लिए स्पेशल रिफॉर्म कैंप की भी व्यवस्था की गयी जिसमें उन्हें सुधारा जाना होता था। उत्तर प्रदेश में इस प्रकार के रिफॉर्म कैम्प इलाहाबाद, खीरी, बाँदा और कानपुर में खोले गए। इन स्कूलों को खोलने में सॉल्वेशन आर्मी की भूमिका थी। इलाहाबाद के फूलपुर में ऐसा ही एक स्कूल खोला गया था जिसके बारे में 1937 में प्रकाशित शालिग्राम श्रीवास्तव की किताब बताती है कि वहां ‘चोरी-बदमाशी पेशावालों की लड़कियां’ सिलाई-कढ़ाई का काम सीखती थीं।

उत्तर प्रदेश में सॉल्वेशन आर्मी का मुख्य केंद्र बरेली जिले में था। उसका मुख्यालय मॉल रोड शिमला में था। सॉल्वेशन आर्मी यही काम श्रीलंका में भी करती थी। ब्रिटिश उपनिवेश द्वारा यह मानकर चला जा रहा था कि भारत के यह समुदाय पतित हो गए हैं और उन्हें एक नये किस्म के नैतिक शास्त्र की आवश्यकता है। सॉल्वेशन आर्मी इसमें ब्रिटिश उपनिवेश की सहायता कर रही थी। यह दोनों के लिए फायदे का सौदा होता था। सॉल्वेशन आर्मी को धर्म प्रचार में सहायता मिलती थी और उपनिवेश को बिना पैसा खर्च किए अपनी प्रजा में ‘ब्रिटिश नैतिक शास्त्र’ को बढ़ावा देने का अवसर मिल जाता था।

खीरी में खोले गए कैम्प में सॉल्वेशन आर्मी को ब्रिटिश सरकार की काफी सहायता मिली। मुरादाबाद के सांसी समुदाय के लोगों को खीरी लाया गया। इसी प्रकार एटा के भाटू काशीपुर में बसाए गए। सरकार भाटू जनों पर विशेष ध्यान दे रही थी क्योंकि वे ‘बेकाबू’ हो रहे थे। 1871 के क्रिमिनल ट्राइब्स  एक्ट से स्थानीय जमींदारों को भी जोड़ दिया गया। जमींदारों को न केवल पंजीकरण में पुलिस की सहायता करनी होती थी बल्कि वे पंजीकृत समुदायों के सदस्यों की खोज-खबर भी रखते थे। समुदाय की ‘पहचान’ निर्धारित करने का अधिकार उच्च अधिकारियों को दिया गया। 

Source: Idate Commission Report

उत्तर प्रदेश में गोंडा जिले के बरवार समुदाय को 1 जुलाई 1884 को आपराधिक जनजाति घोषित किया गया। उनकी बस्तियों को चिन्हित किया गया और उनकी संख्या को दर्ज किया गया। उत्तर प्रदेश के इंस्पेक्टर जनरल की रिपोर्ट में लिखा गया कि यह ‘विश्वास करने के पर्याप्त कारण’ हैं कि गोंडा के बरवार, एटा के अहेरिया और ललितपुर के सुनरहिया समुदाय को अपराधी घोषित कर दिया जाए। क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट के घोषित होने के दो वर्ष बाद ही 1873 में ग्यारह गाँवों के 48 अहेरिया परिवारों को इसके अधीन अपराधी घोषित कर दिया गया। अलीग़ढ़ के अहेरिया समुदाय के लोगों के साथ भी यही हुआ। गोरखपुर के डोम 1880 के बाद इस कानून की जड़ में आए और उन्हें अपराधी घोषित किया गया। इसी प्रकार बस्ती जिले के पुलिस अधीक्षक ई. जे. डब्ल्यू. बेलेयर्स की 1913 की एक रिपोर्ट बताती है कि अगस्त 1911 में परसुरामपुर थाने के एक दर्जन के करीब गाँव अपराधी घोषित किए गए। इन गाँवों में खटिक समुदाय के लोग रहते थे।

अफ़ीम और सुधारगृह

दुनिया को नशेड़ी चलाते हैं। यह बात उन्हें पता रहती है इसलिए उन्हें नशा और तेजी से चढ़ता है। अगर यह नशा अफ़ीम का हो तो क्या कहने! जिन्होंने अमिताभ घोष का उपन्यास ‘सी ऑफ़ पॉपीज’ पढ़ी होगी या जिन्होंने वास्तव में अफ़ीम खायी होगी, वे इसे जानते होंगे। तो हुआ यह कि जब भारत के अंदर पैदा होने वाली अफ़ीम चीन के समाज की सेहत को बहुत तेजी से नष्ट करने लगी तो चीन और ब्रिटेन में खूब लड़ाई हुई। इसका कारण यह था कि भारत पर ब्रिटेन का कब्जा था। भारत के खेतों में अफ़ीम उगायी जाती और चीनी जनता अफ़ीम चाटती।

इन दोनों देशों के बीच युद्ध के कारण नयी अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकताओं और सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों के कारण अफ़ीम का व्यपार ढीला पड़ने लगा। इसके कारण गोरखपुर, बनारस, फूलपुर,कानपुर और बांदा के अफ़ीम गोदाम खाली होने लगे, हालाँकि वे अभी इतने खाली भी नहीं हुए थे। (मैंने अभी उत्तर प्रदेश से बाहर के बारे में कोई अध्ययन नहीं किया है। हो सकता है कि यह कहानी बिहार और मध्य प्रदेश की भी हो!)

अब इन खाली गोदामों में सॉल्वेशन आर्मी के अनुरोध पर ‘सेंट्रल प्रोविंसेज’ के अधिकारी अफ़ीम एजेंटों से अनुरोध करने लगे कि वे अपने खाली गोदामों को ‘सुधार और औद्योगिक स्कूल’ चलाने के लिए दे दें। कुछ अफ़ीम एजेंटों ने मना कर दिया। कुछ नहीं कर सके। फूलपुर, कानपुर और बांदा के अफ़ीम गोदामों में ऐसे ‘सुधार और औद्योगिक स्कूल’ खोले गए जिनमें आपराधिक समुदायों के बालक-बालिकाओं को दाखिल किया जाने लगा।

जिस तरह से आस्ट्रेलिया में वहां के मूल निवासियों के बच्चों को जबरदस्ती आवासीय विद्यालयों में भर्ती किया गया था, वैसे ही भारत में किया गया। इन बच्चों और किशोरों को अपार कष्ट और सदमे को सहना पड़ा। आस्ट्रेलिया में तो वहां के नेता केविन रुड ने माफी माँग ली थी। भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ। वास्तव में भारत में किसी को यह पता भी तो नहीं है कि ऐसा कुछ हुआ भी था। यह एक किस्म का चयनात्मक एमनीशिया है।   

हमारी आज़ादी कहां है?

यह सवाल शहरी भारत की महिलाएं, लेस्बियन, गे, ट्रांसजेंडर और वैकल्पिक सेक्सुअल अस्मिताओं के समूह, लिबरल, डेमोक्रेट, सेकुलर, राष्ट्रवादी और कम्युनिस्ट सभी आपस में पूछते रहते हैं और उसका आपस में जवाब भी ढूँढ लेते हैं। इस बार इन सभी समूहों से यही सवाल घुमंतू और विमुक्त जन पूछ रहे हैं कि हमारी आज़ादी कहां है? आखिर हमारी बात कब सुनी जाएगी?

इदाते कमीशन ने माना है कि इन समुदायों की जनगणना कराने की आवश्यकता है; Page 115, Idate Commission Report

क्रिमिनल ट्राइब एक्ट के लागू हुए 150 वर्ष हो गए हैं। उन पर कुछ चुनिंदा काम ही उपलब्ध आए हैं। एक अनुमान के मुताबिक 100 में से 6 लोग विमुक्त समुदायों से जुड़े हैं। इनकी बेहतरी के लिए गठित रेणके कमीशन और इदाते कमीशन दोनों ने माना है कि यह समुदाय गरीबों में भी सबसे गरीब हैं। इनकी ठीक-ठीक से जनसंख्या नहीं पता है। इनकी जनगणना होनी चाहिए। आजकल ‘कास्ट सेंसस’ की काफी चर्चा है। ओबीसी समूहों ने इसके लिए व्यापक लामबंदी की है, लेकिन यहां ध्यान रखना चाहिए कि इदाते कमीशन ने स्वयं माना है कि मुख्य जनसंख्या के साथ इन समुदायों की जनगणना कराने की आवश्यकता है। अब यह समूह राजनीति और लोकतंत्र के दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं। देश की 94 प्रतिशत जनसंख्या को इनकी आवाज सुनने की जरूरत है।

आज यानि 31 अगस्त 2021 को देश की जानी-मानी पत्रिका ‘इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ इन समुदायों के इतिहास, राजनीति और भविष्य पर एक ऑनलाइन विशेषांक लाने जा रही है। धीरे-धीरे ही सही, इन समुदायों पर बात हो रही है। आपको भी करनी चाहिए। इन समुदायों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानिए। वे सब आपके भाई-बहन हैं, उनसे प्यार कीजिए। उनकी सहायता कीजिए। उनको हर तरह का न्याय मिले, इसमें मदद दीजिए।


लेखक इतिहास के अध्येता हैं, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फ़ेलो रह चुके हैं और विमुक्त जन के विशेषज्ञ हैं।

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