“घुमन्तू जातियों का दर्द समझने की क्षमता इस देश ने खो दी है”: गणेश एन. देवी का व्याख्यान


जनवादी लेखक संघ, इलाहाबाद ने शुक्रवार को अपने फेसबुक पेज पर प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री, भाषा विज्ञानी और विद्वान श्री गणेश एन. देवी का एक लेक्चर लाइव प्रसारित किया था। यह व्याख्यान भारत की घुमंतू जातियों पर केंद्रित था। यह व्याख्यान अंकेश कुमार, शोधार्थी, राजनीति विज्ञान, इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने लिपिबद्ध किया है। अंकेश घुमंतू समुदायों की राजनीति पर शोध कर रहे हैं। पूरा लेक्चर लेख के अंत में दिए वीडियो में सुना जा सकता है।

संपादक

जब मैं छोटा था तो  रेडियो पर हेमंत कुमार मुखर्जी का गीत ‘जनम-जनम से बंजारा हूँ’ सुनता था। इसे सुनकर ऐसा लगता था कि हाथ में इकतारा लिए बंजारों का जीवन कितना स्वच्छंद और कितना आजाद होगा। कॉलेज के दिनों में मैंने लार्ड बायरन की कविताएं पढ़ीं तो लगा कि ये घुमंतू लोग हर तरह की पीड़ा से आजाद होंगे। मैंने घुमंतुओं के जीवन को बहुत रोमांटिक समझा। अपने गांव में मैंने उन्हें इकतारा लेकर गाना गाते हुए, अजीब तरह के कपड़ों में और अनोखी बोली बोलते हुए देखा।

1970 के दशक में पहली बार मैंने लक्ष्मण माने की ‘बहिष्कृत’ और लक्ष्मण गायकवाड़ की मराठी में लिखी ‘उचल्या-उचक्का’ किताबें पढ़ीं तो उनमें अलग सी भाषा थी, घुमंतुओं के अलग शब्दों के बारे में पता चला। अब तक मुझे यह समझ आने लगा था कि बहुत अलग तरीके से रहने वाले और अलग भाषा बोलने वाले इन घुमंतू लोगों की जिंदगी में परेशानियां हैं, उनका दर्द है, अपनी कथा है।

मैंने विश्वविद्यालय में कंजार-भाट समुदाय के कुछ बच्चों के साथ काम शुरू किया था। ये बच्चे रास्तों से चोरी-छिपे निकलते थे। उनको अपनी जाति पहचाने जाने और पुलिस से पकड़े जाने का डर रहता था। मैं यह  समझ नहीं पाता था कि इतना डर इन बच्चों में कहां से आया? न तो बच्चे और न ही उनके माँ-बाप इस विषय में कुछ भी बोलना पसन्द करते थे। मैंने अस्सी के दशक में घुमंतू समुदायों का इतिहास पढ़ा कि वे कौन हैं, कहां से आए और उनकी स्थिति क्या है? और नब्बे के दशक में महाश्वेता देवी से मुलाकात की जिनकी इन समुदायों के जीवन में आस्था थी और जो पश्चिम बंगाल में ‘सबर’ नामक समुदाय के लिए काम कर रही थीं।

उसी दौर में मैंने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर घुमन्तुओं के लिए काम करना शुरू किया जिनमें मेरे बहुत ही प्यारे और स्वर्गवासी दोस्त आत्माराम राठौर जो कि खुद बंजारा समुदाय से थे और उत्तरी महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश में बंजारों के लिए काम कर रहे थे। लक्ष्मण गायकवाड़ महाराष्ट्र, महाश्वेता देवी पश्चिम बंगाल तथा कांजी पटेल और मैंने गुजरात में घुमंतू समुदायों की जानकारी जुटाने पर काम किया। आत्माराम राठौड़ ने उत्तर महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश सहित पूरे देश के बंजारा समाज की जानकारी इकट्ठा की।

ये सभी लोग अपने-अपने राज्यों में काम कर रहे थे लेकिन जब सबने अपने द्वारा जुटाई गई जानकारियों को एक दूसरे से साझा किया तो घुमन्तू समुदायों की एक संपूर्ण कथा हमारे सामने खुल गयी। हम अंदर से हिल गए।

उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजों ने भारतीय राजाओं के बिखरे हुए सैनिकों को निशस्त्र बनाने के उद्देश्य से उनकी सूची तैयार करानी शुरू की। ऐसी सूची में जिन समुदायों के नाम आये उन्हें आपराधिक जनजाति की सूची में रख दिया गया। आपराधिक जनजाति अधिनियम 1871 के तहत यह सूची तैयार की गई थी, लेकिन इस सूचीकरण की शुरूआत इससे तीस-चालीस साल पहले हो गयी थी जब स्लीमन नामक एक अंग्रेज अफसर ने मध्य भारत में भोपाल से लेकर कलकत्ता तक के अपने करीब बीस साल के काम में कई समुदायों का उल्लेख किया था। पत्थलकार, मूर्ति बनाने वाले, पशुओं का नाच दिखाने वाले, पक्षियों का शिकार करने वाले समुदायों को इस सूची में शामिल कर लिया गया था और इनको सेटलमेंट्स (रहवासों) में रखा गया था जहां से बाहर जाने की अनुमति इन्हें नहीं थी तथा कई तरह की परेशानियों का सामना भी करना पड़ता था।

हम यह सोच रहे थे कि अंग्रेजों ने ऐसा क्यों किया? क्या इसकी वजह सिर्फ अंग्रेजों की बेरहमी थी या अंग्रेजों की सत्ता को घुमंतुओं से कोई खतरा था?  या इसका कोई कारण है?

इतिहास देखने पर यह बात सामने आयी कि इंग्लैण्ड और यूरोप में भी घुमंतुओं की तरफ देखने का रवैया अलग था। उन्हें कम प्रतिष्ठा प्राप्त थी। इसका कारण सत्रहवीं सदी में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच जारी युद्धों में बड़ी संख्या में सैनिक रखने और उन्हें वेतन देने के लिए बहुत सारे धन की जरूरत थी। धन जुटाने के लिए  उन्होंने कर संग्रह के प्रारूप में बदलाव किया। पहले उपजाऊ फसलों पर कर का प्रावधान था लेकिन अब भूमि मापन के आधार पर कर आरोपण किया गया। जो कर अदा कर सकते थे, समाज में उनकी इज्जत थी और जो भूमिहीन थे, कर अदा नहीं कर सकते थे, समाज में उनकी इज्जत कम होने लगी।

भूमिहीन घुमंतुओं की भी समाज में इज्जत इतनी कम हो गयी कि इन्हें संशय की दृष्टि से देखा जाने लगा। यूरोप के जिप्सी समुदाय को वहां प्रताड़ना सहना पड़ रहा था इस बात का असर यहां औपनिवेशिक भारत में अंग्रेज प्रशासकों पर भी हुआ। उसके परिणामस्वरूप घुमन्तू लोगों को आपराधिक जनजाति सूची में रख दिया गया।

आजादी के बाद 1952 में इनको विमुक्त किया गया। विमुक्त, घुमंतू और अर्धघुमंतू समुदायों की कुल आबादी आज 12-13 करोड़ के लगभग है, लेकिन आजादी के इतने साल बाद भी इनके पास न रहने को घर है, न पढ़ने के लिए स्कूलों तक पहुँच है। पूरा समाज इन्हें अपराधी की नजर से देखता है। देहात के कई इलाकों में तो संशय की वजह इन समुदायों के व्यक्तियों की मॉब लिंचिंग तक होती रही है। हमारे समाज में सबसे ज्यादा जुल्म अगर किसी विशिष्ट तबके पर ढहाया गया है तो इनमें अनुसूचित जातियों के साथ विमुक्त-घूमंतू समुदाय सबसे आगे है।

संविधान के लागू होने के बावजूद आज भी इन्हें सभी नागरिक अधिकार नहीं मिले हैं और आवश्यक दस्तावेज, शिक्षा आदि प्राप्त करने में इन्हें बहुत दिक्कत आती है। इन्हें कोई व्यवसाय प्राप्त करने में दिक्कत होती है, फिर भी किसी तरह से ये अपनी जिंदगी जी रहे हैं।  सरकार इनकी कोई मदद नहीं कर रही है तो सरकार से मदद की कोई अपेक्षा किये बिना ही ये अपने रास्ते तलाश रहे हैं।

आज मेक इन इंडिया की बातें हो रही हैं लेकिन घुमन्तूओं ने बहुत पहले से इसे सीखा और चलाया है। कोरोना महामारी के दौरान प्रवासी मजदूरों की जो हालत हुई है वह आधुनिक इतिहास का एक काला पन्ना है। मजदूरों को भूखे-प्यासे मरने के लिए छोड़ दिया गया। इसके पीछे वही औपनिवेशिक रवैया है जो अंग्रेजों ने उन्नीसवीं सदी के अंत में घुमंतुओं के प्रति दिखाया था। अगर कोई सरकार महामारी के समय मे मजदूरों की दुर्दशा देखने के बाद भी वैश्विक जगत में अपना गुणगान कर रही है तो हम कह सकते हैं कि उसकी संवेदना मर चुकी है।

गीतों और सिनेमा में घुमंतुओं के जीवन को देखकर बहुत अच्छा लगता है। बीन की धुन पर कोई नाचता है तो अच्छा लगता है कि एक अच्छी कला आविष्कृत हुई है लेकिन जिन्हें साल के बारहों मास और सप्ताह के सातों दिन यही काम करने की सजा मिली है उनके लिए यह न कोई सिनेमा है, न कोई गाना है, न कोई कला है, न कोई आनंद है। यह केवल सज़ा है।

दिसम्बर में आये नागरिकता संशोधन विधेयक में बांग्लादेश में रह रहे अल्पसंख्यक प्रवासी जनजाति समूहों जिसमें म्रउ, गारो, खासी, चकमा, करेन जैसे बारह या चौदह छोटे-छोटे समूह जो बांग्लादेश से भारत की सीमा में आते-जाते रहे हैं, का कोई जिक्र इस विधेयक में नहीं था। हमने इनको वो विकल्प क्यों नहीं दिया जो बांग्लादेश के अन्य अल्पसंख्यकों को दिया। ब्रह्मपुत्र के बहाव के रास्ते बदलते रहते हैं। इससे इसके किनारे रहने वाले लोग हज़ारों सालों से एक जगह से दूसरी जगह प्रवास करते रहते हैं। कभी ये बांग्लादेश, कभी म्यांमार तो कभी असम में आते-जाते रहते हैं। इस कानून में इनके बारे में कोई ध्यान नहीं दिया गया।

करीब दो साल पहले कश्मीर में आठ साल की एक बकरवाल समुदाय की लड़की का बलात्कार किया गया और बलात्कारियों को नहीं पकड़ा गया। इसके पीछे एक वजह यह भी थी कि लड़की घुमंतू समुदाय की थी। घुमंतुओं के साथ प्रशासन का रवैया ठीक नहीं होता है।

घुमन्तू जातियों के दर्द को समझने की क्षमता इस देश के ज्यादातर नागरिकों ने खो दी है और इनके लिए कोई न्याय हो, इस संबंध में सारी उम्मीदों को भारत सरकार ने नकार दिया है। हमारा पिछले अस्सी साल का इतिहास अगर हमें दिखाई देता है और हमारे सीने में अगर कलेजा है तो शर्म से हमें अपनी गर्दन झुका लेनी चाहिए। जय हिंद बोलना चाहता हूं लेकिन अगर हमारे देश में घुमंतू समुदायों को इज्जत मिले, तो और गर्व से जय हिंद बोल पाऊंगा।


यही व्याख्यान नीचे देखें और सुनें



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