‘’मेरी दो महत्त्वाकांक्षाएँ हैं।’’ वहाँ ‘हैं’ के बाद पूर्णविराम नहीं है, लेकिन यहाँ मैंने लगा दिया। कारण बताए दे रहा हूँ। इन्वर्टेड कॉमा की सलाखों में कैद पंक्ति मैंने एक रचना से हूबहू ‘कॉपी’ की। उस रचना में ‘हैं’ के बाद कॉमा है। कॉमा के बाद दोनों महत्त्वाकांक्षाओं के बारे में कहा गया है। कॉपी करने के बारे में पहले इसलिए बता दिया कि बाद में आरोप न लगे- ये तो अमुक की कॉपी है। कॉपी के आरोप से खुश हो जाऊँगा। कॉपी मुझे इलीट होने का बोध कराएगी। अंग्रेजी शब्द जो है। अगर कोई चोरी का आरोप लगाए और चोर कहे, तब भी सीनाजोरी करूँगा। हजार-दस हजार करोड़ की चोरी को ‘करप्शन’ कहा जाता है। दस-बीस रूपये की चोरी को चोरी कहा जाता है। बड़ी चोरी करने वाला ‘करप्ट’ होता है। छोटी चोरी करने वाला चोर। करप्ट एलिट वर्ग से है, तो हजार-दस हजार करोड़ की चोरी करने के बाद भी उसका वर्ग नहीं बदलता। वो कैपिटलिस्ट ही रहता है। दस-बीस रूपए की चोरी करने वाले का वर्ग बदल जाता है। वो जेल की सलाखों में कैद हो जाता है- मारा सारे के। चोर हव।
राम मनोहर लोहिया उचित कह गए- ‘‘द्विज लाख की चोरी करके भी उसे आदर्शवाद का अमलीजामा पहना सकता है, जबकि शूद्र अठन्नी-चवन्नी की चोरी में भी बुरी तरह पकड़ा जाता है।’’ मार्क्सवादी भी आज तक कैपिटलिस्ट का वर्ग नहीं बदल पाए। एक पंक्ति के लिए मुझे चोर घोषित किया गया, तो मार्क्सवाद की अदालत में जाऊँगा। गुहार लगाऊँगा कि मेरा वर्ग न बदला जाए। चोरी की जगह कॉपी कहा जाए।
मुझ पर चोरी का आरोप सिर्फ इसलिए लगेगा कि मैंने लगभग पच्चीस सौ शब्दों में से चार (गिनकर) शब्द कॉपी किए? क्या मेरी भी दो महत्त्वाकांक्षाएँ नहीं हो सकतीं? कहीं इसका विधान किया गया है कि मेरी दो महत्त्वाकांक्षाएँ नहीं हो सकतीं? या तो एक हो या दो से अधिक हों! मैं तो समानता के अधिकार का पालन कर रहा हूँ। इसलिए दो ही महत्त्वाकांक्षाएँ रखीं। दो महत्त्वाकांक्षाओं पर अँगुली इसलिए उठेगी क्योंकि मैंने समानता के अधिकार का पालन करने की जुर्रत कैसे कर दी! जबकि एक ही काम करने वालों के दो वर्ग- एक कैपिटलिस्ट, दूसरा चोर! या तो कैपिटलिस्ट को भी चोर कहने का अध्यादेश जारी किया जाए। या चोर को भी कैपिटलिस्ट कहने का अध्यादेश जारी किया जाए। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक मैं नहीं मानूँगा। दो ही महत्त्वाकांक्षाएँ रखूँगा। भले ही मुझे चोर कहा जाए।
पता ही होगा, चोर चोरी से भले चला जाए, सीनाजोरी से नहीं जाता। देश के बैंकों से हजारों करोड़ की चोरी करने वाले चोर विदेश भाग गए। वहाँ से सरकार के साथ सीनाजोरी कर रहे हैं। दस-बीस रूपए की चोरी करने वाले सीनाजोरी क्या करेंगे। उनके थानाक्षेत्र में कहीं भी चोरी हो, थानेदार साहब तगादा करने के लिए बुला लेते हैं- ‘‘तुमने चोरी की?” “नहीं साहब, चोरी लाखों की है। अभी मेरा वर्ग दो अंकों तक ही है। पिछली पीढ़ियों से दो अंक में ही बना ही हुआ है। आपको भरोसा दिलाता हूँ कि आगे की पीढ़ियाँ भी दो अंकों में ही बनी रहेंगी। मुझे समानता के अधिकार पर पूरा भरोसा है। आप भी भरोसा करते हुए मुझे आरोपमुक्त कीजिए।’’
हजारों करोड़ की चोरी करने वाले चोरों को जो लम्बे हाथ पकड़ते हैं, उन हाथों की लम्बाई सरकार ने काट दी है। अपने कटे हाथों को जोड़ने के लिए पुलिस दो अंक वाले वर्ग के हाथ-पैर में कील ठोक रही है। पुलिस को लगता है, वो ईसा मसीह का निर्माण कर रही है। ईसा मसीह आ जाएंगे, तो उनके कटे हाथों को फूँक मारकर जोड़ देंगे।
मैं चोर, ऊपर से सीनाजोर। इसलिए बता कर चोरी कर रहा हूँ। मुझे पकड़े जाने का डर नहीं है। जिनकी पंक्ति चोरी की है, उनका देहावसान हो चुका है। प्रकाशक की तरफ से निश्चिंत हूँ। वो मेरे खिलाफ कॉपीराइट के उल्लंघन का प्रकरण दर्ज नहीं करेगा। हाल ही में कॉपीराइट उल्लंघन का एक प्रकरण हुआ था। मौखिक था या लिखित, इसकी स्पष्ट जानकारी नहीं है। कॉपी किए गए कंटेंट की बाबत लेखक की तरफ से बताया गया कि एक वेब सीरिज का तीस फीसदी हिस्सा उसके उपन्यास से ‘इंस्पायर्ड’ है। प्रकाशक की तरफ से कंटेंट चोरी के खिलाफ क्या पहल हुई, इसकी भी जानकारी नहीं है। प्रकाशक को इन लफड़ों में नहीं पड़ना चाहिए। माल प्रकाशक के गोदाम से ही चोरी हुआ, फिर भी प्रकाशक को निश्चिंत रहना चाहिए। लेखक अपनी लड़ाई लड़े। लेखक को प्रकाशक से नहीं लड़ना चाहिए। नहीं तो प्रकाशक खूँटा उखाड़ देगा- “तुमको बहुत दूह चुका। बिसुक गए हो। अब डांगर के भाव बिकोगे।“ कुछ दुधारू सींग वाले होते हैं। उनको अपने खूँटे से बाँधते समय प्रकाशक को सावधानी बरतनी चाहिए। उन्हें सोने के पगहे (रस्सी) से बाँधना चाहिए। मुँह पर चाँदी का खोता (मास्क) लगा देना चाहिए- “जिस सुर में कहूँ, उस सुर में रम्भाना”।
मैंने चार (गिनकर) शब्द चोरी किए हैं। पच्चीस सौ शब्दों में से चार शब्द। अर्थात मूल कंटेंट से मेरी चोरी का प्रतिशत 0.16 है। चोरी का प्रतिशत दशमलव में भी दो ही अंक में आया। अगर लेखक जीवित होता और मेरे खिलाफ कंटेंट चोरी का प्रकरण दर्ज करता, तो मैं निश्चित ही हार जाता क्योंकि आर्थिक उपनिवेश की सभ्यता में किसी की सिर्फ दो ही महत्त्वाकांक्षाएँ नहीं हो सकतीं। लेखक ने जिस दौर में लिखा था, उस दौर में सिर्फ दो हो सकती थीं। अदालत फैसला सुनाएगी- ‘‘उस दौर की आर्थिक परिस्थितियों और चोरी के प्रतिशत को देखते हुए चोर को आदेश दिया जाता है कि वो मूल लेखक को जुर्माने के तौर पर दहाई अंकों में राशि अदा करे।’’ जुर्माने की राशि में भी सिर्फ दो अंक? हाय रे मेरा वर्ग!
मैं चाहूँ तो अपनी दो महत्त्वाकांक्षाओं के बारे में बताकर साबित कर सकता हूँ कि इस दौर में भी सिर्फ दो महत्त्वाकांक्षाएँ हो सकती हैं, लेकिन मुझे चोर घोषित किए जाने के अधिकार के बारे में ऊपर लिख चुका हूँ। इसलिए हर्जाने से बचने के लिए अदालत को सच नहीं बताऊँगा। दो अंक के हर्जाने से अधिक वकील की फीस तीन अंकों में लगेगी। वो कहाँ से लाऊँगा?
मेरी सिर्फ दो ही महत्त्वाकांक्षाएँ हैं। दो सिर्फ इसलिए हैं कि मैंने जिन दोनों इच्छाओं को कॉपी किया है, उनका कायांतरण कर दिया है। कायांतरण में अनेक इच्छाएँ छुपी हुई हैं। ‘साइलेंट’ बनकर। हो सकता है दूसरों की अनेक इच्छाएँ हों। वे इच्छाओं के कायांतरण के बारे में नहीं जानते होंगे। उन्हें इच्छाओं की व्याख्या को शीर्षक के रूप में लिखने नहीं आता हो। कुछ इच्छाओं के बारे में तो मैं जानता भी हूँ- पॉपुलर बनने की, बेस्टसेलर बनने की, रिच बनने की, साइलेंट सेठ बनने की, बॉस बनने की, करप्ट बनने की, आदि आदि। मेरी दो ही हैं। उन दोनों में छुपे साइलेंट की कृपा हुई, तो मैं बाकी सब भी बन जाऊँगा।
पहली महत्त्वाकांक्षा है- ऑटोग्राफ। लेने की नहीं, देने की। मेरा ऑटोग्राफ, ऑटोग्राफ न हो, परफ्यूम हो। जिस गली से काले कपड़े पहनकर गुजरूँ, ऑटोग्राफ की खुशबू उस गली के सभी मकानों की खिड़कियों के नथुने खड़काने लगे। दरवाजे भड़भड़ाने लगे। लड़कियाँ ऑटोग्राफ लेने के लिए छत से कूद जाएँ। लड़के सीढ़ी से चलकर नीचे आएँ। छत से कूदकर मर-मिटने का अधिकार सिर्फ लड़कियों को है। एक फ्लोर से भी कूदती हैं, तो मर जाती हैं। लड़के पाँच फ्लोर से कूदने के बाद भी नहीं मरते। गाँव में एक करप्ट वर्ग के घर की लड़की को दो अंक वाले वर्ग के लड़के से प्यार हो गया। प्यार की सुगंध लड़की के घर वालों के कान में पड़ी। भुजाएँ फड़कने लगीं। नाक से इज्जत के अंगारे बहने लगे। आँख में इज्जत की चिता की अग्नि धधकने लगी। अगले दिन लड़की अंतिम संस्कार के लिए ले जाई जा रही थी। क्या हो गया? छत से गिरकर मर गई। ये नहीं बताया कि छत की ऊँचाई एक फ्लोर है।
ऑटोग्राफ के लिए लड़कियाँ छत से कूदें, लड़के सीढ़ी से चलकर आएँ और जिनके पास छत नहीं, वो कैसे लेने आएंगे ऑटोग्राफ? उन दो अंकों वालों के लिए शिक्षा वर्जित है। अब पढ़ने की कोशिश करने लगे, तो शिक्षा इतनी महँगी कर दी गई कि वे करप्ट बनने के बाद ही पढ़ पाएंगे। वर्ग बदलने के बाद। वैसे भी उनका पसीना मेरे ऑटोग्राफ के परफ्यूम को बदबूदार बना देगा। उनको ऑटोग्राफ देने के बारे में सोचूँगा भी नहीं। उनके बारे में लिखूँगा भी नहीं। उनके बारे में लिख भी दूँ, तो बदले में क्या देंगे? सम्मान समारोह करा देंगे। पुरस्कार के रूप में हँसिया और हथौड़ा पकड़ा देंगे- लो, तोड़ो पत्थर। नगद तो कुछ देंगे नहीं। उनके बारे में लिखकर ऑटोग्राफ चाहने वालों और गोद में झुलाने वालों की संख्या कम क्यों करूँ?
सोचता हूँ मेरे ऑटोग्राफ के नाम का सिक्का चले। परचून वाला कहे- आपका हजार रुपया हो गया। दो ऑटोग्राफ दे दीजिए, तो हिसाब बराबर कर दूँ। बस, ट्रेन, हवाई जहाज में चलूँ, तो मेरा ऑटोग्राफ ही मेरा टिकट हो। शादी में जाऊँ, तो नेग के बदले ऑटोग्राफ माँगा जाय। संपत्ति के रूप में अपने वारिसों को एक–एक ऑटोग्राफ दे दूँ- मेरे ऑटोग्राफ को नीलाम कर अचल संपत्ति अर्जित कर लेना।
हालाँकि ऑटोग्राफ का सिक्का चलाने की राह बहुत पथरीली है। राह पर बड़े भारी-भारी मील के पत्थर गड़े हुए हैं। उन पत्थरों की ऊँचाई पार किए बिना ऑटोग्राफ का सिक्का खोटा ही रहेगा। सिक्के को खरा बनाने के लिए शार्ट कट ले लूँगा। ‘गेटवे ऑफ हेवन’ की राह ले लूँगा। गेटवे ऑफ हेवन के समंदर में कूद जाऊँगा। कूदने से पहले डूबने से बचने के सभी उपकरण पहन लूँगा। अपना वर्ग बदल लूँगा। करप्ट वर्ग का बन जाऊँगा। दो अंक वाले वर्ग का हूँ, ये बता दूँगा, तो हेवन के समंदर में ज्वार आ आएगा। मुझे उठाकर हेवन की सड़क पर फेंक देगा- अपने वर्ग में जा!
गेटवे ऑफ हेवन में पहुँचने और ऑटोग्राफ का सिक्का चलाने के लिए मैं ये सब ऊल-जुलूल ‘नॉन प्रॉफिटेबल’ लिखना बंद कर दूँगा। जो भी लिखूँगा, ये सोचकर लिखूँगा कि ऐसा लिखूँ कि इस पर किसी निर्माता-निर्देशक की कृपादृष्टि पड़ जाए। निर्माता-निर्देशक की ना पड़े, तो कम-से-कम किसी प्रकाशक की पड़ जाए। प्रकाशक कहे कि ऐसा लिखो जो बिके। प्रॉफिटेबल हो। तो बिकाऊ भी बन जाऊँगा।
प्रकाशक की पारखी नजर को चौकन्ना रहना चाहिए। अपने निवास पर लगी नामपट्टिका का पत्थर बनने के लिए कई दिगम्बर, श्वेताम्बर के भेष में प्रकाशक की गली में चक्कर लगाते हैं। प्रकाशक के घर के सामने उनकी गाड़ी की चेन उतर जाती है। चेन तब तक नहीं चढ़ती, जब तक प्रकाशक अपनी बालकनी में नहीं आ जाता। प्रकाशक की आँखों से आँखें मिलने से उत्पन्न हुए करेंट से हाथ बिजली की फुर्ती से काम करते हैं। चेन चढ़ जाती है। इसी तरह प्रकाशक से मुलाकातों की चेन शुरू हो जाती है। चेन से चेन मिलाते वो संपादक के सीने पर चढ़ जाता है।
प्रकाशक अगर किसी राजनीतिक पार्टी का गुप्त स्वयंसेवक है, तो उसे श्वेताम्बरों को दिगम्बर बनने का अवसर प्रदान करना चाहिए। सेकुलरिज्म के सैकड़ों श्वेताम्बर भाजपा के सेवक हो गए। दिगम्बर अध्यक्ष के हाथों सदस्यता प्राप्त कर सेकुलरिज्म का श्वेताम्बर उतार फेंका। दिगम्बर हो गए। प्रतिक्रियावादी शक्तियों के चमत्कार से जगह-जगह अपने कपड़े उतारते रहते हैं। सही कीमत के इंतजार में अभी कई श्वेताम्बर बने हुए हैं। वे खुल कर नहीं कह पा रहे- मैं दिगम्बर बनने को तैयार हूँ। इनकी सुविधा के लिए चुनाव आयोग को ऐसा नियम बना देना चाहिए कि जो दल-बदल का इच्छुक हो, उसे निर्वस्त्र होकर संकेत देना होगा- मैं बिकाऊ हूँ। सही कीमत का इंतजार कर रहा हूँ। हालाँकि चुनाव आयोग से ऐसे किसी नियम की उम्मीद करना उसके साथ नृशंस दुष्कर्म करना होगा। चुनाव आयोग के कपड़े पहले ही उतारे जा चुके हैं।
ऑटोग्राफ का सिक्का चलाने वाली राह पर गड़े मील के उन पत्थरों ने दो अंकों वाले वर्ग के बारे में लिखा। वे गेटवे ऑफ हेवन नहीं गए। गेटवे ऑफ हेवन खुद चलकर उनके पास आया। गेटवे ऑफ हेवन खुद चलकर मेरे पास भी आए, इसके लिए आवश्यक विचार और शब्द मेरे पास नहीं हैं। इसलिए शार्ट कट ले लूँगा। पीआर एजेंसी के रूप में चलते-फिरते आदमियों की चिरौरी करूँगा- मेरी किताब किसी निर्माता-निर्देशक के पास सरकाओ ना! हो सकता है आपको ये सब करना बुरा लगे, पर मुझे अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी करनी है। ऑटोग्राफ का सिक्का चलाना है। इसके लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ।
मेरी दूसरी महत्त्वाकांक्षा बेस्टसेलर की है। रॉयल्टी का बेस्टसेलर। बेस्ट बुकसेलर नहीं, बेस्ट रायल्टी अर्नर। बेस्ट अर्नर बनने से वर्ग बदल जाएगा। भविष्य में कभी चोरी करूँगा, तो चोर नहीं कहलाऊँगा। करप्ट कहलाऊँगा।
तीसरी महत्त्वाकांक्षा भी है। अभी तक नहीं थी। लिखते-लिखते हो गई। हो इसलिए गई क्योंकि मैं पहले ही बता चुका हूँ कि प्रकाशक से नहीं लड़ना चाहिए नहीं तो खूँटा गड़ने ही नहीं देगा। तीसरी इच्छा के साथ ही मैं चोरी के आरोप से मुक्त हुआ। तीसरी इच्छा ये है कि मैं भी किसी पर कंटेंट चोरी का आरोप लगाऊँ। हालाँकि व्हाट्सअप वाले चोरी करते हैं, पर उन पर चोरी का प्रकरण दर्ज नहीं किया जा सकता क्योंकि व्हाट्सअप को यूनिवर्सिटी का दर्जा प्राप्त है। प्रकाशक का नहीं। व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी में स्नातक, परास्नातक के कोर्स नहीं हैं। वहाँ सीधे शोध में दाखिला होता है। सबके शोध का विषय एक ही होता है- हिंदू खतरे में हैं। उसे खतरे से बाहर कैसे निकालें, इस पर शोध करिए। डॉक्ट्रेट की डिग्री पाइए। व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में न पेपरबैक हैं, न ही हार्डबाउंड। लाइब्रेरी फुली डिजिटल है। यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले भी फुली डिजिटल हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के नायाब रोबोट।
मान लीजिए मेरी तीसरी महत्वाकांक्षा पूरी हो गई, तो मैं कंटेंट चोरी का प्रकरण दर्ज कराऊँगा। मुकदमा जीत जाऊँगा। अदालत आदेश देगी- ‘‘आपके लेखन के स्तर को देखते हुए आपको हर्जाने के रूप में दो अंकों की राशि प्रदान की जाएगी।’’ यहाँ भी दो अंक में ही! वाह रे न्याय के देवताओं का वर्ग!
अंत में एक राज़ बताता हूँ। मैंने शीर्षक भी कॉपी किया है। हूबहू नहीं। जिस शीर्षक से कॉपी किया, वो भी तीन शब्दों का है। मेरा भी तीन शब्दों का है। ये राज मैं प्रकाशक को बता रहा हूँ। प्रकाशक चाहें तो कंटेंट चोरी का प्रकरण दर्ज करा सकते हैं। पर ध्यान रहे, पच्चीस सौ शब्दों में से मिलते-जुलते सिर्फ तीन शब्द लिए हैं। कंटेंट चोरी का प्रतिशत 0.16 से भी कम होगा। अदालत आदेश देगी- ‘‘चोरी के प्रतिशत को देखते हुए चोर को आदेश दिया जाता है कि वो प्रकाशक को जुर्माने के तौर पर दहाई अंकों में राशि अदा करे।’’ फिर दशमलव के दो अंकों में ही? हाय रे मेरा वर्ग!