आखिर कब तक कोरोना से जंग लड़ते रहेंगे सरकारी योजना की राह देखते स्वास्थ्यकर्मी?


वैलेंटाइन डे किस दिन आता है? जिसको इन सब चीज़ों से कोई मतलब नहीं होगा वो भी इस सवाल का जवाब दे देगा। नर्स डे कब आता है? डॉक्टर्स डे कब आता है? इन दिवसोंको लेकर हम जितना गंभीर हैं, उतना ही गंभीर आजकल हमारा सिस्टम स्वास्थ्यकर्मियों को लेकर है।

चेन्नई  के किल्पौक में डॉ. के. बालासुब्रमण्यम का आशियाना है। रिटायरमेंट के बाद वो आराम से ज़िंदगी बिता रहे थे। घर से ही लोगों का इलाज कर देते थे। इस बीच कोविड महामारी आ गयी। उन्होंने कोविड नियमों का पालन करते हुए मरीज़ो को देखना जारी रखा। जून 2020 में वे कोविड का शिकार हो गए। 11 जून को उन्होंने अंतिम साँस ली। ऐसे ही जुलाई 2020 में डॉ. श्याम सुंदर की कोरोना से मौत हो गयी थी। उनकी पत्नी को आज भी सरकार से उम्मीद है कि कुछ पैसे बुढ़ापे के लिए मिल जाएं।

25 मार्च, 2020 को भारत सरकार एक योजना लेकर आयी थी जिसके तहत जिन स्वास्थ्यकर्मियों ने ऑन ड्यूटी कोविड से जान गंवायी हैं, उनके परिवार को 50 लाख रुपये का जीवन बीमा मिलेगा। प्रधानमंत्री बीमा कल्याण पैकेज योजना के तहत इस स्पेशल इंश्योरेंस स्कीम की घोषणा की गयी थी। शुरुआत में यह 90 दिनों के लिए थी। बाद में इसको बढ़ाकर एक साल कर दिया गया था। सरकार का दावा था कि इससे 22 लाख स्वास्थ्य कर्मचारियों को लाभ होगा।

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ग्यारह महीने से ज़्यादा हो गये हैं बालासुब्रमण्यम जी के बेटे को काग़ज़ का टुकड़ा दिखाते हुए। ये बताते हुए कि उनके वृद्ध पिता कोविड से मरे थे। राज्य सरकार से 25 लाख का मुआवज़ा भी जुमला ही साबित हुआ। ये केवल एक बालासुब्रमण्यम की कहानी नहीं है। हज़ार से ज़्यादा डॉक्टर दूसरों की जान बचाते हुए अपनी जान कुर्बान कर चुके हैं। उनमें से कितने बालासुब्रमण्यम होंगे और कितने उनके बेटे जैसे होंगे जो अपने किसी ख़ास की जान की कीमत माँग रहे होंगे। इसमें आशा कर्मियों और नर्सों को तो अभी हमने गिना ही नहीं है!

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के अप्रैल तक के आँकड़ो के मुताबिक़ पिछले साल 736 परिवारों में से केवल 287 डॉक्टरों के परिवार को 50 लाख रुपये का बीमा मिला है यानी पाँच में से लगभग दो डॉक्टर। 24 अप्रैल 2021 को यह योजना भी ख़त्म हो गयी। यूनाइटेड नर्सेस एसोसिएशन के सचिव जॉल्डिन फ्रांसिस कहते हैं, ‘’अब सरकार का कहना है कि आगे के लिए नयी स्कीम के बारे में सोचा जा रहा है। मतलब अब स्वास्थ्यकर्मी सिर्फ़ ख़ुदा के रहमो-करम पर हैं। अगर वो ख़ुदा-न-ख़्वास्ता मर जाएं, तो क्या? सरकारी स्कीम का इंतज़ार करें?’’

अगर देखा जाए तो ये ज़िंदगी का बीमा है। इसे पाने के लिए मरना पड़ता है। कोविड का इलाज करवा रहे स्वास्थ्यकर्मियों के पैसे का इसमें कोई ज़िक्र नहीं है। आंगनवाड़ी में काम करने वाली ए.आर सिंधु पूछती हैं, “हमारा जोखिम भत्‍ता कहां गया?”

आँकड़ों की हेराफ़ेरी?

15 सितंबर 2020 को स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी चौबे ने कहा था कि सरकार के पास कोई डाटा नहीं है कि कितने डॉक्टरों ने अपनी जान गंवायी। इस बयान की ख़ूब आलोचना हुई थी। फ़रवरी में स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से कहा गया कि 162 डॉक्टर, 107 नर्स और 44 आशा कर्मी ने अपनी जान गंवायी, वहीं आइएमए ने कहा कि केवल 736 डॉक्टरों की अकेले मौत कोरोना से हुई है। जिबिन टीसी, यूनाइटेड नर्सेस एसोसिएशन (महाराष्ट्र) के मुताबिक़ भारत में 350 नर्सों ने कोरोना से जान गंवायी है। परिवारों को पैसा मिला या नहीं, वो ये नहीं जानते। उधर ए. आर. सिंधु ने बताया कि आंध्र प्रदेश में उनके अनुसार 150 आशा कर्मियों की मौतें हुई हैं। इसमें से केवल 10 को ही 50 लाख की स्कीम का लाभ मिल पाया है, हालांकि उन्होंने स्कीम की तारीफ़ भी की। उन्होंने माना कि इस स्कीम के बिना जीवन के बारे में सोचना मुश्किल है।

विश्व बैंक के आँकड़ों के अनुसार भारत अपना जीडीपी का 3.5 प्रतिशत स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च करता है। दुनिया की औसत में ये आधा है। कल ही मैं एक वीडियो देख रहा था जिसमें डॉक्टरों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा जा रहा है। ये सब चीज़े बेचैन करती हैं। स्वास्थ्य सेवाएं भी स्वास्थ्यकर्मियों की जान लेने पर तुली हैं। डॉक्टर खुद ऑक्सीजन की कमी से मर रहे हैं। केंद्र और राज्य सरकारों को अपनी इस्‍तेमाल करो और फेंको वाली नीतिसे बाहर आना होगा। जब तक नई नीति आये और इस बीच कोई मर जाये, तो क्या सरकार उसकी ज़िम्मेदारी लेगी? केंद्र में हमारे स्वास्थ्य मंत्री खुद एक डॉक्टर हैं। एक डॉक्टर का दर्द बख़ूबी समझते होंगे। आज जब मैं ये लेख लिख रहा हूं, बिहार में 120 में से 119 परिवारों को इस स्कीम का इंतजार है। आज 26 साल के डॉ. अनस मुजाहिद के परिवार को इस स्कीम का इंतज़ार है।

देश में महामारी की दूसरी लहर से अब तक 269 डॉक्टर जान गंवा चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आग्रह पर हम सभी ने थाली बजायी। मोमबत्ती जलायी। सिर्फ़ इसलिए कि डाक्‍टरों को वो सम्मान दे सकें जिसके वे हक़दार हैं। इनको हम कोरोना वॉरियर कहते हैं। ये वॉरियर आख़िर कितनी लहरों से लड़ेगा? और कब तक?


लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, दिल्ली में पत्रकारिता के छात्र हैं


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