‘’तू इस आंचल का एक परचम बना लेती तो अच्छा था’’, मजाज़ की ये मकबूल पंक्तियां आज हकीकत बन चुकी हैं। पंजाब की दसियों हज़ार स्त्रियां अपनी बसंती चुनर ओढ़े बग़ावत पर उतर आयी हैं, ठीक वैसे ही जैसे 2019-20 में परदानशीं औरतों ने दक्षिणी दिल्ली के शाहीन बाग में घेरा डाल दिया था।
तीन किसान कानूनों को वापस करवाने के लिए राष्ट्रीय राजधानी की सीमाओं पर जारी किसान आंदोलन को सबसे साहसी प्रतिरोधों में शुमार किया जा चुका है, हालांकि इसमें अभूतपूर्व बात है भारी संख्या में स्त्रियों की भागीदारी।
संसद में बिना किसी विरोध के भाजपानीत बहुमत की सरकार द्वारा पारित अध्यादेशों ने साधारण स्त्रियों को घरों की चारदीवारी से बाहर निकाल के सड़क पर ला दिया है। इन स्त्रियों के नारे आए दिन और तीखे होते जा रहे हैं। इसे 11 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों- कि महिलाओं को इन प्रदर्शनों में क्यों ‘रखा’ गया है और उन्हें वापस लौटने को ‘बाध्य’ किया जाना चाहिए- पर आयी उनकी प्रतिक्रियाओं में देखा जा सकता है जब उन्होंने आंदोलन के मंच से लेकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में दिए सैकड़ों साक्षात्कारों में इसका जमकर प्रतिवाद किया था।
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ये स्त्रियां कौन हैं, उन्हें प्रदर्शन में आने के लिए कौन सी चीज़ प्रेरित कर रही है और इनके बीच प्रतिरोध की चिंगारी कैसे भड़की जो इन्हें सिंघु और टीकरी बॉर्डरों तक खींच लायी, इन सवालों के जवाब इतने आसान नहीं हैं। फिर भी, आज ये आंदोलन का हिस्सा हैं तो पूरे दमखम से उसे ऊर्जावान बनाए हुए हैं।
पंजाब के कृषि क्षेत्र में कोई तीन दशक से असंतोष पनप रहा था लेकिन औरतों की भागीदारी इसमें धीरे-धीरे ही हुई। यहां भारतीय किसान यूनियन (एकता-उग्राहां) स्त्रियों और युवाओं को संगठित करता रहा है। स्त्री संगठनकर्ताओं की संख्या वैसे तो कम ही थी, लेकिन जैसे-जैसे कृषि संकट बढ़ता गया सामाजिक रिश्तों का ताना-बाना टूटा सिजका सीधा असर ग्रामीण पंजाब के परिवारों पर पड़ा।
कुछ साल पहले पंजाब के मालवा क्षेत्र में मैंने उन स्त्रियों से बात की थी जिनके पति, बेटे और भाई ने खुदकुशी कर ली थी। तब मेरी बात संगठन के महासचिव सुखदेव सिंह कोकरी से हुई थी जो मोगा के रहने वाले हैं। उन्होंने बताया था कि किसानों को संगठित करने के दौरान यूनियन के लिए जरूरी हो जाता है कि वे गिरते लैंगिक अनुपात, चिट्टे की समस्या और औरतों के खिलाफ हिंसा पर भी बात करें। उन्होंने ऐसा ही किया।
क्या बदला?
यूनियन ने अपने सांस्कृतिक आयोजनों के माध्यम से किसानी जीवन की अनुभूत सच्चाइयों पर बहुविध सामाजिक प्रक्रियाओं के असर को समझने और चेतना जागृत करने की कोशिश की है। बरसों की इस मेहनत का असर यह हुआ है कि आज स्त्रियों के बीच संगठनकर्ताओं की तादाद गुणात्मक रूप से बढ़ी है।
बीकेयू (एकता-उग्राहां) की महिला इकाई की अध्यक्षा हरिंदर बिंदु ने बताया कि उनके यहां कम से कम 150 संगठनकर्ता स्त्रियां हैं जो गांव-गांव, ब्लॉक और जिला स्तर पर बैठकें आयोजित करती हैं।ग्रामीण परिवारों में आए बदलाव के बारे में पूछने पर वे कहती हैं, ‘’बड़ा बदलाव आया है। इन प्रदर्शनों में औरतों का घर में बंधे होना या घरेलू काम की जिम्मेदारी से लदे होना आड़े नहीं आता।‘’
उन्होंने बताया, ‘’पति और परिवार के अन्य सदस्य खाना बाने से लेकर हर तरह के घरेलू कामों में हाथ बंटाते हैं। परिवारों के भीतर रिश्ते सुधर रहे हैं। पहले घर के मर्दों को जो औरतों का बाहर जाना और अजनबियों से मिलना पसंद नहीं होता था, अब इसमें कमी आयी है।‘’
वे कहती हैं, ‘’हमारा संघर्ष परिवार के भीतर स्त्रियों की बराबरी के लिए है, साथ ही ज़मीन के अधिकार और रोजगार को लेकर भी है। इस संघर्ष को जाति की ऊंच-नीच से भी लड़ना है।‘’
प्रदर्शनों में स्त्रियों के अनुभव
स्त्रियों को किसान माना जाए या किसानों की पत्नियां, अकादमिक दायरे और किसान संगठनों के बीच इस सवाल पर लंबे समय से बहस होती रही है। ऐसा लगता है कि अब यह सवाल दफन हो चुका है और फैसला ‘स्त्री किसानों’ के हक़ में आया है। यह एक ऐसी पहचान है जो लंबे समय से स्वीकार्यता की बाट जोह रही थी। आज यही औरतें हजारों की संख्या में उन ट्रैक्टरों पर बैठ कर दिल्ली पहुंची हैं जिन्हें वे केवल अपने गांव में चलाती थीं।
इस तरह हम देखते हैं कि एक बड़ा बदलाव दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन में आया है। 16 दिसंबर, 2020 को सैकड़ों स्त्रियों ने अपने उन पुरुष परिजनों की तस्वीरों के साथ प्रदर्शन किया जिन्होंने खुदकुशी कर ली थी। इनमें सभी विधवा या प्रत्यक्ष पीड़ित नहीं थीं।
इसके बाद 18 जनवरी को जब महिला किसान दिवस का आयोजन प्रदर्शन स्थलों पर किया गया तो इन स्त्रियों ने पूरे आत्मसम्मान के साथ पदयात्रा की और तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग उठायी। ये प्रदर्शन गणतंत्र दिवस तक आते-आते अपने उत्कर्ष पर पहुंच गए।
अंतत:, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की हज़ारों स्त्रियों ने यहां नाच-गा कर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया। हरियाणा और यूपी की स्त्रियों के साथ पंजाब की स्त्रियों का गहरा रिश्ता जुड़ गया था। इनकी सामूहिक ताकत का मुज़ाहिरा बिलकुल स्पष्ट और मुखर था।
केवल मालवा नहीं, माझा और दोआब की स्त्रियों की भी इस प्रदर्शन में भागीदारी रही है। सिंघु बॉर्डर पर मौजूद स्त्रियों के एक समूह ने बताया कि कैसे वे इस प्रदर्शन में शामिल हुईं। रवंदर कौर ने बताया कि कैसे उसने चुपके से अपना सामान बांधा और परिवार से कहा कि वो दिल्ली जा रही हैं।
उन्होंने बताया, ‘’हमारी जिंदगी भोर के 4 बजे से लेकर रात के 11 बजे तक एक खटराग है। यह कतई स्वाभाविक नहीं है। कोई भी हमारे श्रम की अहमियत नहीं समझता। यहां हम कृषि कानूनों को वापस करवाने की मांग उठाकर एक दूसरे से हिम्मत पाते हैं।‘’
अमनदीप कौर ने बताया कि कैसे उन्होंने स्वर्ण मंदिर जाने वाला एक ऑटो लिया और फिर वहां से दिल्ली जा रहे औरतों के समूह में शामिल होकर वे अमृतसर रेलवे स्टेशन आ गयीं। उनके पास साथ में कोई सामान नहीं था। वे कहती हैं:
मैं हमेशा दिल्ली आना चाहती थी लेकिन ये तो ऊपरवाले का फ़रमान निकला। मुझे प्रदर्शन में शामिल होना ही था।
अमनदीप कौर
दिल्ली पहुंचने के बाद उन्होंने जोगिंदर कौर के माध्यम से इसकी खबर अपनी मां को दी। जोगिंदर दिसंबर से ही अमृतसर में औरतों को संगठित कर रही थीं। उन्होंने विस्तार से बतया कि कैसे तमाम औरतें खुद चलकर या केवल एक बार कह देने भर से प्रदर्शन में पहुंची हैं। एक बार यहां पहुंचने के बाद वे बड़े समूह का हिस्सा हो जाती हैं और सबके साथ टेंटों और ट्रॉलियों में रहती हैं।
सामूहिक रूप से बड़ी-बड़ी सभाओं में शामिल होने से इन स्त्रियों को तीनों कृषि कानूनों के अपने ऊपर पड़ने वाले प्रभावों को सामने रखने का मौका मिला है।
कश्मीर कौर के पास पट्टे पर दो एकड़ ज़मीन है जो उनका, उनकी सास का और उनकी बेटी का पेट भरने के लिए पर्याप्त है। उनके पति और बेटे की मौत हो चुकी है। उन्होंने बताया कि अगर यह ज़मीन भी चली गयी तो उनके पास कुछ नहीं बचेगा। वे जानना चाहती हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के नारे ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ में उनकी बेटी के भविष्य के लिए क्या रखा है।
इन स्त्रियों की भागीदारी जितनी स्वयंस्फूर्त है उतनी ही संगठित भी है।
आगे का रास्ता
रोजमर्रा की जिंदगी में अनुभव किये जाने वाले पितृसत्ता और जाति के अंतहीन उत्पीड़न के खिलाफ चलने वाले लंबे संघर्ष में स्त्रियों की राजनैतिक भागीदारी एक बड़ा उत्प्रेरक तत्व है।
हरिंदर बिंदु कहती हैं कि जाट सिख औरतों के मुकाबले दलित स्त्रियां भले ही अपने पारिवारिक और सामुदायिक ढांचे में ज्यादा स्वतंत्र हैं, लेकिन स्थानीय प्रशासन और बड़े जमींदारों की अड़चन के चलते उनकी बड़ी संख्या अब तक आंदोलन में नहीं आ सकी है और उसकी प्रतीक्षा है।
इस संदर्भ में उन्होंने याद करते हुए बताया, ‘’मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र मुक्तसर में 2016 में एक दलित औरत को अगवा कर के उसका बलात्कार किया गया था। उस वक्त दलित स्त्रियों ने जब इसका विरोध किया तो उन्हें पुलिस उत्पीड़न का सामना करना पड़ा था।‘’
पंजाब की धरती के साथ अपनापे का भाव महज भौगोलिक या स्थलीय मसला नहीं है। यह लगाव उस गहरी आस्था से आता है जो सामुदायिक सहयोग और सामूहिक भावना को पनपाता है, भले ही यहां के सामाजिक-आर्थिक तंत्र में गैर-बराबरी अलग-अलग स्तरों पर मौजूद है, दलितों, युवाओं, स्त्रियों और भूमिहीनों के रूप में।
टीकरी बॉर्डर पर मौजूद बुजुर्ग औरतों ने बताया कि वे बारी-बारी से यहां आती हैं और सामुदायिक रसोइयों में ‘’प्रसाद’’ बांट कर ‘’सेवा’’ करती हैं। यह कृत्य प्रतिरोध के उनके बोध को मजबूत करता है। सिंघु बॉर्डर पर डटी करमजीत कौर कहती हैं:
हम लोग आधुनिक युग की लक्ष्मीबाई हैं। जरूरत पड़ी तो हम अगले 10 साल तक यहां बैठी रह सकती हैं।
करमजीत कौर
उन्होंने बताया कि ‘’लंगर तो 500 साल से चल रहे हैं, ये कभी नहीं रुकेंगे। गुरु नानक का संदेश है कि सब मिलकर रहो, यही हमारी ताकत है।‘’
परिवार हो, संगठन हो या फिर यह पुरुषवादी समाज, स्त्रियों को हमेशा ही भीतर और बाहर दोनों स्तरों पर उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ लड़ना पड़ा है। इस प्रदर्शन में कुछ युवा लडकियां स्वराज अभियान, ट्रॉली टाइम्स और एसएफएस के भीतर यौन उत्पीड़न पर भी अपनी आवाज़ उठा रही हैं, भले ही सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथी तत्व उन्हें ट्रोल कर रहे हैं। इनका धैर्य और साहस उस प्रतिरोध की देन है जिसने आज सूचे पंजाब को जकड़ रखा है।
27 मार्च से 31 मार्च तक चार दिन लुधियाना के किला रायपुर में किसान संगठनों ने अडानी समूह के ड्राइ पोर्ट पर घेरा डाले रखा था। इसके बारे में बीकेयू (एकता-उग्राहां) के नेता सुखदेव सिंह कोकरी विस्तार से बताते हैं:
जून में जब अध्यादेश आया हम तब से ही लगातार काम कर रहे हैं। पंजाब में यह प्रदर्शन हर दिन और मजबूत होता गया है। इस प्रदर्शन की सबसे बड़ी ताकत है कि इसने चेतना को जागृत किया है। हम लोग तो लंबे समय से इस काम में लगे हुए थे, यह जानते हुए कि यह लंबी चलने वाली एक श्रमसाध्य प्रक्रिया है। आज पंजाब के भीतर हर ब्लॉक और जिले में, हर युनिवर्सिटी और टोल प्लाज़ा पर प्रदर्शन हो रहे हैं। आप खुद देख सकते हैं कि युवा लड़कियों और स्त्रियों की संख्या लगातार बढ़ ही रही है।
सुखदेव सिंह कोकरी
संयुक्त किसान मोर्चा के एक घटक जम्हूरी किसान मोर्चा की प्रोफेसर सुरिंदर कौर ने वर्कर्स युनिटी से बातचीत में कहा कि स्त्रियां इन प्रदर्शनों की रीढ़ हैं। उन्होंने बताया:
कृषि संकट का ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर जैसे-जैसे शिकंजा कसता गया, स्त्रियों का उनके घरों में संघर्ष बढ़ता गया। इन तीन कृषि कानूनों ने स्त्रियों को यह अहसास दिलाया जिस चूल्हे को सदियों से वे जलाये हुए हैं उसकी आग कहीं ठंडी न पड़ जाए। इस बात को उन्होंने काफी तेजी से समझा और मिलकर सामूहिक कार्रवाई की।
प्रोफेसर सुरिंदर कौर
वे कहती हैं: “अपना श्रम बेचने वाले और उपभोग करने वाले दलितों, खेतिहर और भूमिहीन गरीबों को ये तीन कृषि कानून खत्म कर देंगे। इन प्रदर्शनों में दलितों की भागीदारी को बढ़ाना अब भी एक बड़ी चुनौती है। समूचे समाज के लिए भविष्य की एक दृष्टि अगर कहीं पैदा होगी तो वे धरनास्थल ही हैं। इसलिए प्रतिरोध को आगे ले जाने में हमारे सामने कुछ जटिल सवाल भी हैं कि कैसे सभी शोषित तबकों को इसमें समाहित किया जाय। हमारी ताकत हालांकि हमारी उस विरासत और इतिहास से आती है जहां प्रतिरोध ही इकलौता रास्ता है।“
मौजूदा किसान आंदोलन इस बात को स्पष्ट रूप से रेखांकित करता है कि किसान का अर्थ एक समुदाय से है जिसमें स्त्रियां, पुरुष, बुजुर्ग और युवा सभी शामिल हैं। यह अनाज उपजाने वालों का सामूहिक संघर्ष है, चाहे वे जमींदार हों या भूमिहीन। इसलिए ऐसा नहीं है कि राज्य और पूंजी किसी एक उत्पादक को अपनी साजिशों या प्रलोभनों से खरीद पाएगी। और इतिहास गवाह है कि अगर औरतें संघर्ष में जुड़ गयीं तो प्रतिरोध मज़बूत ही होता है। हो सकता है कि ये स्त्रियां कुछ वक्त के लिए ही अपने घर और चूल्हे से मुक्त हुई हों, लेकिन इतना तय है कि आंदोलन का चरित्र हमेशा के लिए बदल चुका है।
गांवों और जिलों से लेकर हर राज्य में इस प्रदर्शन के चलते सामूहिक चेतना और जागरूकता में जो उभार आया है, वह जंगल की आग की तरह दिल्ली की सरहदों तक फैल रही है। संक्षेप में कहें तो, आज हिंदुस्तान बोल रहा है।
(यह लेख समयान्तर पत्रिका के मई अंक से साभार प्रकाशित है)