महामारी में ‘उम्मीद’: महाराष्ट्र के पिसवली गांव में 25 युवाओं के संघर्ष की प्रेरक कहानी


महामारी के भीषण संकट के बीच अगर हम इस सवाल पर गहराई से सोचें कि पिछले साल से लेकर अब तक में देश में क्या बुनियादी परिवर्तन हुए हैं तो हो सकता है कि सामाजिक राजनीतिक मुद्दों पर सचेत कुछ मुट्ठी भर लोग इसके जवाब में उन सभी घटनाओं का जिक्र कर दें, जिससे ये देश बीते कई वर्षों में गंभीर रूप से प्रभावित हुआ है। इस सवाल के चाहे जितने भी अलग-अलग जवाब हमारे सामने आएं, उसके जवाब बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करते हैं कि जवाब देने वाले लोग किस सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक वर्ग से ताल्लुक रखते हैं। इसलिए जब देश इस समय महामारी और उससे जुड़ी बदइंतजामी से बुरी तरह जूझ रहा है और रोजाना हजारों की संख्या में लोगों की मौतें हो रही हैं तो ऐसे में ये सवाल लाजमी हो जाता है कि बीते एक साल में हमने एक देश के रूप में इस महामारी पर कितना ध्यान दिया।

23 मार्च 2020: प्रधानमंत्री मोदी कोरोना वायरस का प्रसार रोकने के लिए पूरे देश में तालाबंदी की घोषणा करते हैं और इसी के साथ महामारी की रोकथाम को लेकर शहरी वर्ग में बहस छिड़ जाती है। आम जनता के बीच सामाजिक दूरी, हर्ड इम्यूनिटी, क्वारंटीन जैसे शब्द प्रचलित हो जाते हैं। कोई तालाबंदी की सरकारी कार्रवाई की आलोचना करता है तो कोई इसे एक आवश्यक बुराई की तरह अपनाने की सलाह देता है। जब तक बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों का शहरों से ग्रामीण इलाकों की ओर पलायन शुरू नहीं हो जाता तब तक ऐसे कदमों के दूरगामी प्रभावों पर किसी की नज़र तक नहीं जाती है। फिर शुरू होता है राहत एवं बचाव कार्यों का दौर, कोरोना का सांप्रदायीकरण और अस्पतालों में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, टेस्टिंग की जरूरत, स्वास्थ्यकर्मियों की सुरक्षा, एपिडेमिक एक्ट के इस्तेमाल, पुलिस के दंड और जुर्मानों के जरिये महामारी को रोकने की कवायद और आंकड़ों से बाजीगरी की कसरत पर ढुलमुल तरीके से प्रश्नों का दौर। कुछ महीनों के अंदर ही महामारी पर बातचीत बंद हो जाती है। राहत और बचाव कार्य थम जाते हैं। प्रवासी मजदूरों पर जारी हर तरह की चर्चा पर विराम लग जाता है।

ऐसे में इसी समाज के भीतर कुछ लोग ऐसे भी थे जो शुरुआत से ही मामले की गंभीरता और उसकी जटिलता को समझकर लगातार जमीनी स्तर पर सक्रिय थे। वे ये जानते थे कि वे खुद को अपने घरों में कैद करके महामारी से सुरक्षित नहीं हो सकते थे। उसके लिए पूरी बस्ती का सुरक्षित होना जरूरी था। महाराष्ट्र के कल्याण क्षेत्र के एक गांव पिसवली के ये युवा अपनी बस्ती के लोगों के स्वास्थ्य को लेकर शुरुआत से ही सचेत थे और तब से लेकर आज तक में वे लगातार सक्रिय रहे। आइए, इन युवाओं की कहानी और इनकी चिंताओं से आपको रूबरू कराते हैं।

उम्मीद ग्रुप ने बस्ती की समस्याओं और उनकी ज़रूरतों को समझने के लिए एक सर्वे किया

रंजन, पार्वती, पूजा, नंदिनी, पुष्पा, मनीष, लता, आरती, गरिमा, सबीना, करुणा, स्वाति, पिंकीये उन युवाओं के नाम हैं जो 2017 से ही संगठित होकर अपनी बस्ती के रहवासियों के जीवन में “उम्मीदों” की अलख जगा रहे हैं। पार्वती बड़े उत्साह से अपने ग्रुप के बारे में बताती हैं:

हम वाचा संस्था के साथ पिछले कई साल से जुड़े रहे हैं। 2017 में हम पंद्रह लोगों ने मिलकर अपना एक “उम्मीद” ग्रुप बनाया ताकि हम अपनी बस्ती से जुड़ी समस्याओं के लिए अपने स्तर पर ही कोई प्रयास कर सकें। आज हमारे ग्रुप में कुल 25 लोग जुड़े हुए हैं।

रंजन कोरोना महामारी के दौरान अपने ग्रुप के कामों को लेकर बताना शुरू करते हैं:

दीदी, लॉकडाउन के बाद से ही हम परेशान थे कि बस्ती के लोगों का क्या होगा! बस्ती के कई लोग तो अपने-अपने गांव पैदल ही निकल पड़े थे। उनमें से कई लोग जो लौट कर अपने गांव नहीं जा सकते थे, वे काम धंधा बंद हो जाने के चलते अपने घर में हताश बैठे थे। लोगों को खाने-पीने की तंगी होने लगी थी।

ये पूछने पर कि सरकार की तरफ से इन लोगों के लिए क्या क्या मदद की गई थी, उसके जवाब में ग्रुप के कुछ सदस्य एक सुर में कहते हैं, “सरकार ही नहीं कई संस्थाओं के लोग खाने पीने के सामान देने आते थे लेकिन उन लोगों तक गांव के सभी परिवारों की पहुंच नहीं थी। उसके अलावा कुछ ही हफ्तों के बाद ये सब भी बंद हो गया।”

नंदिनी बताती हैं:

इन्हीं सबके चलते हमने सबसे पहले तो अपनी एक बस्ती में सर्वे किया ताकि हम बस्ती के लोगों की ज़रूरतों को ठीक तरीके से समझ सकें। इनमें से कई लोगों के पास राशन कार्ड नहीं थे। पानी की सुविधा नहीं थी। हमने कई बार तो सरकारी राशन इकट्ठा करके लोगों में बांटा, लेकिन जब दूसरे लोगों ने मदद पहुंचाना बंद कर दिया तो हम लोगों ने चंदा इकट्ठा करके इन लोगों तक जरूरी मदद पहुंचाई। राशन किट खरीदा, सैनिटरी नैपकिन बंटवाया।

महामारी पर सरकारी नीतियों के सवाल पर रंजन कहते हैं:

देखिए दीदी, हम पूरे तरीके से ये नहीं कह सकते कि लॉकडाउन का फैसला सही था या गलत था, लेकिन किसी भी फैसले से पहले सरकारों को झुग्गी बस्तियों के लोगों के बारे में सोचना चाहिए था। पिछले साल तो इन लोगों ने स्क्रीनिंग के नाम पर सौ से दो सौ रूपये गरीबों से ऐंठे और उसके बाद वैक्सीनों की लाइन में गरीबों का नम्बर कब आएगा कुछ पता नहीं।

सामाजिक दूरी और साफ़-सफाई के सवाल पर पूजा कन्नौजिया कहती हैं कि उनकी बस्ती में कई सौ लोगों पर एक शौचालय है और बस्ती में कई लोग खुले में शौच को मजबूर हैं, ऐसे में उनके जैसे लोगों के पास सामाजिक दूरी बरतने और साफ़-सफाई रखने के संसाधन उपलब्ध नहीं थे।

मुझे लगता है कि सरकार को हम जैसी बस्तियों में जरूरी सुविधाएं पहुंचानी चाहिए और कोरोना की गंभीरता को लेकर जागरूकता भी फैलानी चाहिए थी। अभी कितने लोग डरे हुए हैं, तमाम अंधविश्वास फैले हुए हैं। हम लोग चाहे जितना भी लोगों से बात करें वो उतना असर नहीं करने वाला है जितना किसी सरकारी जागरूकता अभियान से होता।

पार्वती, उम्मीद ग्रुप

पार्वती जब अपनी बस्ती में लोगों के बीच फैले अंधविश्वासों के बारे में बता रही थीं तो मेरे दिमाग में प्रबुद्ध एवं सक्षम वर्ग के लोगों द्वारा फैलायी जा रही कुछ भ्रामक जानकारियां याद आ रही थीं जिसके बारे में मैंने कुछ कहना जरूरी नहीं समझा। तभी खाने पीने की तंगी से बात हटकर कुछ सामाजिक समस्याओं पर चर्चा होने लगी।

बस्ती के कितने बच्चों की पढ़ाई छूट गई है। वे घर में रहकर परेशान होते हैं। घर में हो रहे झगड़ों को देखते हैं। हमने इतने साल शराब को लेकर इतने कैंपेन किए लेकिन इस बीच राज्य सरकार ने शराब बिक्री को बढ़ावा दिया। हमारी बस्ती के लोगों के बारे में उन्होंने सोचा नहीं कि इससे कितना नुकसान होगा।

पुष्पा की इस बात पर चर्चा छिड़ी, उसके बाद रंजन उनकी बस्ती के सबसे करीब पड़ने वाले अस्पतालों की हालत के बारे में बताने लगे कि ये सभी अस्पताल बहुत पहले से भरे पड़े हैं और कैसे वहां की स्वास्थ्य सुविधाएं एकदम से नाकाफी हैं।

दीदी, मैं बार-बार सुनता हूं कि सरकार कहती है कि हमने इतने बेड बना दिए, कितने सेंटर खोल दिए और लोग भी अस्पतालों की जरूरत पर तो बात करते हैं लेकिन कोई ये नहीं पूछता कि हम हर साल कितने कम डॉक्टर तैयार करते हैं। जब तक आपके पास ढेर सारे पैसे न हों आप डॉक्टर नहीं बन सकते। ऐसे तो गरीब और पिछड़े लोग तो डॉक्टर बन ही नहीं सकते। और आप इन अस्पतालों में डॉक्टर की कमी कहां से पूरा करोगे? मेरा मानना है कि ये सब महंगी शिक्षा और निजीकरण की समस्या है, जिस पर कोई ध्यान नहीं देता।

जब मैं इन युवाओं से बात कर रही थी तो मुझे ये समझ आ रहा था कि कैसे ये युवा अपना ध्यान लगातार महामारी पर बनाए रखने पर मजबूर थे। कैसे महामारी की समस्या उनकी रोजमर्रा की समस्याओं से गहराई से आकर जुड़ गई थी, जिसके चलते वे अन्य किसी चीज़ को उतनी तवज्जो नहीं दे सकते थे, जितना समाज के सक्षम वर्ग दे रहे थे। कहना न होगा कि इन युवाओं ने अपनी चर्चा में सरकारी फिजूलखर्ची, शिक्षा के निजीकरण से लेकर घरेलू हिंसा जैसे गंभीर मुद्दों को उठाया जो कि महामारी के दौरान और भी ज्यादा अहम सवाल बन जाते हैं।

ये युवा जब इन सवालों से जूझते हुए जमीनी स्तर पर काम कर रहे थे तो उनके पास इतना समय नहीं था कि वे मुख्यधारा की बहसों में हिस्सा ले सकते थे। रंजन बीएससी करने के साथ-साथ एक लैब में नौकरी करते हैं और उम्मीद ग्रुप के बाकी सभी सदस्य अभी कॉलेजों में पढ़ाई रहे हैं और उनके ऊपर ढेर सारी आर्थिक जिम्मेदारियां भी हैं। इन सभी की उम्र अभी काफी कम है।

जब मैं उनसे उनके इन प्रयासों की महत्ता के बारे में सवाल करती हूं तो स्वाति कहती हैं:

हम ज्यादा कुछ तो कर नहीं सकते। खुशी तो होती है जब हम थोड़ा बहुत ही सही लेकिन लोगों की मदद कर पाते हैं, लेकिन ये काम सरकारों के हैं। इसीलिए हम अपने तमाम कामों के लिए स्थानीय नेताओं, अफसरों के पास भी जाते हैं। किन्हीं कामों में हमें नगर सेवक की अनुमति लेनी पड़ती है और हम उनसे अपनी बस्ती की समस्याओं को लेकर बात करने जाते हैं। हमें कभी-कभी उनसे मदद मिल जाती है, कभी नहीं भी मिलती। लेकिन हम इतना जानते हैं कि हमारा काम बहुत ज़रूरी है भले ये कितना ही छोटा क्यों न हो!



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