उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में एक गांव है, सरमोली. यहां की वन पंचायत को राज्य की सबसे बेहतरीन जगहों में गिना जाता है. वजह? इस वन पंचायत की सरपंच मल्लिका विर्दी कहती हैं, “जहां भी जंगल लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं, जंगल स्वस्थ हैं.”
असल में, सरमोली वन पंचायत ने स्वतः संज्ञान लेकर सामुदायिक वनों का प्रबंधन शुरू किया है, जिसमें यह ध्यान रखा जाता है कि वनोपजों का इस्तेमाल टिकाऊ विकास के मानक के अनुरूप हो. मिसाल के तौर पर, विर्दी के गांव में, समुदाय के लोग जंगलों से झाड़ियां साफ करते हैं, खरपतवार निकालते हैं और अच्छी गुणवत्ता वाली घास हासिल करते हैं. सरपंच विर्दी के मुताबिक, “अगर जंगलों को ऐसे ही छोड़ दिया जाए, तो झाड़ियां पेड़ों की तरह लंबी हो जाएंगी. इसलिए वनों का प्रबंधन आवश्यक है.”
2020-21 के उत्तराखंड आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, उत्तराखंड में 51,125 वर्ग किलोमीटर के कुल क्षेत्र में से लगभग 71.05 फीसद भूमि वनाच्छादित है. इसमें से 13.41 फीसद वन क्षेत्र वन पंचायतों के प्रबंधन के अंतर्गत आता है और राज्य भर में ऐसे 12,167 वन पंचायत हैं.
उत्तराखंड की खासियत है कि हर वन पंचायत स्थानीय जंगल के उपयोग, प्रबंधन और सुरक्षा के लिए अपने नियम खुद बनाती है. ये नियम वनरक्षकों के चयन से लेकर बकाएदारों को दंडित करने तक हैं. सरमोली के विर्दी गांव में, जंगल की सुरक्षा के पंचायती कानून के तहत जुर्माना 50 रुपये से 1,000 रुपये तक है.
असल में, स्थानीय तौर पर वनों के संरक्षण की जरूरत इस संदर्भ में और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती हैं, जब उत्तराखंड के जंगल दावानल से जूझ रहे हैं. वैसे, वन पंचायतें ज्यादातर एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से काम करती हैं, लेकिन सहयोग की मिसालें भी मिलती हैं. सरमोली में ही, जाड़ों में ग्रामीणों को अपने ही जंगल से पर्याप्त घास नहीं मिलती है, वे अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए शंखधुरा के निकटवर्ती गांव में जंगल जाते हैं.
पर इन वन पंचायतों की असली भूमिका, वन संसाधनों के इस्तेमाल को दोहन में तब्दील होने से बचाने की भी है. यहां जून से सितंबर तक मॉनसून में ग्रामीणों और उनके मवेशियों के जंगल में जाने की मनाही होती है. इस अवधि के दौरान, लोग गांव के भीतर से ही अपने मवेशियों के लिए घास और चारे की व्यवस्था करते हैं. कुछ जंगलों में गश्त करने और घुसपैठियों को पकड़ने के लिए ग्रामीणों को भी तैनात किया जाता है.
इस उदाहरण को देश के अन्य जंगलों में भी लागू किया जा सकता है. स्थानीय रूप से जरूर कानून रहे होंगे, और वनोपज के इस्तेमाल को लेकर वनाधिकार कानून भी हैं पर कानून लागू करने में किस स्तर की हीला-हवाली होती है, वह छिपी नहीं है. मसलन, मेरे गृहराज्य झारखंड में मैंने संताल जनजाति की स्त्रियों को जंगल जाकर साल के पत्ते, दातुन आदि लाते देखा है. वे शाम को लौटते वक्त कई दफा लैंटाना (झाड़ी) भी काट लाती हैं जलावन के लिए, पर उन्हें यह छिपाकर लाना होता है. अगर वन विभाग थोड़े दिमाग का इस्तेमाल करे तो लैंटाना जैसी प्रजाति, जिसके कर्नाटक के जंगल में प्रति वर्ग किमी उन्मूलन के लिए दस लाख रूपए से भी अधिक की लागत आती है, का सफाया मुफ्त में हो सकता है.
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लैंटाना ने वन विभाग को परेशान किया हुआ है. वन विभाग चाहे तो स्थानीय लोगों को जंगल के भीतर से इस झाड़ी को काटकर लाने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है.
वनोपजों और उसके प्रबंधन की बात करते हुए मुझे अक्सर ओडिशा के नियामगिरि के जरपा गांव में एक कोंध-डंगरिया महिला की बात याद आती है, जिनके लिए नियामगिरि पर्वत एक पहाड़ भर नहीं था. उसने मुझसे कहा था- “ये हमारे नियामराजा हैं, हमारे घर, हमारा मंदिर, कचहरी, अस्पताल सब”.
जंगलों को अगर इस निगाह से देखने लगें और उसकी उपज के दोहन का नहीं, इस्तेमाल और प्रबंधन की जिम्मेदारी और अधिकार स्थानीय समुदायों को दें, तो वन संरक्षण का मामला सरल हो सकता है, पर सवाल नीयत पर जाकर अटक जाता है.
कवर तस्वीर IANS पर प्रकाशित वर्षा सिंह की स्टोरी से साभार है