प्रेस विज्ञप्ति / न्यूयॉर्क
ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि भारत में सरकारी तंत्र ने मुसलमानों के खिलाफ सुव्यवस्थित रूप से भेदभाव करने और सरकार के आलोचकों को बदनाम करने वाले कानूनों और नीतियों को अपनाया है. सत्तारूढ़ हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार में अन्तर्निहित पूर्वाग्रहों ने पुलिस और अदालत जैसी स्वतंत्र संस्थाओं में पैठ बना ली है, यह बेख़ौफ़ होकर धार्मिक अल्पसंख्यकों को धमकाने, उन्हें हैरान-परेशान करने और उनपर हमले करने की खातिर राष्ट्रवादी समूहों को लैस कर रही है.
23 फरवरी, 2021 को दिल्ली सांप्रदायिक हिंसा के एक साल पूरे हो रहे हैं जिसमें 53 लोग मारे गए थे. मृतकों में 40 मुस्लिम थे. भाजपा नेताओं द्वारा हिंसा भड़काने और हमलों में पुलिस अधिकारियों की संलिप्तता के आरोपों समेत पूरे मामले की विश्वसनीय और निष्पक्ष जांच करने के बजाय, सरकारी तंत्र ने कार्यकर्ताओं और विरोध प्रदर्शन के आयोजकों को निशाना बनाया है. सरकार ने हाल ही में एक अन्य जन प्रतिरोध, इस बार किसान आन्दोलन पर कार्रवाई की है. इसने अल्पसंख्यक सिख प्रदर्शनकारियों को बदनाम किया है और अलगाववादी समूहों के साथ उनके कथित जुड़ाव की जांच शुरू कर दी है.
ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “भाजपा द्वारा अल्पसंख्यकों की कीमत पर हिंदू बहुसंख्यकों को आलिंगनबद्ध करने के प्रयासों का सरकारी संस्थानों पर भी असर हुआ है, जो बिना भेदभाव के कानून द्वारा समान संरक्षण की अनदेखी कर रहे हैं. सरकार न सिर्फ मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों को हमलों से सुरक्षा प्रदान करने में नाकामयाब हुई है, बल्कि वह कट्टरपंथियों को राजनीतिक संरक्षण प्रदान कर रही है और उनका बचाव कर रही है.”
सरकार के भेदभावपूर्ण नागरिकता कानून और प्रस्तावित नीतियों के खिलाफ सभी धर्मों के भारतीयों द्वारा महीनों तक चलाए गए शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों के बाद, फरवरी 2020 में दिल्ली में हमले हुए. भाजपा नेताओं और समर्थकों ने राष्ट्रीय हितों के खिलाफ साजिश का आरोप लगाकर प्रदर्शनकारियों, खास तौर से मुसलमानों को बदनाम करने की कोशिश की.
इसी तरह, विभिन्न धर्मों के हजारों-हजार किसानों द्वारा नवंबर 2020 में सरकार के नए कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन शुरू किए जाने के बाद भाजपा के वरिष्ठ नेताओं, सोशल मीडिया पर उनके समर्थकों और सरकार परस्त मीडिया ने एक अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक, सिखों को बदनाम करना शुरू कर दिया. उन्होंने 1980 और 90 के दशक में पंजाब के सिख अलगाववादी विद्रोह का हवाला देते हुए सिखों पर यह आरोप लगाया कि उनका “खालिस्तानी” एजेंडा है. 8 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में विभिन्न शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में भाग लेने वाले लोगों को “परजीवी” बताया और भारत में बढ़ते सर्वसत्तावाद की अंतर्राष्ट्रीय आलोचना को “विदेशी विनाशकारी विचारधारा” कहा.
26 जनवरी को पुलिस और प्रदर्शनकारी किसानों, जिन्होंने दिल्ली में प्रवेश करने के लिए पुलिस बैरिकेड्स तोड़ डाले थे, के बीच हिंसक झड़पों के बाद सरकार ने पत्रकारों के खिलाफ निराधार आपराधिक मामले दर्ज किए, कई जगहों पर इंटरनेट बंद कर दिया, ट्विटर को पत्रकारों और समाचार संस्थानों सहित लगभग 1,200 एकाउंट्स बंद करने का आदेश दिया जिनमें से कुछ को बाद में ट्विटर ने बहाल कर दिया. विरोध प्रदर्शनों के बारे में जानकारी प्रदान करने और सोशल मीडिया पर उन्हें मदद करने के तरीके बताने के लिए कथित रूप से एक दस्तावेज़ संपादित करने के लिए राजद्रोह और आपराधिक साजिश के आरोप में, सरकार ने 14 फरवरी को एक जलवायु कार्यकर्ता को गिरफ्तार किया, और दो अन्य लोगों के खिलाफ वारंट जारी किए.
हाल के वर्षों में सरकार द्वारा कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों और अन्य आलोचकों को निशाना बनाने के बढ़ते मामलों के बीच हालिया गिरफ्तारियां हुई हैं. सरकार ने अल्पसंख्यकों और कमजोर समुदायों के अधिकारों की रक्षा करने वालों को खास तौर पर परेशान किया है और उन पर मुकदमा चलाया है. भाजपा नेताओं और संबद्ध समूहों ने अल्पसंख्यक समुदायों, विशेष रूप से मुसलमानों को लंबे समय से राष्ट्रीय सुरक्षा और हिंदू जीवन शैली के लिए खतरा बताया है. उन्होंने इस दावे के साथ “लव जिहाद” का हौआ खड़ा किया है कि मुस्लिम पुरुष हिंदू महिलाओं का इस्लाम में धर्मान्तरण के लिए उन्हें बहला-फुसलाकर शादियां करते हैं, मुस्लिमों को अवैध प्रवासी या यहां तक कि उग्रवादी करार दिया और उन पर गोहत्या के मामले में हिंदू भावनाएं आहत करने का आरोप लगाया.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि 2014 में मोदी की भाजपा के सत्तासीन होने के बाद, इसने कई विधायी और अन्य कार्य किए हैं, जिन्होंने धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव को कानूनी जामा पहना दिया है और उग्र हिंदू राष्ट्रवाद की जड़ें मजबूत की हैं.
सरकार ने दिसंबर 2019 में मुसलमानों के साथ भेदभाव करने वाला नागरिकता कानून पारित किया जिसमें पहली बार धर्म को नागरिकता का आधार बनाया गया. अगस्त 2019 में, सरकार ने एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य, जम्मू और कश्मीर को दी गई संवैधानिक स्वायत्तता रद्द कर दी और लोगों के बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन करते हुए अनेकानेक प्रतिबंध लगा दिए. अक्टूबर 2018 से, भारत सरकार रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों को उनके जीवन और सुरक्षा के जोखिम के बावजूद म्यांमार निर्वासित करने की धमकी दे रही है, और अब तक एक दर्जन से अधिक रोहिंग्याओं को उनके स्वदेश वापस भेज चुकी है. राज्य सरकारें मुस्लिम मवेशी व्यापारियों पर गोहत्या निषेध संबंधी कानूनों के तहत मुक़दमें दर्ज करती हैं, जबकि भाजपा से संबद्ध समूह मुस्लिमों और दलितों पर इन अफवाहों के आधार पर हमले करते हैं कि उन्होंने गोमांस के लिए गौ-हत्या की या उनका व्यापार किया. हाल ही में, तीन भाजपा शासित राज्यों ने धर्मांतरण विरोधी कानून पारित किए हैं, व्यवहार में, जिनका इस्तेमाल हिंदू महिलाओं से शादी करने वाले मुस्लिम पुरुषों के खिलाफ किया जाता है.
ये कार्रवाइयां घरेलू कानून का और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के प्रति भारत के दायित्वों का उल्लंघन करती हैं. ये कानून नस्ल, नृजातीयता या धर्म के आधार पर भेदभाव का निषेध करते हैं या सरकारों के लिए आवश्यक बनाते हैं कि वे अपने निवासियों को कानून का सामान संरक्षण मुहैया करें. ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भारत सरकार धार्मिक और अन्य अल्पसंख्यक आबादी की सुरक्षा के वास्ते और उनके खिलाफ भेदभाव और हिंसा के लिए जिम्मेदार लोगों के विरुद्ध पूरी तरह और निष्पक्ष तौर पर कानूनी कार्रवाई करने के लिए भी बाध्य है.
गांगुली ने कहा, “भाजपा सरकार की कार्रवाइयों ने सांप्रदायिक नफ़रत की आग भड़काई है, समाज में गहरी दरारें पैदा की हैं, और अल्पसंख्यक समुदायों में सरकारी तंत्र के प्रति डर और अविश्वास को और ज्यादा गहरा किया है. एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के रूप में भारत की अवस्थिति पर गंभीर खतरे में है जब तक कि सरकार भेदभावकारी कानूनों और नीतियों को वापस नहीं लेती है और अल्पसंख्यकों के खिलाफ उत्पीड़न की खातिर न्याय सुनिश्चित नहीं करती है.”
विभेदकारी कानून और नीतियां
नवंबर में, भारत के उत्तर प्रदेश राज्य सरकार ने अंतर-धार्मिक संबंधों की रोकथाम के लिए एक कानून पारित किया. भाजपा नेता “लव जिहाद” मुहावरा का इस्तेमाल इस आधारहीन सिद्धांत को बढ़ावा देने के लिए करते हैं कि मुस्लिम पुरुष हिंदू महिलाओं को इस्लाम में परिवर्तित करने के लिए विवाह के जाल में फंसाते हैं. इस कानून, गैरकानूनी धर्मांतरण निषेध अध्यादेश के अनुसार धर्मांतरण को इच्छुक किसी भी व्यक्ति के लिए जिला प्रशासन की अनुमति लेना आवश्यक होगा और किसी अन्य व्यक्ति को जबरन, धोखाधड़ी, गलतबयानी या प्रलोभन से धर्मांतरण कराने पर 10 साल तक की सजा होगी. हालांकि, प्रकट रूप से यह कानून सभी जबरन धर्मांतरण पर लागू होता है, लेकिन इस पर अमल के दौरान हिंदू-मुस्लिम जोड़ों में मुख्य रूप से मुस्लिम पुरुषों को निशाना बनाया गया है.
इस कानून के प्रभावी होने के बाद, उत्तर प्रदेश सरकार ने 86 लोगों, जिनमें 79 मुस्लिम हैं, के खिलाफ “किसी महिला को प्रलोभन देने” और उसे इस्लाम में घर्मांतरण के लिए मजबूर करने का आरोप लगाते हुए मामले दर्ज किए हैं. सात अन्य लोगों पर महिलाओं को ईसाई धर्म में परिवर्तित होने के लिए दबाव डालने का आरोप लगाया है. सरकार ने यहां तक कि पूर्वव्यापी प्रभाव से गैरकानूनी तौर पर कानून का इस्तेमाल किया है, और कुछ मामलों में आरोपी मुस्लिम पुरुषों के परिवार के खिलाफ भी मामले दर्ज किए हैं. ज्यादातर मामलों में, शिकायतकर्ता खुद महिला नहीं बल्कि अंतर-धार्मिक रिश्तों का विरोध करने वाले उसके रिश्तेदार हैं.
ऐसे रिश्तों को बिल्कुल नकार देने वाले परिवारों और हिंदू राष्ट्रवादी समूहों के निशाने पर पहले से ही मौजूद अंतर-धार्मिक जोड़ों के बीच इस कानून ने काफी खौफ़ पैदा कर दिया है. नवंबर में, उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद उच्च न्यायालय को 125 अंतर-धार्मिक जोड़ों को संरक्षण देना पड़ा. भाजपा से सम्बद्ध समूहों समेत हिंदू राष्ट्रवादी समूहों ने अंतर-धार्मिक जोड़ों को खुलेआम हैरान-परेशान किया है और उन पर हमले किए हैं एवं उनके खिलाफ मामले दर्ज किए हैं.
5 दिसंबर को भाजपा समर्थक हमलावर हिंदू समूह, बजरंग दल के लोग मुस्लिम व्यक्ति से विवाहित एक 22 वर्षीय हिंदू महिला को जबरन पुलिस के पास ले गए. पुलिस ने महिला को सरकारी आश्रय-गृह भेज दिया और उसके पति और पति के भाई को धर्मांतरण विरोधी कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया. महिला ने आरोप लगाया कि चिकित्सकीय लापरवाही के कारण आश्रय-गृह में उसका गर्भपात हो गया. वह अपने पति के पास तभी लौट पाई जब उसने अदालत को अपने बालिग होने और अपनी पसंद से शादी करने के बारे में बताया.
भाजपा शासित राज्य मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश ने भी ऐसा कानून पारित किया है और हरियाणा एवं कर्नाटक सहित अन्य भाजपा शासित राज्य इस पर विचार कर रहे हैं. कई राज्यों – ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड – में पहले से ही धर्मांतरण विरोधी कानून हैं, जिनका इस्तेमाल अल्पसंख्यक समुदायों, खासकर ईसाइयों, जिनमें दलित और आदिवासी समुदाय शामिल हैं, के खिलाफ किया गया है.
दिसंबर 2019 में, मोदी प्रशासन भेदभावपूर्ण नागरिकता (संशोधन) अधिनियम पारित कराने में सफल रहा, जो पड़ोसी मुस्लिम-बहुल देशों अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के गैर-मुस्लिम अनियमित आप्रवासियों के शरण संबंधी दावों का तेजी से निपटारा करता है. “अवैध प्रवासियों” की पहचान के लिए राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के माध्यम से एक राष्ट्रव्यापी नागरिकता सत्यापन प्रक्रिया के लिए सरकार की कोशिशों के साथ इस कानून ने यह आशंका बढ़ा दी है कि लाखों भारतीय मुसलमानों के नागरिक अधिकार छीन लिए जा सकते हैं और उन्हें मताधिकार से वंचित किया जा सकता है.
सरकार द्वारा कानून पारित करने से पहले, गृह मंत्री अमित शाह ने सितंबर 2018 में दिल्ली की एक चुनावी रैली में कहा: “अवैध अप्रवासी दीमक की तरह हैं और जो अनाज हमारे गरीबों को मिलना चाहिए, उसे वे चट कर जा रहे हैं और हमारी नौकरियां छीन रहे हैं.” उन्होंने वादा किया कि “अगर हम 2019 में सत्ता में आते हैं, तो हर एक को खोज निकालेंगे और उन्हें वापस भेज देंगे.”
न्याय प्रणाली के पूर्वाग्रह
अनेक राज्यों में आपराधिक न्याय प्रणाली अधिकाधिक तौर पर भाजपा के भेदभावपूर्ण विचारों को परिलक्षित कर रही है, धार्मिक और अन्य अल्पसंख्यकों एवं सरकार के आलोचकों को निशाना बना रही है और सरकार के समर्थकों को सुरक्षा कवच प्रदान कर रही है.
दिल्ली दंगे
सरकार की नागरिकता नीतियों के कारण दिसंबर 2019 में हफ्तों तक चलने वाले राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शनों का आगाज हुआ. विरोध प्रदर्शनों के दौरान, कई मामलों में पुलिस ने उस वक्त हस्तक्षेप नहीं किया जब भाजपा से संबद्ध समूहों ने प्रदर्शनकारियों पर हमला किया. कम-से-कम तीन भाजपा शासित राज्यों में पुलिस ने अत्यधिक और अनावश्यक घातक बल का इस्तेमाल किया, जिसके कारण विरोध प्रदर्शनों के दौरान कम-से-कम 30 लोग मारे गए और बड़ी तादाद में लोग घायल हुए. कुछ भाजपा नेताओं ने प्रदर्शनकारियों को राष्ट्र-विरोधी और पाकिस्तान समर्थक कहा, जबकि अन्य नेताओं ने “गद्दारों को गोली मारो” नारे लगवाए.
23 फरवरी, 2020 को भाजपा नेता कपिल मिश्रा द्वारा शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों, जिनमें कई मुस्लिम थे, को बलपूर्वक हटाने की मांग करने के बाद भाजपा समर्थक उस क्षेत्र में एकत्र हुए, जिससे अलग-अलग समूहों के बीच झड़पें हुईं. स्थिति तब भड़क गई जब हिंदू भीड़ ने तलवार, लाठी, धातु के पाइप और गैसोलीन से भरी बोतलों से लैस होकर उत्तर-पूर्व दिल्ली के कई मुहल्लों में मुसलमानों को निशाना बनाया. मारे गए 53 लोगों में से अधिकांश मुस्लिम थे, हालांकि मृतक हिंदुओं में एक पुलिसकर्मी और सरकारी अधिकारी शामिल थे.
दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की एक स्वतंत्र जांच में पाया गया कि हिंसा “सुनियोजित और लक्षित” थी और मुसलमानों पर हमलों में कुछ पुलिसकर्मियों ने भाग लिया. 24 फरवरी, 2020 के एक वीडियो में यह साफ-साफ देखा गया कि कई पुलिसकर्मी सड़क पर गंभीर रूप से घायल पड़े पांच लोगों के साथ मारपीट कर रहे हैं और उन्हें अपनी देशभक्ति साबित करने हेतु भारत का राष्ट्रगान गाने के लिए मजबूर कर रहे हैं. पुलिस ने फिर उन्हें हिरासत में ले लिया. घायल लोगों में एक, 23 वर्षीय मुस्लिम नौजवान फैजान की चोटों की वजह से दो दिन बाद मौत हो गई. एक साल बाद, पुलिस का कहना है कि वह अभी भी वीडियो में दिख रहे पुलिसकर्मियों की पहचान करने की कोशिश कर रही है. सरकार ने अभी तक हिंसा में पुलिस की मिलीभगत के दूसरे आरोपों की जांच नहीं की है.
इसके विपरीत, दिल्ली पुलिस ने 18 कार्यकर्ताओं, छात्रों, विपक्ष के नेताओं और स्थानीय निवासियों के खिलाफ आतंकवाद और राजद्रोह सहित राजनीतिक से प्रेरित मामले दर्ज किए हैं. इन 18 लोगों में 16 मुस्लिम हैं. पुलिस केस व्यापक रूप से संदिग्ध लग रहे एक जैसे उदभेदन (डिस्क्लोजर) बयानों पर आधारित हैं. इसमें शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों के आयोजन और घोषणा से जुड़े व्हाट्सएप चैट और सोशल मीडिया संदेशों को नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के आयोजकों द्वारा भारत सरकार को बदनाम करने की एक बड़ी साजिश में संलिप्तता के सबूत के तौर पर पेश किया गया है.
सरकारी तंत्र ने कठोर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत मामले दर्ज किए हैं जो अवैध गतिविधि, आतंकवादियों के लिए धन मुहैया कराने और आतंकवाद की योजना बनाने एवं इसे अंजाम देने से संबंधित है. उन्होंने अन्य कथित अपराधों के साथ विरोध प्रदर्शन के आयोजकों और कार्यकर्ताओं पर राजद्रोह, हत्या, हत्या के प्रयास, धार्मिक वैमनस्य बढ़ाने और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के आरोप भी लगाए हैं. जिन लोगों पर आरोप लगाये गए, वे सभी भाजपा सरकार और नागरिकता कानून के आलोचक रहे हैं. इनमें शामिल हैं: छात्राओं का एक स्वायत्त समूह, पिंजरा तोड़; धार्मिक अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिए काम करने वाला समूह, यूनाइटेड अगेंस्ट हेट; और जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में छात्र के प्रदर्शनों का नेतृत्व करने वाली जामिया कोआर्डिनेशन कमिटी.
अदालत ने इस मामले में आरोपित केवल दो लोगों को जमानत दी है. इनमें एक को जमानत देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि पुलिस इस बात को प्रमाणित करने के लिए कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर पाई कि आरोपी ने आतंकवाद से सम्बंधित कोई अपराध किया है.
दिल्ली पुलिस ने जांच में पक्षपात के आरोपों से इनकार करते हुए कहा कि दोनों समुदायों से लगभग एक समान संख्या में लोगों पर मामले दर्ज किए गए हैं. कार्यकर्ताओं के खिलाफ मामलों के अलावा, जिन 1,153 लोगों के खिलाफ दंगा करने के आरोप अदालत में दायर किए गए, उनमें 571 हिंदू और 582 मुस्लिम हैं. हालांकि, कार्यकर्ताओं का कहना है कि पुलिस ने मुसलमानों के खिलाफ आरोपों की जांच करने और उन्हें गिरफ्तार करने पर अधिक जोर लगाया है. पीड़ित मुसलमानों और गवाहों ने बताया कि पुलिस ने शुरू में उनकी एकदम नहीं सुनी, उनकी शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया, और जब पुलिस ने उनके बयानों के आधार पर मामले दर्ज भी किए, तो हमलों में कथित तौर पर संलिप्त भाजपा नेताओं या पुलिस अधिकारियों के नामों को शिकायत में दर्ज नहीं किया. पुलिस ने इन मामलों में मुस्लिम पीड़ितों को फंसाया भी है.
मुसलमानों की गिरफ्तारी के कई मामलों में, ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि पुलिस ने आपराधिक संहिता प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया, जैसे कि गिरफ्तारी वारंट प्रस्तुत करना, गिरफ्तार व्यक्ति के परिवार को सूचित करना और उन्हें आधिकारिक पुलिस केस यानी प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) की एक प्रति देना या गिरफ्तार लोगों की पूछताछ के दौरान और साथ ही पूरे मामले में कानूनी परामर्शदाता तक उनकी पहुंच सुनिश्चित करना. कुछ मामलों में, भाजपा नेताओं और पुलिस अधिकारियों की पहचान करने में सफल रहने वाले मुस्लिम परिवारों ने बताया कि उन्होंने जब शिकायतें दर्ज कराईं तो शिकायतें वापस लेने के लिए उनपर काफी दबाव डाला गया.
दंगा पीड़ितों का मुकदमा लड़ने वाले वकीलों ने भी यह आरोप लगाया कि पुलिस ने उन्हें जांच के दायरे में रखा है. दिसंबर में, दिल्ली पुलिस ने कई दंगा पीड़ितों का मुकदमा लड़ रहे प्रमुख मुस्लिम वकील महमूद प्राचा के कार्यालय पर छापा मारा. पुलिस ने प्राचा पर दिल्ली हिंसा के एक मामले में जाली दस्तावेज बनाने और एक व्यक्ति को झूठी गवाही के लिए बहकाने का आरोप लगाया. प्राचा के दफ्तर पर पुलिस छापे के एक दिन बाद, कुछ दंगा पीड़ितों ने एक न्यूज़ कांफ्रेंस कर पुलिस पर आरोप लगाया कि उन्हें यह बयान देने के लिए मजबूर किया गया कि प्राचा ने उन पर झूठी शिकायतें दर्ज करने के लिए दबाव बनाया था. सैकड़ों वकीलों ने छापे की निंदा की है, इसे वकील-मुवक्किल विशेषाधिकार पर हमला बताया, और कहा कि इसका मकसद प्राचा और उनके मुवक्किलों को डराना है.
इस बीच, दिल्ली पुलिस ने जुलाई में अदालत को बताया कि उसके पास भाजपा नेताओं के खिलाफ “कार्रवाई योग्य कोई सबूत” नहीं है, जबकि भाजपा नेताओं द्वारा हिंसा की वकालत करने वाले वीडियो मौजूद हैं, गवाहों की शिकायतें हैं, और पुलिस द्वारा अदालत में प्रस्तुत व्हाट्सएप चैट के ट्रांसक्रिप्ट्स (प्रतिलिपियां) हैं जो बताते हैं कि हिंदू दंगाइयों को भाजपा नेताओं से प्रेरणा मिली.
इससे पहले, फरवरी 2020 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने दंगा संबंधी याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए, हिंसा के लिए उकसाने वाले भाजपा नेताओं के खिलाफ मामले दर्ज नहीं करने के दिल्ली पुलिस के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा था कि इससे गलत संदेश गया और उन्हें बेख़ौफ़ होकर काम करने दिया गया. अदालत के आदेशों पर कार्रवाई करने के बजाय, सरकार ने पीठासीन न्यायाधीश का दूसरे राज्य में तबादला का तुरंत आदेश जारी कर उन्हें दंगा संबधी मामलों की सुनवाई से अलग कर दिया. सम्बंधित न्यायाधीश के इस तबादले के समय पर सवाल उठे. नए न्यायाधीश ने सरकारी वकील की इस दलील को स्वीकार कर लिया कि पुलिस शिकायत दर्ज करने के लिए अभी स्थिति “अनुकूल” नहीं है.
दंगा संबंधी जमानत की अनेक सुनवाइयों में, अदालतों ने दंगा पीड़ितों को निशाना बनाने वाली पुलिस जांच पर संदेह जताया है; कम-से-कम पांच मामलों में अदालतों ने पुलिस अधिकारियों की गवाही स्वीकार करने से इनकार कर दिया या इसके प्रति उदासीनता दिखलाई.
जम्मू और कश्मीर
अगस्त 2019 में, भारत सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्वायत्तता रद्द किए जाने के बाद, इसने व्यापक प्रतिबंध लगाए और मनमाने ढंग से पदधारकों, राजनीतिक नेताओं, कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और वकीलों समेत हजारों लोगों को हिरासत में ले लिया. सरकार ने इनमें बहुत से लोगों के परिवारों को उनके ठिकाने के बारे में बताए बगैर हिरासत में ले लिया; कई लोगों को राज्य के बाहर की जेलों में भी भेज दिया गया. हिरासत में लिए गए लोगों के बारे में जानकारी के लिए और गैर कानूनी हिरासत को चुनौती देते हुए उनके परिवारों द्वारा अदालतों में सैकड़ों बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर की गईं.
यद्यपि भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय कानून दोनों के तहत हिरासत की वैधता की न्यायिक समीक्षा की मांग संबंधी एक कानूनी कार्रवाई, बंदी प्रत्यक्षीकरण, को मूलभूत मानवाधिकार माना जाता है, फिर भी अदालतों ने ज्यादातर मामलों में इससे जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई को एक साल से अधिक समय तक के लिए टाल दिया. 5 अगस्त, 2019 के बाद जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में दायर 554 बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं में, अदालत ने सितंबर 2020 तक केवल 29 मामलों में फैसला सुनाया था. ऐसे 30 प्रतिशत से अधिक मामले इसलिए अप्रासंगिक हो गए क्योंकि अदालत में बंदियों की याचिका पर सुनवाई से पहले ही सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया था. जबकि 65 प्रतिशत मामले एक साल बाद भी लंबित हैं, बहुत से मामलों में व्यक्ति की हिरासत के एक साल बाद भी ऐसी स्थिति है. जम्मू और कश्मीर के मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में कड़े और भेदभावपूर्ण प्रतिबंध अब भी जारी हैं, दर्जनों लोग बिना किसी आरोप के हिरासत में हैं और सरकार की आलोचना करने वालों को गिरफ्तारी की धमकी का सामना करना पड़ रहा है.
अगस्त 2019 में, सरकार ने पूरे राज्य में इंटरनेट पर व्यापक प्रतिबंध लगा दिया. जनवरी 2020 में, इसने केवल कुछ वेबसाइट्स तक पहुंच के साथ ब्रॉडबैंड और धीमी गति वाली 2जी इंटरनेट सेवा की इजाज़त दी. मार्च में, सरकार ने वेबसाइट्स पर प्रतिबंध हटा लिए, लेकिन मोबाइल इंटरनेट सेवाओं की केवल 2जी स्पीड पर, जिस स्पीड पर वीडियो कॉल, ईमेल अथवा फ़ोटो या वीडियो वाले वेब पेज जैसी सेवाओं तक पहुंच मुमकिन नहीं होती है. आख़िरकार सरकार ने निलंबन के 18 माह बाद फरवरी 2021 में 4जी मोबाइल इंटरनेट सेवाएं बहाल की.
सरकार पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर शिकंजा कसना जारी रखे हुई है. गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत राजनीतिक रूप से प्रेरित आतंकवाद संबंधी आरोप मढ़ रही है और उन्हें परेशान करने एवं डराने के लिए आतंकवाद निरोधी कार्रवाइयों का उपयोग कर रही है.
निगरानी समूहों को नई ताकत
‘गौरक्षक’ समूह
बहुतेरे हिंदुओं द्वारा पवित्र मानी जाने वाली गाय की रक्षा के लिए भाजपा नेताओं ने बढ़-चढ़ कर बयान दिए हैं. धार्मिक और नृजातीय अल्पसंख्यक ज्यादातर गोमांस खाते हैं और इस तरह के बयानों से कुछ मामलों में उनके खिलाफ हिंसा को बढ़ावा मिला है.
कई भाजपा शासित राज्यों ने गौहत्या की रोकथाम के लिए सख्त कानून बनाए हैं और गौरक्षा नीतियां लागू की हैं, ये कदम हिंदू राष्ट्रवाद को बढ़ावा देते हैं और अल्पसंख्यक समुदायों को ज्यादातर तौर पर नुकसान पहुंचाते हैं. अनेक नए कानूनी प्रावधान गौहत्या को एक संज्ञेय, गैर-जमानती अपराध बनाते हैं और निर्दोष माने जाने के अधिकार का उल्लंघन करते हुए आरोपियों पर यह जिम्मेदारी डाल देते हैं कि वे खुद को बेगुनाह साबित करें. भाजपा की नेतृत्व वाली राज्य सरकारों द्वारा गौरक्षा संबंधी नीतियों के साथ-साथ भाजपा नेताओं की सांप्रदायिक बयानबाजी ने गौरक्षकों समूहों को नए साहस से भर दिया है.
मई 2015 के बाद, इन कथित गौरक्षक समूहों के हमलों में कम-से-कम 50 लोग, जिनमें ज्यादातर मुस्लिम हैं, मारे गए हैं और सैकड़ों घायल हुए हैं. इनमें अनेक गौरक्षक समूह ऐसे हमलावर हिंदू समूहों से संबद्ध होने दावा करते हैं, जो अक्सर भाजपा से संबंध रखते हैं. पुलिस ने अक्सर आक्रमणकारियों के खिलाफ अभियोजन को बाधित किया है, जबकि कई भाजपा नेताओं ने सार्वजनिक रूप से हमलों को सही ठहराया है. कई मामलों में, पुलिस ने गौहत्या निषेध कानूनों के तहत पीड़ितों के परिवार के सदस्यों और उनके सहयोगियों के खिलाफ शिकायतें दर्ज की हैं, जो गवाहों और परिवारों में न्याय पाने की कोशिश के प्रति डर पैदा करते हैं.
यहां तक कि सरकारी तंत्र ने अवैध रूप से गौहत्या करने वाले संदिग्धों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का भी इस्तेमाल किया है – यह एक दमनकारी कानून है जो बिना किसी आरोप के संदिग्धों को एक वर्ष तक हिरासत में रखने की अनुमति देता है. साल 2020 में, उत्तर प्रदेश सरकार ने गौहत्या निषेध कानून के तहत गौहत्या के आरोपों में कम से कम 4,000 लोगों को गिरफ्तार किया, और गौहत्या के आरोपी 76 लोगों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का इस्तेमाल किया.
इस्लामोफोबिया भड़काना
मार्च में कोविड-19 के उभार के बाद कई हफ्तों तक भाजपा सरकार ने कोविड मामलों में उछाल के लिए दिल्ली में आयोजित एक सार्वजनिक धार्मिक सभा को ज़िम्मेदार ठहराया जिसका आयोजन अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक मिशनरी आंदोलन, तबलीगी जमात ने किया था. इस घटनाक्रम ने इस्लामोफोबिया के प्रसार को आवेग दिया, कुछ भाजपा नेताओं ने इस सभा को “तालिबानी अपराध” और “कोरोना आतंकवाद” बताया और सरकार परस्त टेलीविज़न चैनल्स और सोशल मीडिया ने इस सभा में शिरकत करने वालों और आम तौर पर भारतीय मुस्लिमों को इस उभार के लिए न सिर्फ जिम्मेदार ठहराया बल्कि इसे जान-बूझकर फ़ैलाने का भी आरोप लगाया.
सोशल मीडिया और व्हाट्सएप पर ऐसे फेक वीडियो वायरल हुए जिसमें दावा किया गया कि मुसलमानों ने जानबूझकर वायरस फैलाया. इससे हफ्तों तक मुस्लिमों के साथ दुर्व्यवहार का दौर जारी रहा, उनके व्यवसाय का और उनका व्यक्तिगत रूप से बहिष्कार किया गया और राहत सामग्री बांटने वाले स्वयंसेवकों समेत मुसलमानों पर अनगिनत हमले हुए.
देश भर में राज्य सरकारों ने भी कथित रूप से वीजा शर्तों का उल्लंघन करने और जमात की सभा में भाग लेकर कोविड-19 संबंधी दिशानिर्देशों की जानबूझकर अवहेलना करने के लिए 2,500 से अधिक विदेशी नागरिकों के खिलाफ मामले दर्ज किए. कई राज्यों में अदालतों ने अभियुक्तों को बरी कर दिया और साक्ष्य रहित “दुर्भावनापूर्ण” मुकदमों के लिए सरकारों की कड़ी आलोचना की. बम्बई उच्च न्यायालय ने अगस्त में जमात की धार्मिक सभा में भाग लेने वाले 35 लोगों के खिलाफ, जिनमें 29 विदेशी नागरिक थे, मामले रद्द करते हुए कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि देश भर में नागरिकता नीतियों का विरोध करने वाले भारतीय मुसलमानों को चेतावनी देने के लिए ये मामले दायर किए गए: “इस कार्रवाई ने अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय मुसलमानों को चेतावनी दी कि उनके खिलाफ किसी भी रूप में और किसी भी चीज़ के लिए कार्रवाई की जा सकती है.”
‘धार्मिक भावनाओं को आहत करने’ का दावा
सरकार की भेदभावपूर्ण नीतियों और कार्रवाइयों ने निगरानी समूहों को ताकत दी है जो इस आधार पर काम करते हैं कि वे बेख़ौफ़ होकर गैरकानूनी कार्य कर सकते हैं. सरकार के समर्थक सरकार की आलोचना करने वालों के खिलाफ आधारहीन शिकायत दर्ज करते हैं और साथ ही भाजपा समर्थक भीड़ अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों को धमकी देती है, उन्हें हैरान-परेशान करती है और उन पर हमला करती है.
जनवरी में उत्तर प्रदेश पुलिस ने, एक मुस्लिम स्ट्रीट वेंडर, 26 वर्षीय नासिर को हिरासत में लिया. उन पर हमलावर हिंदू समूह, बजरंग दल के सदस्यों ने ऊंची जाति के नाम की “ठाकुर” ब्रांड के जूते की बिक्री करके उन्हें अपमानित करने का आरोप लगाया था. सोशल मीडिया और अन्य जगहों पर बहुत आलोचना के बाद, पुलिस ने नासिर को हिरासत में लेने से इनकार कर दिया और उन पर समूहों के बीच वैमनस्य को बढ़ावा देने के आरोपों को वापस ले लिया. लेकिन पुलिस ने कहा कि वह अभी भी भावनाएं आहत करने और इरादतन अपमान करने के आरोपों की जांच कर रही है.
हिंदू राष्ट्रवादी प्रतिघात के बाद हिंसा की आशंका से मंहगे ज्वेलरी चेन स्टोर, तनिष्क ने अक्टूबर में अपना एक विज्ञापन वापस ले लिया. विज्ञापन में एक मुस्लिम परिवार को उसकी हिंदू बहू की गोद भराई रस्म करते दिखाया गया था; इसका विरोध करने वालों ने कहा कि यह “व जिहाद” या अंतर-धार्मिक विवाह को बढ़ावा देता है. कंपनी को सोशल मीडिया पर विद्वेषपूर्ण ट्रोलिंग, एक स्टोर पर अपने कर्मचारियों के खिलाफ हमले की धमकी और बहिष्कार अभियान के खतरों का सामना करना पड़ा.
भारतीय दंड संहिता की धारा 295ए, जो धार्मिक भावनाओं को अपमानित करने के मकसद से दिए गए “जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण” भाषण को अपराध करार देती है, जैसे कानूनी प्रावधानों का बहुसंख्यकों द्वारा असहमति रखने वालों को चुप कराने के लिए अधिकाधिक इस्तेमाल किया जा रहा है. पुलिस झूठी शिकायतों के आधार पर गिरफ्तारी करती है जबकि सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि कानून धर्म के अपमान के हर कृत्य को दंडित नहीं करता है. यह साबित किया जाना चाहिए कि कोई कार्रवाई दुर्भावनापूर्ण या सुनियोजित थी और केवल धर्म का निकृष्ट अपमान, जिसमें सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने की प्रवृत्ति हो सकती है, के लिए ही दंडित किया जा सकता है. ह्यूमन राइट्स वॉच लंबे समय से धारा 295ए को निरस्त करने की मांग करता रहा है, जिसमें ऐसी व्यापक भाषा का इस्तेमाल किया गया है जो अंतरराष्ट्रीय मानकों को पूरा नहीं करती.
नवम्बर में, हिंदू राष्ट्रवादियों ने नव-स्वतंत्र भारत की पृष्ठभूमि पर लिखे विक्रम सेठ के उपन्यास ए सूटेबल बॉय पर आधारित एक टेलीविजन प्रोडक्शन के उस हिस्से पर आपत्ति जताई जिसमें एक मंदिर में अंतर-धार्मिक जोड़े का चुंबन दृश्य है. मध्य प्रदेश के भाजपा के गृह मंत्री ने इस “बेहद आपत्तिजनक सामग्री” की जांच का आदेश दिया और पुलिस ने इस कार्यकम को प्रसारित करने वाले ऑनलाइन प्लेटफार्म, नेटफ्लिक्स के दो अधिकारियों के खिलाफ धार्मिक भावनाओं का अपमान करने के लिए धारा 295ए के तहत आपराधिक मामला दर्ज किया.
अनेक मामलों में पुलिस ने मुसलमानों को हिंदू राष्ट्रवादी समूहों द्वारा दर्ज झूठे मामलों के आधार पर गिरफ्तार किया है और अदालतें उनमें अभिव्यक्ति और विचार की स्वतंत्रता के अधिकारों की पर्याप्त रूप से रक्षा करने में विफल रही हैं. नवंबर में, सरकार से सहानुभूति रखने वाले एक न्यूज़ एंकर को जमानत देते समय, सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि जमानत दस्तूर है जबकि जेल अपवाद और कहा कि आपराधिक कानून का इस्तेमाल “नागरिकों के चुनिंदा उत्पीड़न” के लिए नहीं किया जाना चाहिए. लेकिन पुलिस ने असहमति जताने, विरोध प्रदर्शन करने या विरोध प्रदर्शनों की रिपोर्टिंग के लिए सरकार के आलोचकों, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के खिलाफ अनुचित मामले दर्ज कर उन्हें हैरान-परेशान करना जारी रखा है. हाल ही में, उसने ऐसा दिल्ली में किसानों के प्रदर्शनों के दौरान किया, और अदालतों में जमानत देने का विरोध जारी रखा.
मध्य प्रदेश में न्यायालयों ने एक मुस्लिम स्टैंडअप कॉमिक, मुनव्वर फारुकी को जमानत देने से इनकार कर दिया, जिन्हें धारा 295ए के तहत कथित रूप से हिंदू भावनाओं को आहत करने वाले ऐसे हास्य के लिए गिरफ्तार किया गया, जिसे उन्होंने जाहिर तौर पर सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित नहीं किया था. पुलिस ने बाद में स्वीकार किया कि उसके पास ऐसे हास्य प्रदर्शन का कोई सबूत नहीं है. फारुकी और उनके पांच सहयोगियों – जिनमें तीन हिंदू, एक मुस्लिम और एक ईसाई शामिल हैं – को 1 जनवरी को राज्य पुलिस ने एक भाजपा नेता के बेटे द्वारा की गई शिकायत पर गिरफ्तार किया, जो एक हिंदू राष्ट्रवादी समूह का नेतृत्व भी करता है.
उक्त संगठन के लोगों की एक भीड़ ने यह कहते हुए फारुकी के शो को बाधित किया कि फारुकी ने हिंदू देवी-देवताओं पर “अभद्र” और “अश्लील” टिप्पणी की है. फारुकी की जमानत की सुनवाई के दौरान, खबरों के मुताबिक न्यायाधीश ने कहा कि “ऐसे लोगों को बख्शा नहीं जाना चाहिए.” फारुकी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जिसने 5 फरवरी को उन्हें जमानत दे दी. शीर्ष अदालत ने कहा कि मामले में लगाए गए आरोप अस्पष्ट हैं और पुलिस ने उनकी गिरफ्तारी से पहले उचित प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया है.
हालांकि, एक अन्य मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने वेब सीरीज़ तांडव के निर्माताओं को गिरफ्तारी से सुरक्षा देने से इनकार कर दिया. छह राज्यों में पुलिस ने 295ए और अन्य धाराओं के तहत दर्ज इन शिकायतों के आधार पर जांच शुरु की है कि इस सीरीज ने हिंदू धार्मिक भावना को आहत किया है. न्यायाधीशों ने यह कहते हुए जमानत से इनकार कर दिया कि “आप दूसरों की धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाली भूमिका नहीं निभा सकते.”
नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय समझौता, भारत ने जिसकी अभिपुष्टि की है, आपराधिक मामलों के संदिग्धों के लिए जमानत को प्रोत्साहित करता है. इसका अनुच्छेद 9 कहता है, “यह आम नियम नहीं होगा कि मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे व्यक्तियों को हिरासत में रखा जाएगा, सुनवाई के लिए उपस्थित होने की गारंटी के साथ रिहाई हो सकती है.”