बात बोलेगी: काया की कराह और निज़ामे मुल्क की आह के मद्देनज़र एक तक़रीर…


बहुत हो चुका जनता की तरफ से जनता के लिए बोलना। वक़्त आ चुका है कि अब उधर रुख़ किया जाए और उनकी तरफ से बोला जाए। वैसे भी, उधर से बोलने वालों का भारी टोटा पड़ा हुआ है। एक ठो मौलिक ट्वीट तक तो उनके पक्ष में कोई लिख नहीं पाता। तक़ाज़ा तो ये है कि आत्मनिर्भरता की मुहिम सरकार समर्थकों के लिए चलाना चाहिए और पहला काम उन्हें खुद ट्वीट लिखने लायक बनाना चाहिए। जब देश सरकारों से त्रस्त हो और सरकार की आलोचनाओं से ग्रसित हो फिर भी कोई समाधान होते न दिखे तो फेंस के उस तरफ जाकर देखना चाहिए। संभव है समाधान वहीं दुबक कर बैठा हुआ हो और कोई उसे देख ही न रहा हो। और इसमें सैद्धान्तिक व व्यावहारिक रूप से कोई समस्या भी नहीं है। ‘कुछ न होगा तो तजुरबा होगा’ जैसे परम संतोषधर्मी की बात की बखत फिर भी बनी रहेगी।

सुधिजन इसे डर से पैदा हुआ क्रियाकलाप कह सकते हैं। तो क्या डर से डरना इतना गैर-वाजिब है? बिलकुल नहीं। आखिर डर भी एक मानवीय भाव है। और मनुष्य मात्र है क्या? नव रसों से रचा-बना, सांसें लेकर ज़िंदा होने का सबूत देती एक काया। काया से इतर मानस, दिल, विचार, विचारधारा या मूल्यों का इतना भी मोल नहीं है कि वो काया को पार कर ले। फर्ज़ कीजिए, सरकार के खिलाफ कुछ सोचने मात्र से अगर पुलिस आपको उठा ले और चार डंडे आगे पीछे लगाए तो झेलना तो काया को ही है न! मन, विचार, मूल्य, ई सब अमूर्त बातें हैं। काया प्रत्यक्ष है। आज काया ने दो टूक शब्दों में कह दिया है कि पहले हमारी सुरक्षा का हलफ़ और इंतजामात करो, फिर विचारों की अय्याशी करते रहना। हमारा भी फर्ज़ बनता है कि काया की कराह पर कान दें।

किसी की भी बेवफाई अकेली नहीं होती, उसके पीछे होती हैं मजबूरियां। और बेवफाई किससे? किसकी कीमत पर? इस सबका भी आकलन किया जाना चाहिए। कई बार ज़रूरी नहीं है कि कोई किसी के लिए वफादारी निभाते हुए, किसी और के साथ बेवफाई कर ही रहा हो। मुमकिन है यह बात उसके जहन में हो ही नहीं कि वो जो कर रहा है वो किसी और के लिए परेशानी का सबब बन सकती है या फिर प्रकारांतर से उसे बेवफाई कह दिया जा सकता है।

वफादारी एक भाव है और उसे उसी तरह लिया जाना चाहिए। वफादार इंसान को हक़ है कि वो तय कर सके कि उसे किसके लिए वफादार होना है। इसमें इतना हाय तौबा मचाने की कायदे से ज़रूरत नहीं है। आपको उससे वफा की इतनी ही उम्मीद थी तो ये आपकी समस्या है। उसने ऐसा कब कहा कि वो आपके लिए वफादार होगा? क्या चुनावों में कहा था? तो क्या बाद में आपने स्पष्टीकरण नहीं सुना कि- चुनावों में कई बातें कह दी जाती हैं, वो जुमले होते हैं।

माने आप सोचते हैं कि वो आपसे एक वोट लेकर आपके लिए वफादार हो जाये और जिसने उसके कट-आउट्स बनवाए, गली-गली, नुक्कड़-नुक्कड़ लगवाए उससे तौबा कर ले? कमाल करते हैं आप। कभी अपनी तरफ भी देखिए कि आप वाकई कुछ ज़्यादा नहीं चाहते? कभी उसके जूते में अपने पैर डाल कर देखिए, सब पता लग जाएगा।

कहते हैं साँप के पैर नहीं होते। ये बात पूरी तरह सच नहीं है क्योंकि उसके साथ यह भी कहा जाता है कि साँप के पैर केवल साँप को दिखलायी देते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि साँप के पैर होते हैं लेकिन वो हर किसी को दिखलायी नहीं देते। और आपने या किसी ने भी कभी साँप के पैर देखने की कोई चेष्टा की? नहीं की होगी। आप कह देंगे कि पैर देखने जाएंगे तो वो डस लेगा। यानी आप इस डर से उसके पैर देखने की कोशिश नहीं करते हैं और बेसबब उसके बारे में बेवफाई के दर्द भरे नगमे गाने लगते हैं। अन्तर्मन से पूछिए कि क्या आपका ये रवैया ठीक है?

कभी आपके साथ ऐसा हुआ कि किसी ऐसी बात को जिसे आप कभी समझे नहीं, किसी और को समझाने के लिए कह दिया जाए? कभी ऐसा हुआ आपके साथ कि जिन बातों पर आपको भरोसा ही नहीं उन पर दूसरों का भरोसा जीतने के लिए आपको गणपति बना दिया जाए? क्या होगा अगर आपको उस ग्रंथ की शपथ दिला दी जाए जिसके बारे में आपके पूर्वज हमेशा कहते आए कि इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता? क्या होगा अगर आपको जाना दूसरे ग्रह पर हो और साधन के नाम पर आपके पास एक मोटर कार हो। आप क्या करेंगे?

ज़ाहिर है मोटर कार को अन्तरिक्ष यान में बदलने की कोशिश करेंगे। तो यहाँ क्या घास छीली जा रही है? आपको क्या लगता है इस संविधान से देश को हिंदू राष्ट्र बनाया जा सकेगा? नहीं न। तो ठीक है, इस संविधान रूपी मोटर कार को अन्तरिक्ष यान में बदलने की कोशिश में क्या बुराई है?

लोकतन्त्र, धर्मनिरपेक्षता, समता, समानता, बंधुत्व (बहनापा के अर्थ में भी) को आप क्या समझते हैं हर बेहतरी के नुस्खे? लेकिन क्या इसमें मनुस्मृति से संचालित समाज का कुछ उद्धार होगा? नहीं। कतई नहीं। हिंदू राष्‍ट्र को छोडि़ए, आप अपने गिरेबान में झाँकिए। क्या आपने अपने इर्द-गिर्द लोकतन्त्र की छोटी सी भी घास पनपने दी? क्या भाईचारा और बहनापा, धर्मनिरपेक्षता, समता, समानता और न्याय के लिए आप उन्‍हीं छोटी-छोटी कश्तियों पर सवार नहीं हैं जिनका निर्माण आपके दादाओं-परदादाओं ने किया था? कायदे से दूसरे ग्रह पर जाने के लिए जिस अन्तरिक्ष यान का निर्माण यहाँ सरकार कर रही है वो आपके लिए भी मुफीद ही है। आपको उसी का अभ्यास है और आपको उसी में रमने में मज़ा आता है।

इसीलिए जब विदेशी विचारधाराओं को देश के लिए विध्वंसक या सेहत के लिए हानिकारक बतलाया जाता है तो आपको वैलेंटाइन डे याद आने लगता है। ‘पाश्चात्य सभ्यता’ पर चर्चा कोई आज की बात नहीं है बल्कि कितनी पीढ़ियाँ जवान होकर बूढ़ी हो गयीं जिनसे इस विषय पर निबंध लिखवाये गए हैं और उन्हें ही श्रेष्ठ निबंध बतलाया गया है जिनमें भारतीय सभ्यता और संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ साबित किया गया था।

मान लीजिए कि पाश्चात्य सभ्यता अच्छी नहीं है। हर सभ्यता के पीछे कुछ विचार होते हैं, मूल्य होते हैं जिससे वह अनवरत चलती रहती है। आपके उसको बुरा कह देने से वह रुक नहीं जाती। सवाल बस ये है कि जब आप किसी सभ्यता को बुरा कहते या मानते हैं तो उसकी बुनियाद में बैठे उन विचारों और मूल्यों को भी बुरा मानने लगते हैं। किसी पब में लड़के-लड़कियों का एक साथ जाना, शराब पीना और नाचना अगर पाश्चात्य सभ्यता है और आपको यह बुरा लगता है, ऐन उसी समय आपको भारत एक मर्यादासम्पन्न समाज नज़र आने लगता है, तो मामला मर्यादा और बराबरी पर आधारित खुलेपन के बीच तुलना का हो जाता है और आप निस्‍संकोच मर्यादा को चुन लेते हैं। ऐसा करते ही आप बराबरी और उस पर आधारित खुलेपन की भर्त्‍सना कर देते हैं।

घर की बातें चौखट से बाहर नहीं जाना चाहिए। अपनी जांघ उघाड़ने से अपनी ही फजीहत होती है। ऐसी घुट्टियाँ पी-पी कर बड़े हुए आप, क्यों एतराज़ करेंगे भला इस बात पर, कि ग्रेटा या रेहाना या मीना हैरिस आपके देश के मामले में कुछ बोलें? लेकिन जब ‘आई कांट ब्रीथ’ की घटना अमेरिका में हो तो आपका बोलना बनता है क्योंकि आपने तो अपनी ज़िंदगी के कई जोड़ा बसंत दूसरे के घरों के मामले को चौराहों उछाल कर चटखारे लेने में बिताये हैं। यह आपका सामाजिक कर्तव्य है कि पड़ोसी की बारात में पनीर के टुकड़े की साइज़ नापें। न केवल नापें, बल्कि उसे दूसरों को बताएं भी और उसकी हंसी भी उड़ाएं। आपने उड़ायी।

कोई महिला नाफ़रमानी करे और उसे बर्दाश्त किया जाए इसकी शिक्षा शास्त्रसम्मत नहीं है। शास्त्र संचालित इस महादेश का निज़ाम अगर शास्त्रों से संचालित हो रहा है तो आपको क्यों आपत्ति होगी? बस पेंच इधर है कि ये निज़ाम ज़रा देर से आया वरना इस बीच अमेज़न से लेकर टेम्स और गंगा से लेकर गोदावरी तक कई-कई बार पानी बह गया। अब दुनिया किसी नामालूम डोर से आपस में जुड़ गयी। विलेज जो मर्यादा था, अब ग्लोबल हो गया। सभ्यता ने कई-कई रूप धारण कर लिए और घरों में घुसपैठ कर ली। लेकिन आप फिल्टर लगाना भूल गए।

आप भूल गए कि हमें विज्ञान से केवल तकनीकी सहूलियतें ही चाहिए न कि उसके तर्क, विश्लेषण स्थापनाएं जिनमें वो मनुष्य मात्र को एक ही तरह से पैदा होना बताता है न कि किसी के मुख, भुजा, उदर और पैरों से। अब इस भूल सुधार का मौका अगर आपको मिल रहा है तो आप लेंगे ही। हम कौन होते हैं ख्वामखां।

सरकार की मजबूरियों को समझते हुए और उससे भी ज़्यादा संभावित काया की कराह को तवज्जो देते हुए हमें समझना होगा कि अगर आपका नेता विदेशी विचारधाराओं को विनाशकारी बता रहा है और एक दिन न्यू इंडिया की न्यू संसद का शिलान्यास करते हुए आपको याद दिलाता है कि लोकतन्त्र पश्चिम में पैदा नहीं हुआ बल्कि वह यहीं इसी पावन धरती पर अवतरित हुआ था, तो आपको इस बात को गांठ बांध लेना चाहिए कि उनकी आस्था लोकतन्त्र में तो है लेकिन उसमें नहीं जिसमें समता, समानता, न्याय, भाईचारे और असहमति के अधिकारों के नींव के पत्थर लगे हैं बल्कि जो यहाँ जिस रूप में पैदा हुआ उसे ही वो लोकतन्त्र कहकर उसकी आस्था करना चाहते हैं। आप इसे बाबू राव का इस्टाइल कहकर हंसी में नहीं उड़ा सकते कि उसके यहाँ भैंस अंडे देती है और पूछे जाने पर वो बताता है कि उसने अपनी मुर्गी का नाम भैंस रख दिया और ये उसका इस्टाइल है।

तो निज़ाम और निज़ाम-उल-मुल्‍क की तमाम मजबूरियों को सि‍र माथे लेते हुए अब हम सब की ज़िम्मेदारी बनती है कि वफादारी की रस्मों से खुद को मुक्त करें, मजबूरियों के बोझ दबे उस बेवफा के प्रति नरमी से पेश आएं और मौका लगे तो अपने साथ खुद की गईं बेवफाइयों पर भी इनायते करम करते रहें।



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