राजनीतिक रिपोर्टिंग पर राज करने वाले लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार राज बहादुर की मृत्यु के राज़ भी राज़ रह जाएंगे। ख़ुद्दारी की चादर में लिपटी ना जाने कितने ही पत्रकारों की देह एक राज़ के साथ ख़ाक हो जाती है। राजबहादुर जी की मौत के साथ भी उनकी आर्थिक तंगी का राज़ चंद घंटों बाद ख़ाक हो जाएगा।
जीवन भर पत्रकारिता के सिवा किसी भी पेशे से दूर-दूर तक ना रिश्ता रखने वाले बड़े से बड़े पत्रकारों को जब तनख्वाह मिलना बंद हो जाए या उसकी नौकरी छूट जाए, दूसरी जगह नौकरी ना मिले तो पत्रकार का घर कैसे चलता होगा? उसके बच्चे कैसे पढ़ते होंगे? दवा का इंतेज़ाम कैसे होता होगा? आम जिन्दगी के आम खर्चे, बिजली का बिल और तमाम घर के खर्चों का इंतेज़ाम ना हो तो दिल और दिमाग पर इसका क्या असर होता होगा?
हृदयाघात होना ही है।
क्या आप जानते हैं कि लखनऊ में कितने ही अच्छे से अच्छे अखबारों/चैनलों के अच्छे से अच्छे पत्रकारों को कितने महीने से वेतन नहीं मिला! ऐसे लोगों का घर कैसे चल रहा है?
वेतनविहीन भुक्तभोगी पत्रकार ख़ुद्दारी की चादर ओढ़कर अपना हर दर्द खुद सहता रहता है। वो किसी के आगे हाथ नहीं फैलाता। दर्द और फिक्र दिल और दिमाग में जमा होती रहती है, और एक दिन हृदयाघात जिन्दगी की सारी मुश्किलों को आसान कर देता है।
सबकी लड़ाई लड़ने वाले पत्रकारों की तनख्वाह भी ना दी जाए तो आखिर उसकी लड़ाई कौन लड़ेगा, ये एक यक्षप्रश्न है।
राज, बहादुर थे, राजनीतिक रिपोर्टिंग के सिंह थे। लेकिन मीडियाकर्मियों की लाचारी के दौर में वो भी लाचार और असहाय ही थे।
उनकी खबरों में इतना वजन था कि वो जिस अखबार में भी होते थे उस अखबार की शान बढ़ जाती थी। वो दैनिक जागरण में नहीं थे] दैनिक जागरण उनसे था। वो पायनियर में नहीं थे, पायनियर उनसे था।
जागरण से विदाई होती तो पायनियर चले जाते। पायनियर में वेतन ना मिले तो क्या करते! आगे कोई विकल्प नहीं था।
क़रीब ग्यारह-बारह दिन पहले पिछले से पिछले शनिवार को आखिरी बार अपने अखबार पायनियर गए थे। सुबह का वक्त था, आफिस में सन्नाटा था। एक साथी पत्रकार ने देखा कि राजबहादुर जी कांप रहे हैं, उनका मुंह होंठ यहां तक कि आंख के नीचे का हिस्सा भी कांप रहा है। हालत अजीबोगरीब थी। बेटे को फोन किया गया। लारी ले जाया गया। वहां चार-पांच दिन भर्ती रहे। चिकित्सकों ने बताया कि इन्हें हृदय रोग, डायबिटीज के अलावा भी कई गंभीर समस्याएं हैं। इलाज के लिए पीजीआइ लाए गए। आज खबर आई कि उनका निधन हो गया।
लखनऊ प्रेस क्लब की वो टेबिल सूनी हो गई जहां वो दशकों से अकेले बैठते थे। वेतन ना मिलने का दर्द ना बांटने वाला, अपना दर्द खुद सहने वाला कोई श्रमजीवी पत्रकार शायद राजबहादुर की उस जगह को भर दे।
लेकिन यूपी प्रेस क्लब अपने सबसे बड़े जख्म को कैसे भरेगा। ज़ख्म गहरा है। श्रमजीवी पत्रकारों के हक़ और उनके नियमित वेतन के लिए लड़ाई लड़ने वाली पत्रकारों की ट्रेड यूनियन का सांस्कृतिक कार्यालय है यूपी प्रेस क्लब। यहां का सबसे सक्रिय पत्रकार कितने महीने से वेतन ना मिलने के दर्द को अकेले बैठकर सहता था, ये किसी को नहीं पता था।
आज इसी पत्रकार की मौत का शोर हर तरफ बरपा है।
श्रद्धांजलि!
लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार नावेद शिकोह की फ़ेसबुक दीवार से साभार प्रकाशित