नालंदा के नगरनौसा प्रखंड की 70 वर्षीय जानकी देवी को पिछले चार-पांच महीने से सरकारी राशन नहीं मिला है। दुकानदार के मुताबिक उनका नाम लिस्ट में नहीं है। नाम लिस्ट में नहीं था तो पहले राशन कैसे मिल रहा था? पड़ताल करने पर मालूम चला कि जानकी देवी को ब्लॉक कार्यालय में मृत घोषित किया हुआ है। ऐसा कैसे हुआ, किसी को नहीं पता। अगर ये भूल है, तो जानकी के घर में कोई नहीं है जो इस भूल में सुधार करवा सके। अब 70 साल की यह बुजुर्ग महिला सरकारी मुलाजिमों के सामने अपने जिंदा होने का सबूत पेश करती अकेले घूम रही है, वो भी बिना राशन-पानी के!
उत्तर प्रदेश के अनूपपुर से पंकज कुमार की कहानी और अजीब है। वे तो सरकारी काग़ज़ में भी जिंदा हैं, उनके पास राशन कार्ड भी है, तब भी उन्हें राशन नहीं दिया जा रहा। सरकारी डीलर और दुकानदार कहते हैं कि पहले कोरोना की वैक्सीन लगवाओ, फिर राशन लेने आओ। पंकज बताते हैं कि इस शर्त के चक्कर में कई परिवार राशन से वंचित हैं। सरकारी राशन के दुकानदार से जब पूछा गया कि उनके पास ऐसा फरमान कहां से आया, तो उसके पास कोई ठोस जवाब नहीं था। वैक्सिनेशन का हाल ये है कि दो दिन में ही टीके खत्म हो जा रहे हैं। इस नये पैंतरे से डीलर राशन की बचत कर रहे हैं, जिसे बाद में वे बाजार में बेचकर पैसे कमाएंगे।
दिवाली तक 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन उपलब्ध करवाने की प्रधानमंत्री की घोषणा की ज़मीनी हकीकत बहुत जुदा है। अगर लोगों को निशुल्क राशन और कम्युनिटी किचन जैसी सुविधाएं मिल पा रही होतीं तो ग्राउंड से वो आवाजें नहीं आती जो मोबाइलवाणी तक पहुंच रही हैं। मोबाइलवाणी पर कई राज्यों के ग्रामीण इलाकों से उन लोगों ने अपनी व्यथा बतायी है, जो इस तरह की योजनाओं के सुचारु होने की बाट जोह रहे हैं। बिहार के मुंगेर से अनीता देवी कहती हैं कि सरकार केवल अखबारों और टीवी पर बोल रही है कि हम राशन देंगे गरीबों को। वे कहती हैं:
हम गरीब हैं, लेकिन हमें तो कोई राशन नहीं मिला। विधवा हैं, पर पेंशन नहीं मिली। सारे कागजात हैं, जिनको लेकर एक बाबू से दूसरे बाबू की टेबल पर जाते हैं पर कोई सुनता ही नहीं। गांव में मनरेगा के तहत काम नहीं मिलता। बाहर काम करने जाओ तो पुलिस वाले भगा देते हैं। अब बताओ बच्चों का पेट कैसे भरें? सरकार कुछ दे नहीं रही, हम कुछ कमा नहीं सकते। अब तो भूख से मर ही सकते हैं बस।
अनीता देवी, मुंगेर, बिहार
सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना
माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 13 मई और 24 मई को कोरोना महामारी की दूसरी लहर से परेशान भारत के कुल 8 करोड़ प्रवासी मजदूरों के लिए केंद्र और राज्यों को आदेश दिए कि वे अपने जिले, ब्लॉक स्तर और पंचायतों में कम्युनिटी किचन यानि सामुदायिक रसोई की स्थापना करें। जहां ये रसोई संचालित नहीं हो रही थीं, वहां की राज्य सरकारों को नोटिस भी जारी किया गया। जस्टिस एनवी रमण की अध्यक्षता वाली पीठ ने अपने आदेश में कहा कि भूख और कुपोषण की वजह से पांच साल से कम उम्र के कई बच्चे मर जाते हैं और यह स्थिति भोजन के अधिकार और नागरिकों के जीवन के अधिकार समेत विभिन्न मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है, इसलिए जरूरी है कि राज्य और केन्द्र सरकार नागरिकों को पर्याप्त भोजन उपलब्ध करवाएं। कोरोना की दूसरी लहर में एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने राज्य और केन्द्र सरकार को याद दिलाया कि उन्हें कम्युनिटी किचन की स्थापना करनी थी और पूछा कि उस आदेश का क्या हुआ। जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने कहा कि केंद्र सरकार को जरूरतमंदों का ख्याल रखते हुए ‘आत्मनिर्भर भारत योजना’ या फिर किसी भी दूसरी सरकारी योजना के तहत गरीबों को निशुल्क भोजन उपलब्ध करवाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद देश के गांव-कस्बे भूख से जंग जारी रखे हुए हैं। मध्यप्रदेश के बडवानी के आवली गांव से भाकीराम खाते बताते हैं कि जब से देश में कोरोना संक्रमण फैला है तब से उन्हें राशन नहीं मिल रहा है। जहां राशन दिया जा रहा है, तो वहां परेशानी ये है कि राशन की गुणवत्ता ऐसी है कि गरीब उसे लेने में कतरा रहे हैं। मुंगेर के धरहरा प्रखंड के मानगढ़ गांव से गंगा चौधरी, सुभाष कुमार और मीना देवी ने मोबाइलवाणी संवाददाता को बताया कि राशन की गुणवत्ता इतनी खराब है कि वो खाना बच्चों को खिलाने से डर लगता है। अगर आपको याद हो तो ऐसा ही मामला पिछले साल मध्यप्रदेश में सामने आया था जहां हितग्राहियों को मुर्गियों को खिलाने वाला चावल बांट दिया गया था। कुछ ऐसा ही हाल बिहार के गांवों का भी है। बहुत से हितग्राहियों का कहना है कि उन्हें थर्ड क्लास क्वालिटी का चावल और आटा दिया जा रहा है जिसमें पहले से ही फफूंद और कीड़े और पत्थर होते हैं।
दिक्कत केवल जनवितरण प्रणाली में नहीं है, उन सरकारी योजनाओं में भी हैं जहां से बच्चों को भोजन मिल सकता है, जैसे मिड डे मील और आंगनबाडी केन्द्र। ग़ाज़ीपुर ज़िले के जखनियां प्रखंड के जलालाबाद से मनोज कुमार कहते हैं कि बच्चों को मिड डे मील की राशि मिलनी थी या फिर उसके बदले सूखा राशन, लेकिन गांव के बच्चों तक न राशि पहुंची न ही राशन। इसके अलावा छोटे बच्चों को आंगनबाड़ी की ओर से जो राशन दिया जाना था वो भी नहीं बांटा गया। इस बारे में आंगनबाड़ी दीदी से बात करो तो वो हर बार टाल देती है।
मोबाइलवाणी पर पहले भी इस तरह की शिकायतें आयी हैं जहां डीलर और दुकानदारों की मनमानी के चलते लोगों को राशन नहीं मिल पाया पर उम्मीद थी कि लॉकडाउन के दौरान शायद इनका ज़मीर जाग जाए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सोनपुर प्रखंड के अंतर्गत सबलपुर मध्यवर्ती पंचायत वार्ड संख्या 2 से साक्षी कुमारी ने बताया कि कई महीनों से गरीबों को मांग कर खाना खाने पर मजबूर किया जा रहा है जबकि गरीबों के नाम पर डीलर के पास हर माह राशन पहुंचता है। गुस्से में कुछ ग्रामीणों ने पहले तो डीलर के साथ मारपीट की और फिर इसकी शिकायत विभाग में भी की गयी, लेकिन दिक्कत ये है कि विभाग के लोगों को ग्रामीणों द्वारा की गयी मारपीट दिखायी दे रही है, डीलर की मनमानी नहीं।
भूखा आदमी और कर भी क्या सकता है। वह मार सकता है खुद को या फिर उसको जो उसके हिस्से का भोजन खा गया। वह लड़ नहीं सकता, न भूख से, न प्रशासन से। इस तरह की घटनाओं में हर बार मजदूर और गरीब वर्ग के लोग पिसते हैं पर ये जांच या कार्रवाई कोई नहीं करता कि आखिर मारने वालों के पेट खाली और हाथ हथियारों से कैसे भर गये।
छिंदवाड़ा जिला से योगेश गौतम बताते हैं कि शासन के निर्देश पर सोसायटी ने हितग्राहियों को राशन तो दिया लेकिन इसके बदले उनसे राशि भी वसूल की। जब कुछ लोगों ने इसकी शिकायत की तो राशि वापिस कर दी गयी, लेकिन अब लोगों को नयी दिक्कत आ रही है। डीलर चावल-आटा तो हितग्राहियों को दे रहा है लेकिन नमक के बदले पैसे लिए जा रहे हैं। जरूरतमंद कहते हैं कि सरकार घोषणाएं तो कर देती है पर उसका लाभ लेना हमारे लिए मुश्किल होता जा रहा है। डीलर और सोसायटी कहीं ना कहीं से अपने लिए पैसे उगाही का जरिया तलाश ही लेते हैं।
सामुदायिक रसोई पर ताले
अब बात सामुदायिक किचन की। इन्हें सरकारी रेस्त्रां इसलिए कहा गया क्योंकि ये सरकारी दावों की तरह बस दिखावे के ही रहे। इनके खुलने का जितना शोर मचाया गया बंद होने पर उतनी ही शांति है। सरकारी रेस्त्रां के शटर कब खुले कब बंद हुए पता ही नहीं चला। आवाज एनजीओ के सचिव नरेश कुमार सेन कहते हैं कि सरकार के वायदे बस कागजों और टीवी पर हैं। जिस कम्युनिटी किचन की बात की जा रही है वो असल में फैक्ट्री और कारखाने के आसपास है ही नहीं। कुछ शहरी इलाकों में जरूर रसोई चल रही हैं पर मजदूरों के लिए काम छोड़कर उतने दूर खाने के लिए जाना मुमकिन नहीं है। योजना के हिसाब से हर इंड्रस्ट्रियल एरिया में कम से कम 2 से 3 कम्युनिटी किचन होने थे पर पूरा लॉकडाउन खत्म हो गया लेकिन किचन नहीं खुल पाये।
कम्युनिटी किचन के मुद्दे पर सीआईटीयू के नोएडा प्रदेश अध्यक्ष गंगेश्वर दत्त शर्मा कहते हैं कि कोर्ट के आदेश के बाद भी सरकार ने मजदूरों के लिए पर्याप्त कम्युनिटी किचन शुरू नहीं किये हैं। जो चल रहे हैं वहां खाना खत्म हो जाता है। प्रवासी मजदूरों के सामने दिक्कतें ज्यादा हैं क्योंकि अब उन्हें काम देने वालों पर ज्यादा भरोसा नहीं है। ऐसा लगता है कि कभी भी लॉकडाउन लग जाएगा इसलिए वो अपने साथ ज्यादा सामान नहीं लाये हैं। अब अगर इन्हें खाना भी नहीं मिल पाएगा तो वो कैसे काम करेंगे? इस बीच बहुत से राज्यों से खबरें आ रही हैं कि वहां कम्युनिटी किचन बंद कर दिये गये हैं।
वैशाली जिले के महनार में चलने वाला इकलौता सामुदायिक किचन खुलने के बाद से ही विवादों में रहा। पहले यहां साफ-सफाई न होने की शिकायतें आयीं, इसके बाद बिजली चोरी की। जैसे-तैसे समस्याओं का समाधान हो रहा था, पर लॉकडाउन खुलने के दूसरे दिन ही किचन में ताला लगा दिया गया। जिलाधिकारी उदिता सिंह ने मामले की जांच के आदेश दिये, प्रखंड अधिकारी को समस्याएं दूर करने के लिए कहा, पर कुछ हो पाता इसके पहले ही किचन बंद हो गया। मजदूरों का कहना है कि प्रशासन को रसोई बंद करने की इतनी जल्दी क्या थी। वैसे भी एक वक्त खाना खा रहे हैं, उसमें भी कभी खाना मिलता था कभी नहीं पर अनलॉक के बाद तो किचन ऐसे बंद हुआ जैसे बाजार खुलते ही हमें पैसे मिल जाएंगे।
यही दिक्कत सीवान के मजदूरों के साथ भी आ रही है। यहां आदर प्रखंड क्षेत्र के उच्च विद्यालय में चल रहे कम्युनिटी किचन को अनलॉक के अगले दिन ही बंद कर दिया गया। अंचलाधिकारी रामेश्वर राम ने तर्क दिया कि अनलॉक के बाद मजदूर दूसरे शहर काम के लिए चले जाएंगे तो फिर किचन का क्या फायदा? सिसवन प्रखंड क्षेत्र के कन्या मध्य विद्यालय का कम्युनिटी किचन भी इसी तर्क के साथ बंद किया जा चुका है। अंचलाधिकारी इंद्रवंश राय ने कहा कि अब अनलॉक हो गया है, मजदूर काम करें और खाना खाएं, किचन को बंद किया जा रहा है। अब जरा इस तर्क के बारे में सोचिए- सरकार यह माने बैठी है कि मजदूर बाहर जाएंगे ही! क्यों? क्या उन्हें रोकने के लिए अपने राज्य में काम की व्यवस्था नहीं की जा सकती? और अगर जाएंगे भी तो अनलॉक के अगले दिन ही राज्य मजदूरों से खाली हो जाएंगे? सवाल ये है कि कम्युनिटी किचन मजदूरों के अकेले के लिए नहीं बल्कि उन सभी निराश्रित गरीबों के लिए खोले गये थे जो खाने का इन्तजाम करने में अक्षम थे। राज्य सरकार इन्हीं अक्षम परिवारों के कल्याण का दम भरती है।
क्या 80 करोड़ को राशन नया जुमला है?
यह है हमारे कल्याणकारी राज्य की कल्याणकारी नीति जहां सरकार यह माने बैठी है कि प्रवासी मजदूरों के जाने के बाद भी जो गरीब गांव, शहरों और कस्बों में रह जाएंगे वे भूखे रहें। सवाल यह है की जिस देश और राज्य की सरकार 80 करोड़ या उससे अधिक परिवारों का पेट भरने के लिए राष्ट्र के नाम संबोधन करे, क्या कभी इन गरीब, असहाय, निराश्रित परिवारों की खोज खबर लेती है और उनके जीवन के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए कुछ करती है? इन्हीं परिवारों ने विकास को गति देने के लिए अपने श्रमबल के आधार पर संपत्ति का अम्बार खड़ा किया है, तभी तो भारत से स्विस बैंक में जमा काला धन धारकों की संख्या में इजाफा हुआ है। इन्हीं के दम पर मल्टीनेशनल कंपनी को सीधे तौर पर निवेश के लिए हमारे प्रधानमंत्री निमंत्रण देते हैं और राज्य व केंद्र सरकारें वाइब्रेंट सबमिट करती रही हैं।
2019 या उससे पहले हम में से किसी ने भी नहीं सोचा था कि आने वाले साल में कोरोना जैसी महामारी से सामना होगा। तब और अब में अगर कुछ समान है तो वो है भूख के खिलाफ जंग। तब भी आबादी का बड़ा तबका भूख की जंग लड़ रहा था, उसे केवल उम्मीद थी कि आने वाला कल बेहतर होगा। यह उम्मीद 2019 के बाद बिखरती हुई हर जगह देखी जा सकती है। दिल्ली में पांच किलो मुफ्त अनाज के लिए सरकारी स्कूलों में सुबह के 4 बजे से राशन के इंतज़ार में लग रही लम्बी कतार में खड़े लोग इस बात का प्रमाण दे रहे हैं कि किस प्रकार महामारी ने आजीविका के साधनों को आम गरीब जन से छीना है।
अगर संसद में चल रही सरकारी रसोई सत्ताधारियों को कम दाम में सबसे बेहतर क्वालिटी का भोजन दे सकती है तो फिर देश के गली-मोहल्लों में गरीबों के लिए खोले गये कम्युनिटी किचन पर ताले क्यों? क्या गारंटी है कि अनलॉक होते ही हर मजदूर को काम मिल चुका होगा? शहरों में तो लेबर चौक पर दिन भर मजदूर काम की तलाश करते ही रह जाते हैं। कम्पनियाँ बंद हो चुकी हैं या कम मजदूरों के साथ काम कर रही है। देश में कोरोनाकाल के पहले भी भुखमरी थी, लेकिन आज हालात बदतर हैं। जब इस तरह की रसोइयों और सूखे राशन को बांटने की सबसे ज्यादा जरूरत है, तो फिर क्यों सरकार उन्हें गोदामों में रख कर सड़ा देने का आनंद ले रही है?
मोबाइलवाणी द्वारा चार राज्यों में किये गये सर्वे पर आधारित