कांग्रेस के बहाने लेफ्ट पर हमला राहुल गांधी की कोर टीम में शामिल न हो पाने की कसक है!


पिछले कुछ वर्षों में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के लगातार कमजोर होते रहने की वजह रहा है उसका कमजोर व एकध्रुवीय सांगठनिक ढाँचा. अगर कुछ अपवादों को छोड़ दें तो इस मुल्क में कांग्रेस की ये बिसात रही है कि उनके प्रवक्ताओं को टीवी की बहसों मे भी सिर्फ जलील करने को बुलाया जाता रहा है. ये याद करना मुश्किल हो गया है कि आम जन के मुद्दे पर आखिरी बार कब कांग्रेस सड़क पर उतरी थी या कब उसने संसद में मजबूती से जनता का पक्ष रखा था? खैर, समय की मांग, लगातार मिल रही असफलताओं व भाजपा की आक्रामक राजनीति ने प्रियंका गाँधी वाड्रा को राजनीति में उतरने को मजबूर किया व उत्तर प्रदेश के प्रभारी के रूप में वे अपनी टीम के साथ एक असरकारक राजनीति कर रही हैं जो काबिले तारीफ है.

कुछ दिनों से सौरभ बाजपेयी कांग्रेस के ऊपर एक सीरीज़ लिख रहे हैं व जिस तरह वो अपने हर पोस्ट में लेफ्ट पार्टियों को टारगेट कर रहे हैं, इससे पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव जल्द आने वाले हैं व अपनी-अपनी राजनीतिक जमीन तलाशने की कवायद शुरू हो चुकी है. ऐसा लगता है जैसे बहुत सारे लोग चुनाव के समय सीधे प्रियंका व राहुल की कोर टीम के रूप में लॉन्च होना चाहते थे लेकिन प्रियंका ने चुपचाप अपनी टीम चुन कर उनके अरमानो पर पानी फेर दिया. सभी सवालों के बीच यह बड़ा सवाल है कि अगर पुराने काँग्रेसी इतने सक्षम होते तो इस बदलाव को करने की जरूरत क्यों होती जिसकी आलोचना सौरभ अपनी श्रृंखला में कर रहे हैं. इन मुद्दों पर विस्तार से बात करने की जरूरत है.

उत्तर प्रदेश कांग्रेस की वर्तमान समस्या: मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की…

कांग्रेस जब अपने दो राजनीतिक उत्तराधिकारियों के सहारे उत्तर प्रदेश में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही है, तब उनकी कोर टीम में शामिल होने की महत्वाकांक्षा रखने वाले मौजूदा टीम को टारगेट करने लगे हैं. ऐसा लिखा गया कि कांग्रेस सूर्यमण्डल की तरह है जिसके केंद्र यानि सूर्य गाँधी-नेहरू हैं और बुध-शुक्र की भूमिका में मार्क्स-लेनिन. उनके अनुसार अगर सूर्य को बुध से विस्थापित किया गया तो सोलर सिस्टम खराब हो जाएगा.

स्वतंत्र भारत के इतिहास मे ऐसे दो मौके आये जब नेहरू जी व इंदिरा जी के चले जाने के बाद पूरा देश इस बात को लेकर चिंतित था कि देश कैसे चलेगा, लेकिन देश आज भी चल रहा है और कल भी चलता रहेगा. वो किसी व्यक्ति या पार्टी का मोहताज नही होता. सवाल ये है कि किस सौर्यमंडल (काँग्रेस) के सूर्य गांधी-नेहरू हैं? ए. ओ. ह्यूम वाली कांग्रेस, सुभाष बोस वाली कांग्रेस, नेहरू वाली कांग्रेस, INC(O) वाली कांग्रेस या कांग्रेस (R) या फिर मनमोहन सिंह वाली कांग्रेस? या फिर उस कांग्रेस के] जो गाँधी, नेहरू को बचा नही पा रही लेकिन सौर्यमंडल का केंद्र होने का दावा ये जानते हुए भी कर रही है कि नेहरू एकमात्र विरासत हैं व उनके बाद जो है वो मलबा है? नेहरू को बचाना हिंदुस्तानी विरासत को बचाना है न कि कांग्रेस को बचाना.

एक होता है राजनीति में नैतिक आग्रह और दूसरा नैतिक होने की राजनीति. इसमें जो तीसरा है वो है वोट बैंक की राजनीति. मार्क्स, लेनिन, गाँधी, नेहरू इत्यादि पहले दो वाले कैटेगरी से थे जिनके विचार पूरी दुनिया के लिए थे न कि सिर्फ भारत के लिए. अगर ऐसा नहीं होता तो गाँधी-नेहरू को भारत के बाहर कोई पहचान भी नहीं रहा होता व मार्क्स-लेनिन पूरी दुनिया के लिए प्रेरणा का स्रोत नहीं होते. फिलहाल, वोट बैंक के नफसा-नुकसान के लिए गाँधी-नेहरू को एक दायरे मे बांध कर हर बार की तरह दक्षिणपंथी राजनीति को मदद पहुंचायी जा रही है. अगर हम ऐतिहासिक पक्ष देखें तो गाँधी व नेहरू दोनों लेनिन से प्रभावित रहे हैं व इस बारे में उन्होंने खुल कर अपनी राय भी रखी है.

अंतरिक्ष में कई सौर्यमंडल मौजूद हैं. बड़ा सवाल ये है कि भारतीय समाज को उस सौर्यमंडल की जरूरत ही क्यों है जो ब्लैकहोल के मुहाने पर खड़ा है? ये कैसे तय होगा व कौन तय कर रहा है कि कांग्रेस एक सौर्यमंडल है जिसका बिना बाकी के कोई अस्तित्व ही नही? तो क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी कांग्रेस के सौर्यमंडल का हिस्सा रहा है जिसे ज़मीनी स्तर पर स्थापित करने के लिए पार्टी ने सत्तर साल मदद की?

कांग्रेस को बताना चाहिए कि नेहरू जी के बाद कब उसने देश में लोकतंत्र को स्थापित करने के लिए काम किया. क्या संविधान के साथ तमाम छेड़छाड़, राष्ट्रपति व गवर्नर जैसे महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों को कमजोर करना व अपने फायदे के लिए बेजा इस्तेमाल करना, इमरजेंसी, गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों की बर्खास्तगी- ये सब उस सौर्यमंडल का स्वभाव था या लोकतंत्र का भ्रम पैदा कर रजवाड़ों के सहारे सत्ता की मलाई खाते रहने का जुगाड़?

कांग्रेस को दूसरे से ज्यादा खुद से पूछने की जरूरत है कि उसका कैरेक्टर क्या है? अगर वो सेंटर टु लेफ्ट नही है तो फिर वो दक्षिणपंथियों से अलग कैसे है? दक्षिणपंथी उदारवादी आर्थिक नीतियों को ढ़ोल पीट कर लागू करना व करवाना, जातिगत एवं लैंगिक उत्पीडन व भेदभाव के मुद्दे पर यथास्थितिवाद का रास्ता अपनाना, देश के किसान-मजदूरों को खुले बाजार के सामने पड़ोस देना व खनिज संपदा को पूंजीपतियों के हवाले कर देना, सलवा जुडूम, ऑपेरशन ग्रीनहंट, बाटला हाउस एनकाउंटर या हाशिमपुरा… ये सब इस मुल्क मे दक्षिणपंथी राजनीति को स्थापित करने के अलग-अलग चरण रहे हैं जिसकी राजनीतिक प्रैक्टिस नेहरू जी के रहते ही शुरू हो गयी थी.

ये बताने की जरूरत है कि इस पूरी प्रक्रिया व घटनाओं के दौरान क्या मार्क्स व लेनिन को मानने वाले आपके सूर्य के चक्कर काट रहे थे? क्या ऑपरेशन ग्रीनहंट व सलवा जुडूम के वक्त लेफ्ट दिल्ली के उस कमरे में आपके साथ बैठा था जहां आप आदिवासियों की हत्या करने के लिए इजरायली दूतावास के अधिकारियों के साथ भारतीय व इजरायली फौज की सामरिक गुरिल्ला ट्रेनिंग का प्लान बना रहे थे? या तब भी लेफ्ट आपके साथ था जब राजीव गाँधी बाबरी मस्जिद का दरवाजा खुलवाकर इस देश में साम्प्रदायिकता की स्थापना कर रहे थे? आपकी सम्प्रदायिक राजनीति संघ व भाजपा की सम्प्रदायिकता से कैसे अलग है? पिछले छह वर्षों मे कितने एक्टिविस्टों को कांग्रेसी कह कर जेल में डाला गया है? दरअसल, राइट का विरोधी जब भी होगा तब लेफ्ट ही होगा. कभी भी दक्षिणपंथ का चोला ओढ़े सेंटर नही हो सकता है और ये बात राहुल गाँधी शायद समझ रहे हैं और जो नहीं समझ रहे उनकी राजनीतिक समझ संकीर्ण है.

आज गाँधी-नेहरू के नाम पर तमाम संगठन खड़े कर वोट बैंक की राजनीति की जा रही है. बहुत सारे संगठन ये दावा करते रहे हैं वो आजादी की लड़ाई के विचारों को समाज में फिर से स्थापित करना चाहते हैं. अच्छी बात है, लेकिन उन्हें ये बताना होगा कि वे विचार कौन से थे? अगर थे तो उनमें से किसे फ्रीडम स्ट्रगल का विचार माना जाएगा जिसमें नेहरू थे तो सुभाष भी थे, गाँधी थे तो अम्बेडकर भी थे, साथ ही करोड़ों मजदूर-किसान थे और वे भी जो कांग्रेस से सहमत नहीं थे. वो भी उस विचार का हिस्सा थे. गाँधी-नेहरू के नाम पर दुकान चलाने वालों को हमेशा ही यह भ्रम रहता है कि आजादी की लड़ाई देश बनाम अंग्रेज न होकर कांग्रेस बनाम अंग्रेज की लड़ाई थी.

ये जानना बेहद रोचक है कि काँग्रेस की ट्रेनिंग क्या है। काँग्रेस को सभी विचारधाराओं की छतरी बताया जाता है तो क्या पार्टी में 50 फीसदी से ज्यादा भरे आरएसएस के लोगों की धुरी भी नेहरू हो सकते हैं? वे लोग आजादी के बाद से ही देश के व पार्टी के मुख्य पदों पर आसीन रहे हैं. वरना ये कैसे संभव था कि पार्टी के प्रमुख लोग नागरिक अधिकार जैसे महत्वपूर्ण मसलों पर संसद में जनता के पक्ष मे आवाज उठा रहे होते हैं व सुप्रीम कोर्ट मे पूंजीपतियों के लिए उसी मामले मे मुकदमा भी लड़ रहे होते हैं?

ये बातें करनी इसलिए जरूरी है ताकि ये समझा जा सके कि राजनीतिक सिद्धांत राष्ट्र-राज्य की सीमाओं से बंधा नहीं होता. एक सिद्धांतविहीन पार्टी आजादी मिलने के बाद राज्य को पूंजीपतियों की मदद से नव-उपनिवेश मे तब्दील कर वर्ग-संघर्ष को किसी भी आशंका को कुचल देने का कार्य करती है. जबकि वो भूल जाती है कि मानव सभ्यता का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है व मार्क्स का सिद्धांत हर उस समाज में लागू होगा जहाँ वर्ग अस्तित्व में है. इस बात से कौन इनकार करेगा कि भारतीय समाज और इसकी व्यवस्था असमानता पर आधारित है. महज लोकतांत्रिक संविधान होने से वर्ग संघर्ष की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है।

संसाधनों पर हकदारी के लिए समाज में होने वाले गठबंधन या विरोध, समन्वय या विद्रोह को राजनीति कहा जाता है. महात्मा गाँधी ने कहा था कि आजादी के बाद अगर समाज के वंचित तबकों के साथ न्याय नहीं किया गया तो सशस्त्र विद्रोह हो सकता है. गाँधी के अनुसार वह कायरता और न्याय के लिए की गयी हिंसा में हमेशा हिंसा को चुनेंगे. सशस्त्र विद्रोह तभी होते हैं जब तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं न्याय सुनिश्चित नहीं कर पाती हैं. आजादी मिलने के 20 साल बाद 1967 में (नेहरू जी की मृत्यु के तीन साल बाद) भारत में नक्सलबाड़ी का विद्रोह हुआ। क्योंकि ‘सबको साथ लेकर चलने’ वाली काँग्रेस लैंड रिफार्म को प्रभावी नहीं बना पायी थी. जमीनदारों/सामंतों द्वारा गरीब मजदूरों का शोषण बदस्तूर जारी था। वह विद्रोह कम्युनिस्टों ने नहीं किया था बल्कि वह शोषण की आह से निकला वर्ग-संघर्ष था. वर्ग संघर्ष आर्गेनिक होता है. मार्क्स ने बोला है इसलिए यह संघर्ष नहीं होता बल्कि समाज में यह विरोधाभास है। इसलिए मार्क्स ने बोला है- आप सामंत और दास या बुर्जुआ और सर्वहारा को साथ लेकर नहीं चल सकते क्योंकि इनके वर्ग हित एक दूसरे के परस्पर विरोधी हैं. राजनीति में आपको यह तय करना होता है कि आप किसके हित को बचाने की राजनीति कर रहे हैं.


पंकज कुमार वामपंथी कार्यकर्ता हैं


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8 Comments on “कांग्रेस के बहाने लेफ्ट पर हमला राहुल गांधी की कोर टीम में शामिल न हो पाने की कसक है!”

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