गाहे बगाहे: कहु धौं छूत कहां सों उपजी, तबहि छूत तुम मानी

जिस तरह बनारस में कबीर का मान था उसी तरह नसुड़ी का मान था। उनके जाने के बरसों बाद भी उनकी जगह भरी नहीं जा सकी है और अभी बिरहा विधा की जो गति है, उसको देखते हुए उस जगह के भरने का भी कोई आसार नहीं दीखता। नसुड़ी सदियों में एकाध पैदा होते हैं।

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