मंगलेश डबराल का घोंसला और लोक संस्कृति की मृत चिड़िया

मंगलेश जी के पास पहाड़ी राग से लेकर मारवा और भीमपलासी सब कुछ था। उनके पास बिस्मिल्‍लाह खान की शहनाई थी। उनके पास पहाड़ी लोकगीत थे। वे ‘नुकीली चीजों’ की सांस्‍कृतिक काट जानते थे लेकिन उनका सारा संस्‍कृतिबोध धरा का धरा रह गया क्‍योंकि उन्‍होंने न तो अपने पिता की दी हुई पुरानी टॉर्च जलायी, न ही दूसरों ने उनसे आग मांगी। वे बस देखते रहे और रीत गए। उन्‍होंने वही किया जो दूसरों ने उनसे करवाया। कविताओं में वे शिकायत करते रहे और बाहर मुस्‍कुराते रहे, सड़कों पर तानाशाह के खिलाफ कविताएं पढ़ते रहे।

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मेरी यादों में मंगलेश: पांच दशक तक फैले स्मृतियों के कैनवास से कुछ प्रसंग

एक दिन पहले ही मैंने फोन पर किसी का इंटरव्यू किया था और फोन का रिकॉर्डर ऑन था। दो दिन बाद मैंने देखा कि मेरी और मंगलेश की बातचीत भी रिकॉर्ड हो गयी है। उसे मैंने कई बार सुना- ‘‘आनंद अभी मैं मरने वाला नहीं हूं’’ और सहेज कर रख लिया।

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श्रद्धांजलि: यह वह नंबर नहीं है जिस पर तुम सुनाते थे अपनी तकलीफ़…

हिन्दी के मानिंद कवि और वरिष्ठ संपादक मंगलेश डबराल का आज शाम दिल्ली के एम्स में निधन हो गया। वे 72 वर्ष के थे और कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे। जनपथ उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देते हुए उन्हीं की लिखी एक कविता को पुनः प्रकाशित कर रहा है।

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