हम अपनी ‘ग्राउंड रियलिटी’ के साथ जी रहे हैं या एक ‘पाथेर पांचाली’ बनाने की कोशिश कर रहे हैं?

यह कॉम्पैशन आज कहाँ चला गया है। क्या यह हमारे समाज में है? क्या यह हमारी फ़िल्मों में है? अगर सिनेमा समाज का आईना है तो हम गहरे खतरे में हैं और मेरा मानना है कि सिनेमा समाज का आईना है।

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धार्मिक-कट्टरवादी सोच चाहे जिस रंग की हो उसकी मानसिकता एक ही होती है: जावेद अख्तर

मैं यहाँ अपनी बात को दोहरा रहा हूँ क्योंकि मैं नहीं चाहता कि हिंदू दक्षिणपंथी लोग इस झूठ के परदे के पीछे छिपें कि मैं मुस्लिम संप्रदाय की दकियानूसी पिछड़ी प्रथाओं के विरोध में खड़ा नहीं होता।

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