‘सभ्यताओं के विकास के साथ धर्मग्रंथों के शाब्दिक नहीं, संवेदनात्मक विवेचन की आवश्यकता’!

कसया, कुशीनगर। बुद्ध स्नातकोत्तर महाविद्यालय कुशीनगर के भन्ते सभागर में सर्व धर्म भाईचारा एवं राष्ट्रीय एकता विषयक आयोजित संगोष्ठी में वक्ताओं ने आपसी प्रेम, बन्धुत्व व राष्ट्रीय एकता का संदेश …

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संविधान दिवस पर संकल्प- लोकतंत्र की आत्मा संविधान को लोक हित में लोक के लिए बचाये रखना होगा

आज की सबसे बड़ी जरूरत है कि आपसी नफरत को खत्म कर सद्भाव कायम किया जाए। मंच इस क्षेत्र में लगातार काम कर रहा है। हमारा देश साझी विरासत और विविधता का है। हमें गुरु गोरखनाथ, बुद्ध, कबीर, रैदास, नानक, गांधी, अंबेडकर और नेहरू के विचारों को आधार बनाकर समाज निर्माण करने की पहल करनी चाहिए।

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जीवन में संविधान: रोजमर्रा की कहानियों में संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात करने की कोशिश

इस किताब में 76 लघु कहानियां हैं। ये महज कहानियां नहीं हैं बल्कि किसी न किसी के साथ हुई सच्ची घटनाएं हैं जिन्‍हें कहानी के माध्यम से किताब में बयां किया गया है। लेखक ने इन सभी घटनाओं को बहुत ही सरल भाषा में कहानी में ढाला है। इन कहानियों के जीवंत पात्र बच्चे हैं, महिलाएं हैं, किशोर/किशोरियां हैं, युवा हैं, बुजुर्ग हैं, दलित हैं, आदिवासी है, गरीब हैं, वंचित तबकों से हैं।

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संवैधानिक मूल्यों का प्रसार और बंटे हुए दिमाग की दिक्कतें: आत्म-निरीक्षण के लिए कुछ बिन्दु

संवैधानिक मूल्यों पर अपने ऊपर काम करने की प्रक्रिया में अपने भीतर बैठे बंटवारे/पहचानों को संबोधित करना ही सबसे जरूरी बात है। ‘हम’ बनाम ‘वे’ का बंटवारा हल किये बगैर मूल्‍यों के रास्‍ते पर कोई भी आगे नहीं बढ़ सकता। इसलिए अनुभव के रास्ते मूल्यों को आत्‍मसात करने का काम और अपने भीतर के बंटवारों को संबोधित करने का काम एक साथ चलाया जाना चाहिए।

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संवैधानिक मूल्यों पर आधारित समाज व साझी विरासत को बचाना वक्त की जरूरत: शमा परवीन

शमा परवीन ने कहा कि आज देश में सामाजिक और लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के सपनों के अनुरूप समाज निर्माण नहीं हो रहा है। ऐसे में संवैधानिक मूल्यों पर आधारित समाज व साझी विरासत को बचाना वक्त की भारी जरूरत है।

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क्या नये भारत में राज्य की इच्छा ही न्याय है?

अंतरराष्ट्रीय संधियों की बाध्यता को आधार बनाकर अपनी सुविधानुसार सत्ता नागरिक अधिकारों में कटौती कर रही है जबकि अंतरराष्ट्रीय कानून के उन उदार अंशों को रद्दी की टोकरी में डाला जा रहा है जो शरणार्थियों एवं अल्पसंख्यकों के अधिकारों से संबंधित हैं। ऐसे समय में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद लगाये आम आदमी की हताशा स्वाभाविक ही है।

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संवैधानिक मूल्यों पर चलता संवेदनशून्य राजनीति का बुलडोज़र

देश का संविधान अपने स्वरूप में पूरी तरह से “राष्ट्रवादी” है जिसके पालन में ही देश का भविष्य है। किसी भी राजनीतिक दल का समर्थक या विरोधी हुआ जा सकता है, लेकिन यह भी याद रखने की जरूरत है कि जनता से राजनीतिक पार्टियों का वजूद तय होता है, न कि राजनीतिक पार्टियों से जनता का अस्तित्व।

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संवैधानिक मूल्यों को लागू करना सरकारों की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए: रामनाथ शिवेंद्र

नाहिदा आरिफ ने कहा कि आजादी के आंदोलन और उससे भी सैकड़ों साल पहले से भारत साझी विरासत और मेल जोल की परंपरा को समेटे हुए निर्मित हुआ है जिसे आज कुछ ताकतें खत्म कर देना चाहती हैं। हमें इनसे सावधान रहना होगा।

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विधानसभा चुनाव नतीजे: आर्थिक स्वतंत्रता के बिना क्या स्वतंत्र राजनीतिक निर्णय ले सकती है जनता?

संविधान निर्माताओं की आशंका और चेतवानी को ध्यान में रखते हुए देश के संसदीय चुनाव को इसी नजरिये से देखना चाहिए कि क्या आर्थिक रूप से विपन्न समाज राजनैतिक निर्णय लेने में स्वतंत्र है? या कुछ आर्थिक मदद करके उसकी राजनैतिक स्वतंत्रता को छीना अथवा प्रभावित किया जा सकता है?

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पूंजीवाद और लोकतंत्र के ऐतिहासिक रिश्तों के आईने में संवैधानिक मूल्यों की परख

चिली से यह नवउदारवाद शुरू हुआ था। आज वहां शिक्षा के व्यावसायीकरण के खिलाफ चलने वाले आन्दोलन का छात्र नेता राष्ट्रपति चुना गया है। चक्र पूरा हो चुका है। अलेंदे को हटा कर पिनोचे को बैठा कर जो प्रयोग किया गया, पूरी दुनिया में जिसे फैलाया गया वह वहीं अपनी पुरानी जगह फिर पहुँच गया। जिन मुल्कों में 30 साल पहले नवउदारवादी नीतियां और सुधार लागू किये गये उन सभी मुल्कों में सत्र पूरा होने की घंटी बज रही है।

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