संवैधानिक मूल्यों का प्रसार और बंटे हुए दिमाग की दिक्कतें: आत्म-निरीक्षण के लिए कुछ बिन्दु


स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व के मूल्य दो स्तरों पर काम करते हैं। एक, मनुष्य में निजी स्तर पर उसके अनुभवों, पसंद, नापसंद के आधार पर। दूसरा, सामाजिक स्तर पर सामाजिक अनुभवों और उनकी सामूहिक स्मृतियों के आधार पर। निजी स्तर पर ये मूल्य मानवीय गुणों के रूप में प्रकट होते हैं। सामाजिक स्तर पर एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य में वे संवैधानिक मूल्यों की शक्ल ले लेते हैं।

इंसान निजी अनुभवों से सीख लेते हुए दूसरों के प्रति उदार, उसकी आजादी का सम्मान करने वाला, उससे बराबरी बरतने वाला, न्यायप्रिय आदि बन सकता है। ऐसा इतिहास में होता आया है। महापुरुषों का विकास ऐसे ही हुआ है। ऐसे लोगों ने तमाम मूल्यों को (सद्गुणों को) सबसे पहले अपने भीतर पहचाना और जागृत किया। खुद प्रकाशित होने के बाद ही इन्होंने अपने ज्ञान से समाज की चेतना को ऊपर उठाने की कोशिश अपने-अपने तरीके से की। ऐसे ही महान लोगों का ज्ञान उनके लिखे/बोले के रूप में मिलकर धर्मशास्त्र बना। चूंकि दुनिया के सारे धर्म मोटे तौर पर एक ही बात कहते हैं कि आदमी को सच्‍चा होना चाहिए, भला होना चाहिए, दूसरे इंसान के प्रति उसमें करुणा होनी चाहिए, ईमानदारी होनी चाहिए, सारे मनुष्‍य बराबर हैं, कोई छोटा-बड़ा नहीं है, आदि… इसका मतलब है कि जिन लोगों ने इन धर्मों की बुनियाद रखी वे सब अपने-अपने अनुभव से एक ही नतीजे और मूल्‍यों तक पहुंचे। यानी दुनिया भर की धार्मिक-आध्यात्मिक शिक्षाओं के भीतर कोई दोहरापन नहीं है, फर्क नहीं है। सभी धर्मों के केंद्र में इंसान के लिए एक ही तरह के मूल्‍य सुझाये गए हैं। ये सार्वभौमिक मूल्‍य हैं। हजारों साल तक आदमी इन्‍हीं मूल्‍यों को पाने की कोशिश करता रहा है।

इन मूल्यों को निजी स्‍तर पर आत्मसात करने में समस्‍या कभी नहीं रही। हर दौर में ऐसे व्यक्ति हुए जिन्होंने इन मूल्यों को अपने भीतर जागृत किया और बिना भेद के सबके हो गए। समस्या व्यापक समाज में इन मूल्यों को उसके भीतर सामूहिक रूप से उतारने की जरूरत का अहसास करवाने की रही है। महान लोग अपने समाजों को उस ऊंचाई तक नहीं ले जा सके जहां वे खुद खड़े थे। समाज भी उनको पूजता रहा, उनके मूल्‍यों को उसने अपनाने की कोई फिक्र नहीं की। हां, इतिहास में ऐसे कई मौके आए जहां एक पल को लगा कि पूरा समाज किसी संकट के दौर में अच्‍छे मूल्यों से प्रेरित होकर अपने भेद भुलाकर साथ आ खड़ा हुआ है। जैसे भारत छोड़ो आंदोलन। बाद में यह एक निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के बाद पलट गया। जो समाज कल साथ खड़ा था, वही समाज बाद में अच्‍छे मूल्यों का दुश्मन भी हो गया। भारत छोड़ो आंदोलन में एक साथ जो समाज खड़ा था अपने अंतर भुलाकर, वह आजादी के बाद ठीक उलटे मूल्‍यों के कारण देश विभाजन का जिम्‍मेदार बना।

इसका मतलब है कि समाज को मूल्‍य अपने भीतर उतारने के लिए एक कारण की जरूरत होती है। एक उद्देश्‍य की जरूरत होती है। बिना जरूरत के पूरा समाज ईमानदार, सच्‍चा, उदार, करुणामय, समतावादी, न्‍यायप्रिय, आदि नहीं रहेगा। चूंकि सामाजिक संकट हमेशा ऐसे नहीं होते कि समाज को साथ लाकर खड़ा कर दें अपने भेद भुलाकर, इसीलिए हमेशा से मूल्यपरक शिक्षा की अहमियत को समझा गया है। कहीं धार्मिक ग्रंथों के माध्यम से यह कोशिश हुई है, तो कहीं नैतिक विज्ञान की किताबों की जरूरत पड़ी। इस मूल्य शिक्षण में बुनियादी विरोधाभास यह रहा कि ‘फलाने ने कहा था’ की शैली अपने आप में अथॉरिटी यानी एक आदेश का आभास कराती थी। किताब में लिखा था- ईमानदार बनो। किसी के आदेश से कोई कैसे ईमानदार बने और क्‍यों। बाहर समाज कहता था- झूठ बोलना पाप है नदी किनारे सांप है। अब सांप के डर से आदमी सच बोल भी दे, लेकिन जब सांप न हो तब तो झूठ बोलेगा ही। इसका मतलब बिना डर के और कोई वजह नहीं बतायी गयी मूल्‍यों को अपनाने की।

यही वजह है मनुष्य के भीतर से मूल्यों को आत्मसात करने की कोई प्रेरणा पैदा नहीं हुई। हमेशा बाहर से उसे आदेश दिये जाते रहे। आदमी तब तक मूल्‍य की ओर नहीं गया जब तक निजी अनुभव ने उसे उस ओर नहीं धकेला।

जब आधुनिक राष्ट्र-राज्य बने, तब उन्होंने सबसे इन सार्वभौमिक मूल्यों या सद्गुणों को अपने संविधानों में जगह दी। कह सकते हैं कि आधुनिकता से पहले समाजों में जो दर्जा धर्मग्रंथों का था, वही दर्जा आधुनिक राष्ट्र-राज्य में संविधान का हो गया। अंतर केवल यह आया कि धर्मग्रंथ इन मूल्यों के प्रचार-प्रसार के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराते थे, इंसान के ऊपर छोड़ देते थे कि शिक्षा को अपनाये या न अपनाये। पुराने समाज में मूल्‍यों को अपनाना स्वेच्छा का मामला था।

आधुनिक देशों में जब ये सार्वभौमिक मूल्‍य संविधान में लिए गए, तब इन मूल्यों को लागू करने का स्‍वाभाविक जिम्मा राज्‍य/स्टेट के ऊपर आ गया। भारत के संविधान में ये मूल्‍य उसकी प्रस्‍तावना में शामिल किये गए, जिसके अंत में लिखा गया कि भारत के नागरिकों ने इन मूल्‍यों को ‘आत्मार्पित’ किया है। अब चूंकि संविधान की निगाह में सारे नागरिक बराबर हैं और सभी ने संवैधानिक मूल्यों को बराबर खुद को अर्पित भी किया है, इसलिए हर नागरिक अपने में इन मूल्‍यों को उतारने का जिम्‍मेदार जरूर है। हां, किसी नागरिक की कोई संवैधानिक जिम्‍मेदारी नहीं बनती कि वह दूसरे नागरिकों में मूल्यों का प्रसार करे क्‍योंकि संविधान की नजर में सब नागरिक बराबर हैं। मूल्‍यों के प्रसार का काम स्टेट का है।

जैसा कि पहले जिक्र किया था, नागरिकों द्वारा समाज में मूल्यों के प्रसार के लिए एक बाहरी कारण की जरूरत होती है। एक प्रेरणा की जरूरत होती है। यानी एक संकट की जरूरत होती है। वरना लोग मूल्‍यों के नाम पर अपने भेद भुलाकर साथ नहीं आते हैं। हम सभी के लिए तात्कालिक संकट यह है कि ‘संवैधानिक मूल्य खतरे में हैं’ या कहें ‘संविधान खतरे में है’। इसी संकट के कारण हम लोग यहां इकट्ठा हैं एक मंच पर। यह खतरा ही हमारे मिलने का बहाना है। हम में जिसने भी इस खतरे का अनुभव किया है, वह तो समाज में इस पर चर्चा करेगा और संवैधानिक मूल्‍यों का प्रसार करने के तरीके खोजेगा। जिसे यह अनुभव नहीं हुआ है और खतरा उसका केवल सुना-सुनाया है, वह स्‍वाभाविक रूप से उतना संजीदा नहीं रहेगा, न ही संवैधानिक मूल्‍यों को फैलाने का कोई रास्‍ता तलाशेगा। अब उस समुदाय और समाज के बारे में सोचिए जहां हमें काम करना है। वहां भी यही होगा। जब हम बोलेंगे कि संविधान खतरे में है और उसके मूल्‍यों को अपनाने की जरूरत है, तो सच्‍चे मन से साथ वही आएगा जिसने इसका अनुभव किया हो। वैसे कितने लोग होंगे? फिर सोचिए, कि क्‍या इस संकट से प्रेरित होकर एक पूरा का पूरा समाज संवैधानिक मूल्यों को अपनाने के लिए प्रेरित हो सकता है? हम सब अपने अनुभव से जानते हैं कि लोग इतनी आसानी से इस खतरे को नहीं समझते।

आखिर समस्‍या कहां है? निजी अनुभव में? खतरे को समझाने वाली भाषा में? या कहीं और?

हम जब ‘खतरा’ कहते हैं, तो अपने आप एक दुश्‍मन की कल्‍पना कर लेते हैं जिससे खतरा है। फिर खतरे की सारी जिम्‍मेदारी और जवाबदेही हम उस दुश्‍मन के कंधे पर डालकर खुद फारिग हो जाते हैं। चूंकि हम खतरे के खिलाफ लड़ रहे हैं तो खुद को उस खतरे के खिलाफ लड़ने वाला योद्धा/एक्टिविस्‍ट/पत्रकार मान लेते हैं। इस तरह बाकी समाज से हम खुद एक पायदान ऊपर बैठ जाते हैं। जिन मूल्‍यों को हम बचाने निकले थे, फैलाने निकले थे, ‘खतरा’ कहते ही हमारा सारा प्रयास खुद मूल्‍यविरोधी हो जाता है क्‍योंकि हमने समाज को जाने-अनजाने तीन हिस्‍सों में बांट दिया: हम, बाकी समाज और वो लोग जिनसे खतरा है। अब समाज में घूमते हुए हम लोगों को दो नजरिये से देखने लग जाते हैं- एक वे जो हमारे साथ हैं और दूसरे वे जो खतरा पैदा करने वालों के साथ हैं। इस तरह हमारा नजरिया विभाजित हो जाता है और हम खुद पूरे समाज को एक गैर-बराबर नजर से देखने लगते हैं।

अब मान लीजिए कि जो नागरिक संविधान को खतरे वाली बात से वाकिफ नहीं है या जिसने खतरे का अनुभव न किया हो, अगर वह यह सवाल पूछ बैठे कि चाहे जितना बड़ा खतरा हो और जिससे भी हो, लेकिन जो काम स्टेट का है उसे हम क्यों करें? वह अगर यह दलील दे कि अगर नागरिकों को खतरा समझ आएगा तो वे मूल्यों को खुद अपनाएंगे क्‍योंकि सबने खुद को संविधान की प्रस्‍तावना अर्पित की है। मैंने भी खुद को अर्पित की है, तो जब मुझे खतरा समझ आएगा अपने हिसाब से मूल्‍यों को अपनाऊंगा, आपके कहने से नहीं। ऐसे में मूल्‍यों को बचाने और फैलाने निकला एक एक्टिविस्‍ट क्‍या करेगा?

इस सवाल से कुछ और सवाल निकलते हैं। जैसे, एक से ज्यादा नागरिकों के आपसी रिश्‍ते और उसके अलग-अलग रूपों (दांपत्य/साहचर्य, परिवार, मोहल्ला, इलाकाई समुदाय, पंजीकृत/अपंजीकृत संगठन, एनजीओ, पार्टी, पहचान आधारित समुदाय) के भीतर संवैधानिक/सार्वभौमिक मूल्यों के प्रसार और क्रियान्वयन की प्रेरणा कहां से आएगी? क्या यह केवल राजनीतिक सरोकार का मामला है? या सिर्फ प्रतिबद्धता का? या समय की मांग है, केवल इसलिए हम जोर लगा रहे हैं खतरा गिनवाकर?

मान लिया कि एक जागरूक नागरिक समय की मांग/सरोकार आदि से प्रेरित होकर मूल्यों के प्रसार में लग जाता है, ऐसे में मूल्यों तक पहुंचने के लिए एक औजार/साधन के रूप में संवैधानिक अधिकारों पर व्यवहारिक काम भी उलटा साबित हो सकता है। कई ऐसे अधिकार संविधान में दिए गए हैं जो समाज की ऐतिहासिक परिस्थितियों और अन्यायों को ध्यान में रख कर जोड़े गए थे। इन अधिकारों को साकार करने के लिए कई ऐसे कानून भी रोजाना बनते-बिगड़ते रहते हैं जो तात्कालिक सामाजिक परिस्थितियों को संबोधित करते हैं। सामान्य तौर पर एक समुदाय/जनता अपने हक की मांग के लिए कानून पर जोर देती है, कानून बनाने या खत्‍म करने की मांग करती है। इस जनता में काम करने वाला एक एक्टिविस्ट थोड़ा ज्‍यादा समझदार होता है, तो अधिकार की मांग करता है। जनता के दबाव में एक्टिविस्‍ट को उसका सरलीकरण करना पड़ता है और अंततः उसका काम भी कानून बनवाने या खत्‍म करवाने तक सीमित जाता है। इस तरह मूल्यों को हासिल करने का संघर्ष अंततः कानून बनाने या खत्म करने की लड़ाई तक आकर दम तोड़ देता है। क्‍या हम सब का सामाजिक/राजनीतिक अनुभव ऐसा ही नहीं है?

दूसरा बड़ा खतरा इस व्‍यावहारिक अप्रोच में यह है कि अक्सर एक्टिविस्ट बिरादरी गफलत में ऐसे अधिकारों या कानूनों का आग्रह कर बैठती है जो संवैधानिक मूल्यों से टकराव में होते हैं। यहां खास तौर से पहचान आधारित अधिकार और कानून मूल्‍यों के आड़े आते हैं, जो ऊपर से देखने पर समुदाय के सशक्तीकरण के लिए जान पड़ते हैं लेकिन इनके लिए संघर्ष की प्रक्रिया ही अपने आप में समाज को दो हिस्‍से में बांटने वाली होती है।

इस तरह मूल्यविरोधी स्टेट के खिलाफ सारी लड़ाइयां अंततः स्टेट को मजबूत करती जाती हैं क्योंकि वे मूल्यों तक पहुंच ही नहीं पाती हैं और समाज को खांचों में बांट कर छोड़ देती हैं, जो पहले से ही बंटा हुआ है।

इसीलिए जब हम संगठन/एसोसिएशन/समूहों के बीच मूल्‍यों के प्रसार पर बात करते हैं, तो यह अपने मूल में ही मूल्यविरोधी होता है और हम उससे अनजान रहते हैं। चूंकि हमारा सारा प्रयास इस धारणा पर आधारित होता है कि ‘हम/मैं’ ‘उन्हें/उसे’ सिखाने जा रहे हैं, इसलिए सिखाने की प्रक्रिया ही गलत नींव पर खड़ी हो जाती है। ‘हम’ और ‘वे’ का यह बंटवारा ही सारी बीमारी की जड़ बन जाता है। इसी बंटवारे के चलते समाज में कभी भी मूल्य के स्‍तर पर बदलाव नहीं आता है। केवल ऊपरी बदलाव होते रहते हैं। चीज़ें जितना बदलती दिखती हैं, उतनी ही जस का तस बनी रहती हैं।

इस बंटवारे को कैसे समझें और हल करें?

यह बंटवारा जितना बाहरी परिस्थितियों के कारण है, उतना ही मनुष्य के भीतर भी है।

किसी बाहरी पहचान का छोटी-छोटी पहचानों में बंटते जाना और छोटी पहचानों का और उपशाखाओं में विभाजन एक अंतहीन सिलसिला है। अगर वर्ग (क्‍लास) एक पहचान है, तो उसके भीतर धर्म एक उप-पहचान है। धर्म के भीतर जातियां है। जाति में क्षेत्र और गोत्र के बंटवारे हैं, जिससे उपजातियां बनती हैं। उपजातियों के भीतर काम के बंटवारे हैं। काम के आधार पर फिर से क्लास का बंटवारा हो जाता है। कुल मिलाकर ‘अपने’ जैसे और ‘पराये’ समूहों का एक अंतहीन सिलसिला है जो समाज को तो खंडित करता ही है, आदमी को भी भीतर से बांटे रखता है।

भीतर, एक ‘मैं’ हूं। एक ‘मेरा दृष्टा’ (ऑब्‍जर्वर) है जो ‘मुझे’ देख रहा है। तीसरा दुनिया के सामने ‘मेरा किरदार’ (पात्र/कैरेक्‍टर) है। मेरा ‘मैं’ किसी पात्र की भूमिका को कैसे निभा रहा है, उसे ‘मेरा दृष्टा’ लगातार देख रहा है। दृष्टा के देखने से पात्र का अभिनय प्रभावित होता है और मेरा मैं दमित होता है। ‘मैं’ और ‘किरदार’ किसी मेथड से एक हो भी गए, तो दृष्टा फिर भी बच जाता है। इस तरह विभाजन भीतर बना ही रहता है। मेरे भीतर, मेरे किरदार के प्रति देखने वाले का परायापन भीतर ही बना हुआ है। इसी किरदार के हिसाब से हम बाहरी किरदारों को भी देखते हैं। किरदार की भूमिका की भरपाई करने के लिए हम बाहरी किरदारों पर अपने ‘मैं’ को आरोपित कर देते हैं। जैसे एक बाप अपने बेटे को वह बनाना चाहता है जो वह खुद नहीं बन सका। इस तरह भीतर के बंटवारे बाहरी दुनिया में अपने आप चले आते हैं।

बाहर के बंटवारे और भीतर के बंटवारे मिल कर मनुष्य को, समाज को, समुदाय को, राष्ट्र को, बनाते करते हैं। इन्हीं बंटवारों के बीच की दरारों को उभारना राजनीति कहलाता है। मूल्य-केंद्रित मनुष्य और समाज के साथ राजनीति हमेशा बेमेल रहती है। राजनीति का मतलब है राज करने की नीति। जहां राज है, वहां मूल्य कैसे पनपेंगे? यही राजनीति मनुष्य के भीतर भी है। मेरा ‘मैं’ मेरे किरदार पर राज करना चाहता है। मेरा दृष्टा दोनों पर राज करना चाहता है। इसीलिए अगर मूल्यों को अपने भीतर उतारने और आत्मसात करने का सीमित सवाल ही लें, तो भी यह काम पहाड़ लांघने से ज्यादा बड़ा है।

दरअसल, यह अपने किरदार से ‘मैं’ तक और ‘मैं’ से तटस्‍थ दृष्टा तक का एक दोहरा आंतरिक सफर है। कबीर, नानक, बुद्ध, रूमी, ईसा, कुछ एक नाम हैं जहां यह सफर कामयाब मिलता है। ऐसे विभाजन मुक्‍त व्यक्तियों के यहां हम पाते हैं कि बाहर का विभाजन भी नदारद है। उनके यहां परायापन नहीं है, अपनापा है। ‘हम’ और ‘वे’ का फर्क वहां खतम है।

एक और मनुष्‍यों की श्रेणी रही है जिन्होंने भीतर से नहीं, बाहर से शुरू किया। गांधी, बाबा आमटे, मदर टेरेसा, इसके कुछ उदाहरण हैं। इनका रास्ता निस्वार्थ सेवा और करुणा का रहा है। ये बाहर से भीतर की ओर गए। इन्होंने बंटवारे को बाहर पकड़ा, उसे सीमित दायरे में हल किया और भीतर के बंटवारे को हल कर लिया।

ऐसे लोगों का जीवन और मनुष्यताओं का सामाजिक-ऐतिहासिक अतीत हमें सिखाता है कि मूल्यों को सामाजिक बनाने की पहली शर्त है व्यक्तिगत स्तर पर मूल्यों को आत्मसात करते हुए अपने भीतर के दोहरेपन-तिहरेपन को हल करना। एक बार यह हो जाए, तब बाहर के बंटवारों की समग्र समझ कायम हो जाती है और मनुष्य की दृष्टि बांटने वाली नहीं रह जाती। वह अपने और दूसरे को एक समझता है। अपने ‘मैं’ को किसी भी किरदार पर थोपता नहीं, केवल तटस्‍थ होकर सबको बराबर बरतते हुए बिना किसी काल्‍पनिक दुश्‍मन के खतरे का डर पाले काम करता है।

संक्षेप में, हमारे लिए व्‍यावहारिक नुस्खा यहां से यह निकलता है कि संवैधानिक मूल्यों पर अपने ऊपर काम करने की प्रक्रिया में अपने भीतर बैठे बंटवारे/पहचानों को संबोधित करना ही सबसे जरूरी बात है। ‘हम’ बनाम ‘वे’ का बंटवारा हल किये बगैर मूल्‍यों के रास्‍ते पर कोई भी आगे नहीं बढ़ सकता। इसलिए अनुभव के रास्ते मूल्यों को आत्‍मसात करने का काम और अपने भीतर के बंटवारों को संबोधित करने का काम एक साथ चलाया जाना चाहिए। इसकी दोनों ही दिशाएं संभव हैं, क्‍योंकि अंत में पहुंचना एक ही जगह है। बाहर से भीतर चलें या भीतर से बाहर। पहचान दोनों ही रास्तों का रोड़ा है। इसलिए पहचान से मुक्ति ही मूल्यों की प्राप्ति है। पहचान से मुक्ति बाहर भी, भीतर भी।


(यह पर्चा संवैधानिक मूल्यों पर PEACE की एक फेलोशिप कार्यशाला में वितरित अभ्यास सामग्री का हिस्सा है)


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जनपथ का चौकीदार

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