अनुभव, कल्पना और न्याय: एक समतापूर्ण समाज के निर्माण पर औपनिवेशिक छायाएं

समाज की नेतृत्वकारी भूमिकाओं और शक्ति-संरचना को नियंत्रित करने वाले दायरों में जब नए समूह जैसे दस्तकार, अछूत, महिलाएँ, छोटे किसान और श्रमिक शामिल हुए तो उन्होंने उस दुनिया पर सवाल उठाए जिसके बारे में कहा जा रहा था, इसे बदला नहीं जा सकता। उन्होंने ईश्वर के द्वारा बनायी गयी दुनिया और उसकी व्याख्या में अपने अनुभवों के वृत्तांतों से धक्का मार दिया।

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भाषा-चर्चा: अंग्रेजी न जानने की औपनिवेशिक कुंठा हमारी अपनी भाषाओं को मार रही है

भाषा से बौद्धिकता का विकास नहीं, बौद्धिकता से भाषा का विकास होता है। आधुनिक भारत में लोग यह बात भूल गए हैं कि भाषा विचारों को रखने का साधन है, वह माध्यम है बातों को रखने का और सुनने का।

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