बात बोलेगी: विस्मृतियों के कृतघ्न कारागार में एक अंतराल के बाद

सूचनाओं ने हमारे दिल-दिमाग को इस कदर भर दिया है कि उसमें सब कुछ केवल समाया जा रहा है। किसी सूचना का कोई विशिष्ट महत्व नहीं बच रहा है। मौजूदा हिंदुस्तान एक घटना प्रधान हिंदुस्तान बन गया है। इसमें घटनाएं हैं और केवल घटनाएं हैं। जब घटनाएं हैं तो उनकी सूचनाएं हैं। सूचनाएं हैं तो उनकी मनमाफिक व्याख्याएं भी हैं। व्याख्याएं हैं तो उसमें मत-विमत हैं। मत-विमत हैं तो वाद-विवाद हैं और वाद-विवाद हैं तो जीतने-हारने की कोशिशें भी हैं। पक्ष-विपक्ष अब केवल सत्ता के प्रांगण की शब्दावली नहीं रही बल्कि अब वह कटुता का एक नया रूप लेकर उसी खम के साथ एकल परिवारों से लेकर संयुक्त परिवारों, पड़ोस से लेकर मोहल्ले और मोहल्ले से लेकर गाँव तक बसेरा करती जा रही है।

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शहीदी दिवस पर सिविल सोसाइटी ने एक दिन के उपवास के आह्वान के साथ उठाई पांच मांगें

आरटीआइ एक्टिविस्ट अरुणा राय, पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा, पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल, जस्टिस गोपाल गौड़ा, हर्ष मंदर, कविता कृष्णन, प्रोफेसर अपूर्वानंद सहित कई चर्चित लोगों ने देशवासियों के नाम एक अपील जारी की.

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बात बोलेगी: एक ‘सिविल सोसायटी’ के राज में दूसरे का ‘वध’ और तीसरे का मौन

अभी ये जो कानून आए हैं पंजीकृत नागरी समाज को नेस्तनाबूत करने के, वो आपको लग सकते हैं कि सरकार लायी है लेकिन असल बात ये है कि इन्हें यह अनसिविल सोसायटी लायी है ताकि सिविल सोसायटी का वध किया जा सके

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देशान्तर: विश्व सामाजिक मंच की पुनर्कल्पना मुमकिन है, असंभव नहीं!

इस दौर में फोरम के समक्ष कई महत्वपूर्ण चुनौतियां हैं, जिसके ऊपर इसकी अंतरराष्‍ट्रीय परिषद् में बहसें जारी हैं। इस मुद्दे को लेकर मंच की परिषद् ने गत 6 महीनों में कई छोटी समितियां बनायी हैं और साथ ही दुनिया भर के जन आंदोलनों के साथ जून, सितम्बर और अक्टूबर में गोष्ठियां की हैं।

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छान घोंट के: जवाबदेही मांगने वाली सिविल सोसाइटी की FCRA पर चुप्पी और कार्टेल-संस्कृति

दुनिया के किसी भी देश में परिवर्तनकारी और दीर्घकालीन बदलाव का क्रांतिकारी आन्दोलन केवल विदेशी अंशदान से कभी नहीं खड़ा हुआ है। यह अलग बात है कि जनवादी निर्वात के खात्मे में विदेशी अंशदान का काफी योगदान रहता है।

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देशान्तर: तानाशाही व्यवस्था में प्रतिरोध का स्वर है चीन की सिविल सोसाइटी

2008 के ओलिंपिक ने चीन को दुनिया के पटल पर आर्थिक और राजनैतिक दोनों क्षेत्रों में न सिर्फ सुपर पावर के तौर पर स्थापित किया बल्कि यह आत्मबल भी दिया किया कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय व्यापारिक और बाज़ारी व्यस्था के आगे मानवाधिकारों के हनन को मुद्दा नहीं बनाने वाला। इसलिए धीरे-धीरे उन्होंने एडवोकेसी संस्थाओं पर अपना शिकंजा कसना शुरू कर दिया जिसके कारण कुछ ही वर्षों में कई संस्थाएं बंद हो गयीं या फिर देश छोड़ कर चली गयीं।

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इंसाफ़, अमन और बंधुत्व का सन्देश फैलाने वालों पर शिकंजा क्यों कसा जा रहा है?

बहुसंख्यकवादी साम्प्रदायिक संगठनों के खिलाफ अपनी मुखरता के कारण वे हमेशा से ही दक्षिणपंथी खेमे के निशाने पर रहे हैं. उनके ख़िलाफ़ लगातार दुष्प्रचार किया जाता रहा है, जिसके तहत उन पर एक तरह से देशहित के ख़िलाफ़ काम करने का आरोप लगाया जाता रहा है. अब इसमें और तेजी आयी है.

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राजनीतिक रूप से क्यों अप्रासंगिक होती जा रही है भारत की सिविल सोसायटी?

सिविल सोसायटी को यदि प्रासंगिक बने रहना है तो वह अपने अ-राजनीतिकरण के सवाल से खुद जूझे।

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समाज सेवा या ‘स्वयं’ सेवा?

हम पहले भी सुनते आए हैं कि किस तरह सत्‍यार्थी अपने दो-चार विश्‍वस्‍त पत्रकार गुर्गों के माध्‍यम से मीडिया को मैनेज करते रहे हैं, लेकिन पहली बार ऐसा उदाहरण सजीव प्रस्‍तुत है।

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