इंसाफ़, अमन और बंधुत्व का सन्देश फैलाने वालों पर शिकंजा क्यों कसा जा रहा है?


किसी भी लोकतान्त्रिक समाज में सिविल सोसाइटी की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. नागरिकों के अधिकार आधारित विमर्श और मांगों को आगे बढ़ाने के साथ जनहित के मसलों पर राज्य से असहमति दर्ज कराने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. भारत में सिविल सोसाइटी की स्थिति हमेशा से ही कमजोर रही है. केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद से ये और हाशिये पर चले गये हैं.

मोदी राज में सरकार की आलोचना और विरोध करना बहुत ही जोखिम भरा काम है. ऐसा लगता है कि सत्ता का विरोध या असहमति ही सबसे बड़ा अपराध हो गया है. सत्ता विरोधियों को राष्ट्र, जनता और यहां तक कि हिन्दू धर्म के विरोधी के तौर पर पेश किया जाता है. 

पिछले 6 साल के दौरान सिविल सोसाइटी की सबसे मुखर आवाजों को सिलसिलेवार तरीके से निशाना बनाया गया है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ अपराधियों जैसा सलूक किया जा रहा है. नागरिकों के वाजिब सवालों को उठाने वालों को देशद्रोही और नफरत व धार्मिक हिंसा का विरोध करने वालों को ही दंगाई बताया जा रहा है. इसी कड़ी में सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर का नाम जुड़ा है, जिन पर दिल्ली पुलिस ने अपनी चार्जशीट में लोगों को हिंसा के लिए भड़काने और हिंसा की साज़िश में शामिल होने का आरोप लगाया है. इससे उलट जिन नेताओं को हमने खुलेआम हिंसा और आपसी नफ़रत का आह्वान करते हुए देखा था उन्हें सीधे तौर पर नजरअंदाज कर दिया गया है.

इस साल फरवरी में दिल्ली में हुए दंगों की चार्जशीट में दिल्ली पुलिस ने हर्ष मंदर पर प्रदर्शनकारियों को भड़काने का आरोप लगाया है. ये वही हर्ष मंदर हैं जो मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर अपने पूरे सावर्जनिक जीवन के दौरान देश के सबसे गरीब और वंचित समुदाय के पक्ष में खड़े रहे और साम्प्रदायिक नफ़रत व हिंसा के ख़िलाफ़ देश की सिविल सोसाइटी के सबसे मजबूत आवाजों में से एक माने जाते हैं. पूर्व में वे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रह चुके हैं. 2002 में गुजरात में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हुई हिंसा के बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा देकर वे पीड़ितों के हक में काम करने लगे. भारत में भोजन के अधिकार और साम्प्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के लिए उनका काम उल्लेखनीय है.

यूपीए शासन के दौरान वजूद में आये अधिकार आधारित कई कानूनों/योजनाओं के पीछे भी हर्ष मंदर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. पिछले कुछ वर्षों से, खासकर देश भर में भीड़ द्वारा हिंसा की घटनाओं के बढ़ने के बाद से वे भारतीय संविधान की चौथी मूल भावना ‘बंधुत्व’ पर विशेष जोर दे रहे थे. इसके लिए उन्होंने “कारवान-ए-मोहब्बत” नाम से एक यात्रा शुरू की थी जिसका मुख्य उद्देश्य भीड़ की हिंसा के ख़िलाफ़ अमन और सद्भावना का सन्देश देना था. इस अभियान के तहत भीड़ की हिंसा के शिकार लोगों और उनके परिजनों से मिलकर यह सन्देश देने की कोशिश की जाती है कि एक समाज के तौर पर हम उनके साथ खड़े हैं.

बहुसंख्यकवादी साम्प्रदायिक संगठनों के खिलाफ अपनी मुखरता के कारण वे हमेशा से ही दक्षिणपंथी खेमे के निशाने पर रहे हैं. उनके ख़िलाफ़ लगातार दुष्प्रचार किया जाता रहा है, जिसके तहत उन पर एक तरह से देशहित के ख़िलाफ़ काम करने का आरोप लगाया जाता रहा है. अब इसमें और तेजी आयी है.

बीते 5 मार्च, 2020 को आरएसएस के मुखपत्र पांचजन्य के वेब पोर्टल पर “कांग्रेस के पालतू वैचारिक वायरस हैं हर्ष मंदर जैसे लोग” शीर्षक से प्रकाशित लेख में उन्हें कांग्रेस का पाला-पोसा ‘अर्बन नक्सल’ बताते हुए लिखा गया कि “यह व्यक्ति एक एक्टिविस्ट का चोला ओढ़ा ऐसा देशद्रोही है, जो हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि को खराब करने की कोशिश करता है”. इसी प्रकार से 5 मार्च, 2020 को पांचजन्य के ही वेब पोर्टल पर “हर्ष मंदर जैसे बुद्धिजीवियों का गठजोड़ देश के लिए घातक” शीर्षक से प्रकाशित एक अन्य लेख में बताया गया कि “हर्ष मंदर एक तंत्र का नाम है. एक गठजोड़ का नाम है. इस गठजोड़ में विदेशी एनजीओ, मिशनरी संस्थाएं, कट्टरपंथी इस्लामी संगठन, कुछ मीडिया संस्थान, कांग्रेस और वामपंथी संगठन, शहरी नक्सली सब मिलकर काम करते हैं. जैसा कि सीएए के विरोध में देशभर में किए गए बवाल और फ़साद से सामने आया”.

दरअसल, यूपीए शासन के दौरान लाये गये “सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा बिल” के मसौदे के बाद संघ खेमे की हर्ष मंदर से नाराज़गी बहुत बढ़ गयी थी क्योंकि इसमें उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी. प्रस्तावित  विधेयक में धार्मिक या भाषायी अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को निशाना बनाकर की गयी हिंसा को रोकने, इसके लिए भेदभावरहित व्यवस्था बनाने तथा पीड़ितों को न्याय के साथ मुआवजा दिलाने की बात की गयी थी.

नये भारत में सत्ता से असहमति रखने वालों, सवाल करने वालों, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और अन्य वंचितों के हक में आवाज उठाने वालों के लिए शब्दावली गढ़ ली गयी है. इन्हें ‘अर्बन नक्सल’, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’, ‘हिंदू विरोधी गिरोह’, जैसे अपमानजनक शब्दों से संबोधित किया जाता है. 2019 में ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा जारी वैश्विक रिपोर्ट के अनुसार भारत में सरकार ने आलोचना करने वालों को बड़े पैमाने पर प्रताड़ित किया, कई मौकों पर उनके ख़िलाफ़ राजद्रोह और आतंकवाद-निरोधी काले कानूनों का इस्तेमाल किया, साथ ही सरकार के कार्यों या नीतियों की आलोचना करने वाले गैर-सरकारी संगठनों को बदनाम करने और उनकी आवाज़ को दबाने के लिए एफसीआरए जैसे कानूनों का दुरुपयोग किया.

हम देखते हैं कि भीमा कोरेगांव मामले में अधिवक्ता सुधा भारद्वाज, अकादमिक आनंद तेलतुंबडे और पत्रकार गौतम नवलखा जैसे जनता के हितैषी व्यक्तियों के खिलाफ आतंक विरोधी कानून, “गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम” के तहत आरोप तय किये गये हैं. इसी प्रकार से कई प्रतिष्ठित मानवाधिकार संगठनों को विदेशी सहायता (विनियमन) अधिनियम (एफसीआरए) के कथित उल्लंघन के तहत निशाना बनाया गया है जिसमें ग्रीनपीस इंडिया, सबरंग ट्रस्ट, लॉयर्स कलेक्टिव, नवसर्जन ट्रस्ट, इंडियन सोशल एक्शन फोरम, जैसे संगठन शामिल हैं.

इधर एक नया चलन आया है जिसके तहत सच और इन्साफ की लड़ाई लड़ने वालों पर उन्हीं के हथियार से पलटवार किया जा रहा है. इस प्रकार का पहला मामला दिल्ली दंगों से ही जुड़ा है. बीते 9 मई को ‘कॉल फ़ॉर जस्टिस’ नाम के एक अनजान से एनजीओ ने गृहमंत्री अमित शाह को दिल्ली दंगों से सम्बंधित कथित फ़ैक्ट-फ़ाइंडिंग रिपोर्ट सौंपी थी जो कि विशुद्ध रूप से एक प्रोपगेंडा रिपोर्ट है. फैक्ट चेकिंग वेबसाइट ऑल्ट न्यूज़ ने इस कथित फ़ैक्ट-फ़ाइंडिंग रिपोर्ट की समीक्षा में पाया कि इसमें झूठी जानकारियों की भरमार है. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे हर्ष मंदर ने जामिया में अपने भाषण के दौरान सर्वोच्च अदालत पर अविश्वास जताते हुए लोगों को हिंसा के लिये उकसाया था जबकि ऑल्ट न्यूज़ अपने फ़ैक्ट चेक में बता चुका है कि हर्ष मंदर ने अपने भाषण के दौरान लोगों से हिंसा के लिए नहीं बल्कि प्रेम के आदर्शों पर गढ़ी गयी ‘संविधान की आत्मा’ की रक्षा करने के लिए बाहर निकलने का आह्वान किया था. जिसे सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथी ट्रोल और भाजपा नेताओं द्वारा इरादतन गलत तरीके से पेश किया गया.

कुछ इसी तरह का मामला अंग्रेजी वेबसाइट स्क्रॉल की पत्रकार सुप्रिया शर्मा का भी है जिन्होंने वाराणसी  जिले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा गोद लिये गये एक गाँव में लोगों के भूख से परेशान होने सम्बंधित एक स्टोरी की थी. इस स्टोरी में उन्होंने माला देवी नाम की दलित महिला का एक इंटरव्यू भी किया था. बाद में इन्हीं माला देवी द्वारा पत्रकार सुप्रिया शर्मा के खिलाफ ही एफआइआर दर्ज करा दी गयी. जाहिर है, माला देवी ने ये काम दबाव में ही किया होगा.

यह इस देश का दुर्भाग्य है कि हक़, इन्साफ, शांति और बंधुतत्व की बात करने वाले लोग राजकीय प्रतिशोध का शिकार हो रहे हैं जबकि सरेआम हथियार लहराने वाले, हिंसा की बात करने वाले और इसे अंजाम देने वाले लोग न केवल आज़ादी से घूम रहे हैं बल्कि उन्हें प्रोत्साहित भी किया जा रहा है. हर्ष मंदर जैसे लोग, जिन्होंने अपना पूरा जीवन हिंसा पीड़ितों की सेवा में लगा दिया, उन पर हिंसा भड़काने का आरोप लगाना बहुत ही भद्दा मज़ाक है. पिछले दिनों देश भर के करीब 160 गणमान्य नागरिकों ने दिल्ली पुलिस की चार्जशीट में हर्ष मंदर का नाम शामिल किये जाने की निंदा करते हुए इसे वापस लिए जाने की मांग की है लेकिन व्यापक समाज में इसको लेकर चुप्पी है. यह चुप्पी हम सब पर भारी पड़ने वाली है.


लेखक भोपाल स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं


About जावेद अनीस

View all posts by जावेद अनीस →

5 Comments on “इंसाफ़, अमन और बंधुत्व का सन्देश फैलाने वालों पर शिकंजा क्यों कसा जा रहा है?”

  1. I love looking through a post that can make people think. Also, many thanks for permitting me to comment!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *