बात बोलेगी: सब सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है

यह सब एक ऐसे समय में लिखा जा रहा है जब किसी को किसी से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि किसी के साथ कुछ हो जाने से खुद उसे ही कुछ फर्क नहीं पड़ता। जब पीड़ितों को पीड़ा से फर्क न पड़े और उत्पीड़कों के लिए भी उत्पीड़न एक सामान्य बात हो जाए और यह सब एक व्यवस्था के तहत हो रहा हो तब सामुदायिक जीवन में फर्क पड़ने जैसा कोई भाव नहीं रह नहीं जाता है।

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