जीवन में संविधान: रोजमर्रा की कहानियों में संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात करने की कोशिश

इस किताब में 76 लघु कहानियां हैं। ये महज कहानियां नहीं हैं बल्कि किसी न किसी के साथ हुई सच्ची घटनाएं हैं जिन्‍हें कहानी के माध्यम से किताब में बयां किया गया है। लेखक ने इन सभी घटनाओं को बहुत ही सरल भाषा में कहानी में ढाला है। इन कहानियों के जीवंत पात्र बच्चे हैं, महिलाएं हैं, किशोर/किशोरियां हैं, युवा हैं, बुजुर्ग हैं, दलित हैं, आदिवासी है, गरीब हैं, वंचित तबकों से हैं।

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नये भारत के उदय के बीच तीन ख़ानों की दास्तान

इन तीनों के बारे में लगातार लिखा जाता रहा है। इनसे जुड़े विवादों से लेकर अफवाहों और फिल्मों तक के बारे में बहुत कुछ पहले से ही लिखा और कहा जा चुका है। ऐसे में पहला सवाल यह उठता है कि इन तीनों पर आधारित एक किताब नया क्या पेश कर सकती है?

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अपनी छवि की गुलामी का ‘बेशरम रंग’ क्यों ढो रहे हैं बॉलीवुड के बूढ़े सितारे?

आपत्ति तो इस पर होनी चाहिए कि जनसंचार के एक इतने जबर्दस्त माध्यम को कचरा परोसने का यंत्र क्‍यों बना दिया गया है। मुकदमा तो इस पर दर्ज होना चाहिए कि करोड़ों फूंक कर भी दर्शकों के सामने इस तरह की चीज क्यों परोसी जा रही है। क्‍या इसका शाहरुख की निजी महत्‍वाकांक्षा से कोई लेना-देना हो सकता है?

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बिहार की घुटी हुई चीख वाया ‘कंट्री माफिया’ और ‘खाकी’

बिहार के लिए खुश होने लायक कुछ भी नहीं है, दोनों ही सीरीज में। दोनों ही में बिहार की ‘अंडरबेली’ को दिखाया गया है। बिहारी जातिवाद, अराजकता, अर्द्ध-सभ्यता, हिंसा और बात-बेबात का अहंकार, सब कुछ इन दोनों में दिखाया गया है, कुछ भी छोड़ा नहीं गया है।

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मट्टो की सायकिलः विकास की राजनीति और जाति के दंश का सिनेमाई आईना

यह कहानी सिर्फ़ मट्टो की नहीं है। यह उस दर्ज़े के लोगों की कहानी है जो हिंदुस्तान के निर्माण में अपना सब कुछ लगा देते हैं। जिनके दम पर इंडिया फ़र्राटे भरता है, पर मट्टो जैसे लोग रेंगने को मजबूर हैं। आगे बढ़ने वाले देश में पीछे छूट जाने वाले लोगों की कहानी, जो सिर्फ़ आर्थिक वजह से पीछे नहीं छूटते बल्कि अपनी जाति की वजह धकेल दिए जाते हैं।

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पराक्रमहीनता का राग मालकौंस

समीक्ष्य पुस्तक Modi@20: Dreams meet Delivery 21 अध्याय और 1 प्राक्कथन से संयोजित-संपादित पुस्तक है जिसमें राजनीति, कला, संगीत, खेल, उद्योग आदि से जुड़े देश के 22 दिग्गजों के आलेखों को सम्मिलित किया गया है। शायद यह पहली ऐसी पुस्तक मेरे देखने में आयी है जिसका सम्पादन कोई व्यक्ति नहीं एक ‘फाउंडेशन’ ने किया है।

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किनिर: आदिवासी अस्मिता पर प्रहार करने वाली नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाती कविता

कविता संग्रह की मूल अंतर्वस्तु ही जंगल को बचाने की है। कविता संग्रह के माध्यम से जंगल गाथा कहने में तनिक हिचकिचाहट नहीं दिखायी देती। ये कविताएं नये भावबोध से लैस हैं। यहां नया भावबोध का तात्पर्य यह भी है कि उनकी कविताएं किसी परंपरागत सौंदर्यशास्त्र के पैमाने के अनुसार न चलकर अपनी स्वयं की जमीन बनायी हैं।

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एक सत्यशोधक के रूप में जोतिबा फुले की तस्वीर: देस हरियाणा का भाषणों को समर्पित अंक

अब तक हिंदी पाठकों के दिमाग में बनी जोतिबा फुले की तस्वीर एक समाज सुधारक की तस्वीर या फिर एक जातिवाद विरोधी महात्मा की तस्वीर के रूप में बनी हुई है। ये भाषण जोतिबा फुले के दर्शन, विज्ञान और इतिहास के सत्यशोधक की तस्वीर बनाते हैं। यह भाषण पहली बार मराठी में 1856 में प्रकाशित हुए थे।

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सहजीविता का इतिहास और इतिहास की ऐतिहासिकता: नदी पुत्र की एक सुदीर्घ समीक्षा

अच्छी किताब की एक विशेषता यह है कि वह आप के मस्तिष्क में विचारों की नयी तरंग पैदा कर देती है, आपको नया कुछ सोचने-विचारने को प्रेरित करती है। इस शोध-प्रक्रिया में लेखक ख़ुद निषादों के जीवन में झांकते-झांकते ‘एन्थ्रोपोसीन’ की वैचारिकी में जा पहुँचे, और इस तरह उन्हें अपने आगामी शोध का आधार मिल गया।

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रामत्व की तलाश में नैतिक पतन को अभिशप्त नायक: मिथिला और रूस के लोक से दो छवियाँ

मेहनतकश लोगों एक ऐसा वर्ग जो समाज में वर्गहीन होता है, दुनिया के सभी क्षेत्रों में इनकी स्थिति कमोबेश ऐसी ही रही है। अच्छा जीवन कैसे जिया जाए सोचते-सोचते ये लोग कब नैतिक पतन और नैतिक भ्रष्टाचार के शिकार होते चले जाते हैं इन्हें भी नहीं पता चलता।

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