झारखंड में आज से 18 से 44 आयुवर्ग के बीच की आबादी के लिए निशुल्क कोरोना टीकाकरण का अभियान शुरू हो रहा है, लेकिन जयश्री मरांडी की जिंदगी में इससे कोई फर्क नहीं आने वाला है। उनके पति को अगर समय पर इलाज या वैक्सीन मिल गया होता तो आज वे जिंदा होते। जयश्री आज वैक्सीन लगाने के अभियान पर फील्ड में जब निकलेंगी, तो उनके मन में जरूर ये मलाल होगा और ताजिंदगी बना रहेगा।
कोविड से दूसरों की जान बचाने के लिए दिन-रात लगी रहने वाली जयश्री मरांडी की आधी दुनिया उजड़ गयी है। झारखंड के दुमका जिले में सरकारी आशा कार्यकर्ता मरांडी के पति को पिछले दिनों कोरोना निगल गया। इसी कोरोना काल में जयश्री जब गांव-गांव टेस्टिंग और दूसरे कामों से ड्यूटी पर जाती थीं, उनके पति राजकुमार हंसदा (34) हमेशा उनके साथ जाते थे। एक सहारा रहता था। जब फ्रंटलाइन वॉरियर्स को वैक्सीन लगने की बारी आयी तो जयश्री को भी वैक्सीन लग गयी, लेकिन उनके साथ-साथ गांव-गांव घूमने वाले राजकुमार खुद कोरोना संक्रमित हो गए।
दुमका के जितपुर गांव की रहने वाली जयश्री बताती हैं कि राजकुमार को कोई सुविधा नहीं मिली। वे अपने पति को लेकर निजी अस्पतालों में दौड़ती रहीं। उन्होंने अपनी पूरी जमा पूंजी लगा दी लेकिन राजकुमार को नहीं बचा पायीं। वे याद करते हुए कहती हैं:
मैं एकदम अकेली पड़ गयी हूं। वो होता तो बच्चों की देखभाल और पढ़ाई में मेरी मदद करता, कोरोना ने उसको मुझसे छीन लिया।
जयश्री मरांडी, एएनएम, जितपुर, दुमका
बीती 12 मई को मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने एक शिकायती ट्वीट के जवाब में यह सार्वजनिक सूचना देते हुए- कि राज्य के निजी अस्पतालों में सरकार द्वारा कोविड उपचार की दरें तय हैं और इससे ज्यादा वसूलना कानूनन जुर्म है- रांची के उपायुक्त को जांच और कार्रवाई के निर्देश दिए। सुदूर गांवों में तैनात जयश्री जैसी एएनएम ट्विटर नहीं चलाती होंगी, वरना उनकी भी शिकायत सुन ली जाती और राजकुमार शायद बच जाते।
विधायक भाई की चिट्ठी
कोरोना की भयावहता के बीच दुमका में स्वास्थ्य तंत्र के कुप्रबंधन की कहानी बहुत भयावह है। धनबाद, रांची, जमशेदपुर और बोकारो जैसे बड़े-बड़े नगरों के बीच स्वास्थ्य कुप्रबंधन की इस कहानी के केंद्र में छोटा सा आदिवासी जिला दुमका है क्योंकि मुख्यमंत्री सोरेन खुद यहां से आते हैं। उन्होंने पिछले असेंबली चुनाव में दो सीटों से नामांकन भरा था- दुमका और बारहेट। वे दोनों पर जीत गए लेकिन बाद में उन्होंने दुमका की सीट अपने भाई बसंत के लिए खाली कर दी, वहां पिछले नवंबर में हुए उपचुनाव में जमकर प्रचार किया और उन्हें दुमका का विधायक बनवा दिया। प्रचार के दौरान हेमंत सोरेन लगातार यह कह के मतदाताओं को लुभाते रहे कि विधायक अपनी सरकार का ही हो तो अच्छा होता है। फिर यहां तो मुख्यमंत्री के भाई का मामला था। बसंत जीत गए।
विधायक बनने के महज छह महीने बाद आज हालत यह है कि खुद बसंत को अपने मुख्यमंत्री भाई को चिट्ठी लिखनी पड़ रही है कि वे दुमका पर थोड़ा ध्यान दें। दुमका के विधायक बसंत सोरेन ने 11 मई को मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नाम लिखी चिट्ठी में कहा है कि जिले में डॉक्टरों और वेंटिलेटरों की कमी को वे संबोधित करें।
इससे भी बड़ी बात उन्होंने यह लिखी है कि तमाम ऐसे फ्रंटलाइन वर्कर्स हैं जिन्हें अब तक वैक्सीन नहीं लगी है, उन्हें प्राथमिकता दी जानी चाहिए। जयश्री मरांडी सौभाग्यशाली थीं कि उन्हें वैक्सीन समय पर लग गयी वरना केवल छह दिन पहले बसंत सोरेन द्वारा दुमका उपायुक्त के दफ्तर में रखी एक बैठक में जो तथ्य उजागर हुए, वे हेमंत सोरेन सरकार के प्रबंधन की असली कहानी कहते हैं।
आज दुमका के अधिकारियों के साथ जिले में कोविड-19 की वर्तमान स्थिति, कार्य योजना की समीक्षा करते हुए कई महत्वपूर्ण निर्देश…
Posted by Basant Soren on Friday, May 7, 2021
बैठक के बाद पत्रकारों के पूछे सवालों के जवाब में विधायक बसंत सोरेन ने बताया कि दुमका में इतने टेक्नीशियन ही नहीं हैं जो वेंटिलेटर चला सकें। सैम्पल टेस्टिंग की भी व्यवस्था दुमका में नहीं है। सैम्पल लेने के बाद उसे धनबाद भेजा जाता है जिसके कारण रिपोर्ट हफ्ते भर बाद आ पाती है। उन्होंने स्वीकार किया कि इसमें देरी के चलते कई मरीज़ों की जान जा चुकी है। फिलहाल ताज़ा स्थिति यह है कि दुमका जिले में कुल 39 मौतें दुमका कोविड डैशबोर्ड पर दर्ज हैं लेकिन ज़मीन पर काम करने वाले कार्यकर्ता इस आंकड़े को सिरे से नकार रहे हैं।
आंकड़ों का जानलेवा खेल
दुमका के एक सामाजिक कार्यकर्ता आलोक कुमार बताते हैं कि प्रशासन इस बीच हो रही मौतों को अन्य बीमारी के खाते में डाल रहा है जबकि मृतक में कोरोना के लक्षण पाए गए हैं। इस कारण जहां 50 मौतें हो रही हैं, वहां कोरोना की वजह से सिर्फ 10 मौतें गिनी जा रही हैं।
आलोक बताते हैं कि दुमका की सिर्फ सात ग्राम पंचायतों में पिछले एक महीने में 84 लोगों की मौत हुई है। कुछ की मौत बेशक अन्य बीमारियों से हुई लेकिन अधिकतर की मौत कोविड से ही हुई है। अन्य बीमारियों से भी मरने वाले लोग कोविड की दूसरी लहर आने से पहले ठीक स्थिति में थे, लेकिन अचानक उनकी तबीयत बिगड़ी और मौत हो गई।
दुमका में मौत के आँकड़े का पूरा विवरण नीचे देखा जा सकता है:
dumka-deaths-2इन आंकड़ों में फर्क की एक बड़ी वजह टेस्टिंग भी है। गुरुवार तक डैशबोर्ड के अनुसार दुमका में कुल 277352 परीक्षण हो चुके हैं जिनमें आरटी-पीसीआर, आरएटी और ट्रूनैट तीनों शामिल हैं। आरटी-पीसीआर इसमें आधे से भी कम है। नाम न छापने की शर्त पर दुमका के एक ब्लॉक चिकित्सा अधिकारी कहते हैं कि जिले में एंटीजन टेस्ट 2000 के करीब रोज होते हैं और प्रखंड स्तर पर औसतन 100-200 के करीब। उनके मुताबिक कोरोना की भयावहता को देखते हुए ये टेस्टिंग नाकाफी है लेकिन सरकार इस तरफ ध्यान ही नहीं दे रही है।
आलोक बताते हैं कि दुमका की सिर्फ सात ग्राम पंचायतों में पिछले एक महीने में 84 लोगों की मौत हुई है। कुछ की मौत बेशक अन्य बीमारियों से हुई लेकिन अधिकतर की मौत कोविड से ही हुई है।
टेस्टिंग कम होने के पीछे लोगों के मन में बसा डर भी है। दुमका के एक और ब्लॉक चिकित्सा अधिकारी ने बताया, ‘’हम टेस्टिंग करना चाह रहे हैं लेकिन लोगों में इतना डर हो गया है कि वो ये सोचते हैं कि ये किडनी, आंख निकाल लेंगे इसलिए वो टेस्ट नहीं कराते हैं। हम लगातार जागरूकता अभियान चला रहे हैं लेकिन लोग टेस्ट कराने से या वैक्सीन लगवाने से डर रहे हैं।‘’ जाहिर है, जिले में आदिवासी बहुल आबादी होने के कारण अब भी कोविड को लेकर जागरूकता की बड़े पैमाने पर कमी है।
इसी से निपटने के चक्कर में राज्य सरकार ने पहले से चलाये जा रहे स्वास्थ्य सुरक्षा सप्ताह को दो हफ्ते बढ़ाकर 27 मई तक लागू कर दिया है और लॉकडाउन के नियमों को भी 16 मई से कठोर बना दिया है, हालांकि यह फैसला भी विवाद में घिर गया है कि जब पहले से घोषित लॉकडाउन 13 मई तक था तो अगला निर्देश 16 मई से लागू करने का क्या औचित्य है। आलोचक बीच में लॉकडाउन से दो दिन के अवकाश को ईद से जोड़ कर देख रहे हैं।
झारखंड बनाम देश
झारखंड पूरे देश में इस लिहाज से एक आदर्श स्थिति रखता है कि वहां आबादी के अनुपात में पर्याप्त जमीनें हैं। इसके बावजूद कोरोना संक्रमण के जो आंकड़े वहां से आ रहे हैं, वे असंतुलित हैं। संक्रमित होकर ठीक हो जाने वालों की राष्ट्रीय औसत 82.7 प्रतिशत है जबकि झारखंड में यह औसत 80.25 है। राज्य में कोरोना से मरने वालों की दर (1.38 प्रतिशत) भी राष्ट्रीय औसत 1.1 प्रतिशत से ज्यादा है। इसके अलावा बीते एक सप्ताह में ऐसे मामलों में बढोतरी की दर 1.75 प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय औसत 1.25 प्रतिशत है। यह स्थिति 11 मई तक की थी।
21 अप्रैल से 11 मई के बीच बीस दिनों में यहां कुल 2476 मौतें हुई हैं यानी रोज़ाना 100 मौतें। यह बावजूद इसके कि वहां लॉकडाउन लगा हुआ है। इसकी बड़ी वजह यह समझ में आती है कि दूसरे राज्यों से इस बार झारखंड में जो प्रवासी लौटे उनके क्वारंटीन और परीक्षण की व्यवस्था नहीं की गयी। जब मामले बढ़े और स्थिति यहां तक पहुंच गयी, तब जाकर राज्य सरकार ने स्वास्थ्य सुरक्षा सप्ताह के विस्तार सम्बंधी अधिसूचना में बाहर से आने वालों के लिए 7 दिन के क्वारंटीन का प्रावधान किया, जो 16 मई से लागू होगा।
पिछले साल पहली लहर में मजदूरों को वापस लाने के लिए राज्य सरकार ने बहुत सारे कदम उठाए थे और उसकी तारीफ़ भी हुई थी। इस बार वे कदम देर से उठाए गए। महाराष्ट्र, गुजरात आदि राज्यों से लौटे मजदूर बिना किसी टेस्टिंग और बिना क्वारंटीन हुए अपने घर चले गए जिससे अचानक बीते महीने भर में संक्रमण के मामले बढ़ गए। इस बात की पुष्टि करते हुए आलोक बताते हैं कि इस लॉकडाउन में चूंकि अभी फैक्ट्रियां पूरी तरह से नहीं बंद हुई थीं इसलिए अभी तो कुछ ही लोग वापस आए हैं और कुछ अभी नहीं आए हैं, लेकिन जो लोग आ रहे हैं उनके लिए कोई व्यवस्था नहीं है।
महानगरों के हालात
आदिवासी बहुल सुदूर दुमका में कोरोना प्रबंधन की बदहाली तो फिर भी समझ आती है, लेकिन राजधानी रांची में भी बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं का घोर अभाव है। यह इसलिए खतरनाक है क्योंकि दूरदराज के क्षेत्रों से रेफर होकर लोग रांची इलाज करवाने आते हैं।
कोविड में लोगों की सहायता के लिए लगातार काम कर रहीं अपराजिता बताती हैं, ‘’रांची में वेंटिलेटरों की बहुत कमी है। पूरे प्रदेश भर के लोग रांची दिखाने के लिए आ रहे हैं। पूरे झारखंड में सबसे ज्यादा वेंटिलेटर रांची में ही हैं। ऐसे में आसपास के और झारखंड के अन्य जिलों के लोग भी आ रहे हैं रांची, लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण बहुत निराश हैं। अस्पतालों में ऑक्सीजन रखी है पर अस्पताल वाले मरीजों को नहीं दे रहे हैं जिसके कारण लोग मर रहे हैं। बहुत सिफारिश लगाने के बाद अस्पताल ऑक्सीजन दे रहे हैं।‘’
अपराजिता बताती हैं कि यहां भी मौत के आंकड़े किस कदर छुपाए जा रहे हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि अंशु नाम के एक लड़के के पिता की मौत अभी हाल ही में हुई थी। अंत्येष्टि के लिए श्मशान घाट में उनका नंबर 53वां था जबकि उस दिन रांची में सरकारी आंकड़ों में सिर्फ 19 मौतें दर्ज की गई थीं।
इसी तरह झारखंड के दूसरे बड़े औद्योगिक शहर धनबाद का हाल है। आपदा के बीच लोगों को लगातार मदद पहुंचाने में लगे समाजकर्मी एहसान अहमद खान धनबाद में बदइंतजामी की बात करते हुए बताते हैं कि गरीबों को तो ये भी नहीं पता कि टेस्टिंग हो रही है या नहीं; टेस्टिंग हो रही है तो कहां हो रही है। पैसे वाले तो जैसे-तैसे करके बेड जुगाड़ ले रहे हैं लेकिन शहर से दूर गांव का गरीब तो शहर ही नहीं आ पा रहा है।
वे कहते हैं, ‘’मौतों का सटीक आंकड़ा तो मैं नहीं बता सकता पर पूरे धनबाद में रोज तकरीबन 500 के करीब लोगों की मौत हो रही है, लेकिन सिर्फ 50-100 मौतें रोज की रिकॉर्ड की जा रही हैं।‘’
धनबाद में बुधवार को बीते 24 घंटे में कुल 41 पॉजिटिव मामले पाए गए। बुधवार को यहां रेलवे अस्पताल की चीफ नर्स की मौत कोविड से हो गयी। राज्य में बुधवार को हुई कुल आठ मौतों में एक मौत यह भी रही, जब 24 घंटे में पूरे राज्य में 788 नए केस सामने आए और संक्रमण का आंकड़ा 20,000 को पार कर गया।
संक्रमण और मौतों के मामले में रांची के बाद पूर्वी सिंहभूम अभी झारखंड में शीर्ष पर चल रहा है। यहां बुधवार तक कुल 4852 संक्रमण के केस थे हालांकि रिकवरी की दर में 24 घंटे में दोगुना सुधार भी देखा गया।
चइबासा में काम कर रही सामाजिक कार्यकर्ता शिखा बताती हैं कि यहां प्रखंड स्तर के अस्पतालों में कोविड से लड़ने के लिए कोई ठोस इंतजाम नहीं हैं। लोगों को चइबासा जिला अस्पताल भेजा जाता है लेकिन, वहां भी बदहाली की हालत ऐसी है कि लोग वहां से जमशेदपुर जाते हैं अपने मरीज को लेकर और रास्ते में मरीज की मौत हो जाती है।
चाइबासा के स्वास्थ्य विभाग के एक हेल्थ इंस्पेक्टर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि यहां पहले से ही डेंगू, मलेरिया, दिमागी बुखार जैसी बीमारियों ने अपना आतंक मचा रखा था, लेकिन कोविड के आने के बाद उन बीमारियों की तरफ किसी का ध्यान नहीं है। ऐसे में कोविड से भी मौतें हो रही हैं, साथ ही साथ उन बीमारियों से भी मौतें हो रही हैं। प्रशासनिक अधिकारियों से जब इन मौतों पर बात करने की हमने कोशिश की तो किसी भी अधिकारी से संपर्क नहीं हो पाया।
फिलहाल झारखंड की ताजा स्थिति यह है कि यहां कोविड संक्रमण की दर गुरुवार को पहली बार घटी है। यहां संक्रमण वृद्धि की दर, राष्ट्रीय औसत (1.19 प्रतिशत) के मुकाबले 1.57 प्रतिशत थी।
परिवर्तन या प्रचार के ”चैम्पियन”?
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को जनवरी 2020 में चैंपियंस ऑफ चेंज का पुरस्कार दिया गया था। यह सम्मान तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने दिल्ली के विज्ञान भवन में सोरेन को दिया था। इस सम्मान के पीछे दुमका और बरहेट में सोरेन के किये काम गिनाये गये थे। पुरस्कार मिलने के डेढ़ साल के भीतर दुमका का हाल इतना बुरा है कि खुद उनके विधायक भाई को स्वास्थ्य तंत्र की नाकामी की सच्चाई स्वीकार करनी पड़ रही है। दूसरी ओर मुख्यमंत्री की अपनी सीट बरहेट में महीने भर पहले जब विशेष टीकाकरण अभियान चलाया गया, तो कुल 19 केंद्रों में से 16 केंद्रों पर कोई टीका लगवाने ही नहीं आया। बचे तीन केंद्रों पर केवल 50 लोगों ने टीका लगवाया।
इस बीच बरहेट में हेमंत सोरेन के विधायक प्रतिनिधि पंकज मिश्रा खुद संक्रमित होकर रांची में भर्ती हो गए। अभी हफ्ते भर पहले वे नेगेटिव होकर वापस आए हैं। जनता और विधायक के बीच विधायक प्रतिनिधि पुल का काम करता है, ऐसे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि बरहेट में लोगों को कैसी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा होगा। इसकी एक बानगी इस ट्वीट में देखी जा सकती है जिसमें ट्वीट करने वाला व्यक्ति कह रहा है अपने क्षेत्र पर ध्यान दीजिए नहीं तो अगली बार आपको बरहेट में हारना पड़ेगा।
बहरहाल, संक्रमण से होने वाली मौतों की दर दूसरी बार राज्य में प्रतिदिन 100 से नीचे आई है। गुरुवार की शाम केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा की गयी प्रेस कॉन्फ्रेंस में जहां बढ़ते हुए कोरोना संक्रमण के मामलों को गिनाया गया, झारखंड का नाम उन राज्यों में नहीं था। यह अच्छी खबर है। इसके अलावा झारखंड सरकार ने एक महत्वपूर्ण घोषणा की है कि कोविड-19 स अनाथ हुए बच्चों का पुनर्वास किया जाएगा, जो परिजन अनाथ हुए बच्चों को संभालेंगे उन्हें राज्य सरकार की ओर से वित्तीय सहायता प्रदान की जाएगी और कोई परिजन न होने की स्थिति में इन बच्चों को सुरक्षा के लिहाज से राजकीय बालगृह में रखा जाएगा।
ये घोषणाएं ज़मीन पर कितना उतर पाती हैं ये तो देखने वाली बात होगी, लेकिन दूसरी लहर में झारखंड सरकार के खराब प्रदर्शन ने हेमंत सोरेन को मिले ‘’परिवर्तन के चैम्पियन’’ सम्मान पर तो सवाल उठा ही दिया है। राज्य का सूरते हाल देखते हुए यह सवाल तो बनता ही है कि हेमंत सोरेन को मिला पुरस्कार परिवर्तन के लिए था या परिवर्तन के प्रचार के लिए?