प्रधानमंत्री अपने संबोधनों में बारंबार दो स्वदेशी वैक्सीनों का जिक्र करते रहे हैं, लेकिन ऐसा है नहीं। केवल भारत बायोटेक द्वारा निर्मित कोवैक्सीन को ही स्वदेशी वैक्सीन कहा जा सकता है। कोविशील्ड वैक्सीन तो ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका का भारतीय संस्करण मात्र है। दूसरी बात यह है कि जब हम स्वदेशी वैक्सीनों का जिक्र करते हैं तो इससे यह ध्वनित होता है कि इनके निर्माता भी भारत सरकार के उपक्रम हैं जिन पर सरकार का प्रत्यक्ष नियंत्रण है, किंतु स्थिति ऐसी नहीं है। अधिक उपयुक्त होता यदि प्रधानमंत्री “स्वदेशी पूंजीपतियों की निजी कंपनियों द्वारा निर्मित दो वैक्सीन” जैसी किसी अभिव्यक्ति का प्रयोग करते।
इस भयानक वैश्विक महामारी की विनाशक दूसरी लहर के दौरान हमारे विशाल देश का कोविड-19 टीकाकरण अभियान अब तक दो प्राइवेट निर्माताओं पर आश्रित है जबकि आश्चर्यजनक रूप से वैक्सीन निर्माण से जुड़े भारत सरकार के उपक्रमों को कोविड-19 हेतु वैक्सीन निर्माण की प्रक्रिया से बाहर रखा गया है। हाल ही में मद्रास हाइ कोर्ट ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए इस बात पर घोर आश्चर्य व्यक्त किया था कि एचएलएल बायोटेक लिमिटेड इंटीग्रेटेड वैक्सीन काम्प्लेक्स, चेंगलपट्टु, तमिलनाडु का उपयोग ऐसी विषम परिस्थिति में भी कोरोना वैक्सीन के निर्माण हेतु क्यों नहीं किया जा रहा है। माननीय न्यायालय ने कहा- “यह उच्चस्तरीय अत्याधुनिक सुविधाओं वाली केवल वैक्सीन का ही निर्माण करने वाली इकाई है। इस काम्प्लेक्स को राष्ट्रीय महत्व का प्रोजेक्ट माना जाता है। इसकी अनुमानित लागत 594 करोड़ है। बावजूद इन विशेषताओं के पिछले नौ वर्षों से इसे उपयोग में नहीं लाया जा सका है।”
एक बात साफ है, सरकार वर्तमान में कोविड वैक्सीन निजी निर्माताओं (कोवैक्सीन- भारत बायोटेक और कोविशील्ड- सीरम इंस्टीट्यूट) से प्राप्त कर रही है। इसका अर्थ यह है कि भारत सरकार के वैक्सीन निर्माण करने वाले संस्थानों का जरा भी उपयोग नहीं किया गया है… हमारी पीड़ा यह है कि जब सरकार के पास खुद के वैक्सीन निर्माण संस्थान हैं तब इन मृतप्राय पब्लिक सेक्टर इकाइयों को पुनर्जीवित कर इनका सार्थक उपयोग किया जाना चाहिए जिससे कि सरकार सभी नागरिकों तक टीका पहुंचा सके।
मद्रास हाइ कोर्ट
एक सहज सवाल जो हम सब के मन में है वह माननीय न्यायालय ने भी पूछा- “यदि कोवैक्सीन को भारत बायोटेक ने इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी के सहयोग से विकसित किया है तो फिर इसका उत्पादन सरकारी वैक्सीन निर्माण संस्थानों को छोड़कर एकमात्र निजी संस्थान में क्यों हो रहा है?”
ऐसा नहीं है कि राज्यों के मुख्यमंत्री इन सरकारी वैक्सीन संस्थानों को कोविड-19 वैक्सीन निर्माण में लगाने की मांग नहीं कर रहे हैं। मीडिया में आयी खबरों के अनुसार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने प्रधानमंत्री के साथ 17 मार्च की वीडियो कांफ्रेंस में राज्य के स्वामित्व वाले हॉफकिन इंस्टीट्यूट ऑफ मुम्बई को कोवैक्सीन की टेक्नोलॉजी के स्थानांतरण हेतु अनुरोध किया था किंतु प्रधानमंत्री से उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला।
सरकारी क्षेत्र के अनेक टीका निर्माता संस्थान हमारे देश में हैं। तमिलनाडु में ही बीसीजी वैक्सीन लेबोरेटरी, पाश्चर इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया जैसे संस्थान भी हैं जबकि हिमाचल प्रदेश में सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट, उत्तर प्रदेश में भारत इम्युनोलॉजिकल्स एंड बायोलॉजिकल्स कारपोरेशन लिमिटेड एवं तेलंगाना में ह्यूमन बायोलॉजिकल्स इंस्टीट्यूट भी वैक्सीन निर्माण के सरकारी संस्थान हैं। रिपोर्टों के अनुसार अब जाकर 16 अप्रैल 2021 को भारत सरकार ने वैक्सीन निर्माण हेतु तीन पीएसयू को अनुमति देने की योजना बनायी है, किंतु अब भी स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन आने वाली तीन बेहतरीन वैक्सीन निर्माता सरकारी कंपनियां इस सूची से बाहर हैं।
अमेरिका और इंग्लैंड की सरकारें अपने देश में उत्पादित हो रही वैक्सीनों को केवल घरेलू उपयोग के लिए सुरक्षित रख रही हैं। यूरोपीय संघ भी अपने सदस्य देशों द्वारा उत्पादित वैक्सीनों को इन देशों के मध्य ही वितरित कर रहा है। चीन ने कोविड वैक्सीन का निर्यात किया है किंतु वह इसका सबसे बड़ा उत्पादक भी है, वहां कोविड-19 संक्रमण नियंत्रित है और शायद वह वैक्सीन उपलब्ध करा कर इस वायरस के प्रसार हेतु खुद को उत्तरदायी ठहराये जाने से बिगड़ी छवि को सुधारना भी चाहता है। प्रसंगवश यह उल्लेख भी कि अधिकतर विकसित देश वैक्सीन निर्माता कंपनियों को वैक्सीन के प्री-ऑर्डर 2020 के मध्य में ही दे चुके थे। अनेक विकसित मुल्क तो अपनी आबादी को दो बार वैक्सिनेट करने लायक संख्या में वैक्सीन के ऑर्डर दे चुके हैं। इन देशों ने कोविड की विनाशक पहली और दूसरी लहर का बारीकी से अध्ययन कर टीकाकरण के महत्व को समझा है।
अपने देश में उत्पादित वैक्सीन को अन्य देशों को उपलब्ध कराने वाला दूसरा देश भारत है। विदेश मंत्री ने 17 मार्च 2021 को राज्यसभा में और स्वास्थ्य मंत्री ने 9 अप्रैल 2021 को कोविड-19 पर हुई मंत्रिसमूह की बैठक में वैक्सीन मैत्री पहल की प्रगति का विवरण दिया। विदेश मंत्रालय का 22 अप्रैल का आंकड़ा बताता है कि भारत 94 देशों को 6 करोड़ 60 लाख वैक्सीन दे चुका है। इस विवरण में तारीखों का उल्लेख इसलिए कि यही वह कालखंड था जब कोरोना के नये वैरिएंट हमारे देश में पैर पसार रहे थे और दूसरी लहर धीरे-धीरे रूपाकार ले रही थी। यदि तब इन वैक्सीनों का उपयोग हमारे देश में हुआ होता तो शायद दूसरी लहर इतनी भयानक नहीं होती। दूसरे देशों को भेजी गयी वैक्सीनों की यह संख्या हमारे दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों को संक्रमणरोधी कवच पहना सकती थी।
कहा तो यह भी जा रहा है कि इन 6 करोड़ 60 लाख वैक्सीन में से एक बड़ी संख्या एसआइआइ के पिछले वादों को पूर्ण करने के लिए भेजी गयी थी जो उसने कोवैक्स अलायन्स के अनुबंध के तहत किये थे। केवल 1 करोड़ 6 लाख 10 हजार वैक्सीन ही ग्रांट के तहत भेजी गयी थीं। प्रदर्शनप्रिय भारतीय सरकार का अन्तरराष्ट्रीयतावाद भी खालिस नहीं था।
भारत को विश्व गुरु बनाना तो नहीं अपितु खुद को विश्व नेता के रूप में प्रस्तुत करना प्रधानमंत्री का लक्ष्य रहा है और उन्होंने अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को देश पर इस तरह आरोपित कर दिया है कि आज देश जीवनरक्षक वैक्सीन की उपलब्धता के संकट से जूझ रहा है। शायद प्रधानमंत्री को सच बताया नहीं गया। यह भी संभव है कि अब वे सच से परहेज करने लगे हों जिससे उनकी आत्ममुग्धता का रचा आभासी संसार कायम रह सके, सत्य का ताप उसे वाष्पित न कर पाए।
इस मामले में सर्वोच्च अधिकारियों द्वारा सरकार को लगातार गलत परामर्श दिया जाता रहा। दिसंबर 2020 में कोरोना से लड़ाई में सरकार के मजबूत स्तम्भ डॉ. वी के पॉल (जो स्वयं एक पीडियाट्रिशियन हैं, न कि महामारी विशेषज्ञ) ने सरकार को बताया था कि हमें केवल 15 करोड़ वैक्सीनों की जरूरत पड़ेगी। केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण हाल के दिनों तक कहते रहे हैं कि हम उन्हें ही वैक्सिनेट करेंगे जिन्हें इनकी जरूरत है न कि उन्हें जो वैक्सीन लगाना चाहते हैं। स्थिति के आकलन की यह चूक भयंकर, आश्चर्यजनक और दुखद है।
कोविड-19 की वैक्सीन के निर्माण की वर्तमान रणनीति प्रचलित सीजनल इन्फ्लुएंजा वैक्सीन निर्माण क्षमता का त्वरित उपयोग कोविड-19 वैक्सीन के उत्पादन हेतु करने की योग्यता पर आधारित है। भारत में सीजनल इन्फ्लुएंजा वैक्सीन का बाजार बहुत कम है। यह यूरोपीय देशों और अमेरिका में फैला हुआ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2005 में यह अनुभव किया कि वैश्विक महामारी के प्रसार की स्थिति में विश्व में वैक्सीन की कमी पड़ सकती है। यही कारण है कि उसने इन्फ्लुएंजा वायरसों के लिए ग्लोबल एक्शन प्लान (2006-2016) प्रारंभ किया। इस कारण वैश्विक महामारी हेतु वैक्सीन निर्माण की क्षमता तो बढ़ी किंतु इस वृद्धि से वैक्सीन उत्पादन की असमानता यथावत रही। अब भी उच्च आय वर्ग वाले विकसित देश लगभग 69 प्रतिशत इन्फ्लुएंजा वैक्सीन का उत्पादन कर रहे हैं जबकि निम्न और मध्यम आय वर्ग के देशों में इस प्रकार की वैक्सीन का उत्पादन 17 प्रतिशत के आसपास है। भारत की तीन कंपनियां इन्फ्लुएंजा वैक्सीन का उत्पादन करती हैं। इनमें से सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया प्रमुख है। शेष दो जाइडस कैडिला और सीपीएल बायोलॉजिकल्स प्राइवेट लिमिटेड हैं।
यदि मोदी सरकार ने उत्पादन क्षमता और संभावित मांग-आपूर्ति का आकलन किया होता तो उसे यह आसानी से समझ में आ जाता कि हमारी क्षमता अपनी खुद की आबादी को भी वैक्सिनेट करने की नहीं है। जिन दो उत्पादकों पर उसने भरोसा किया है- भारत बायोटेक और एसआइआइ- वे समूचे देश की जरूरतों को पूरा नहीं कर सकते। हमने विदेशी वैक्सीन निर्माताओं को अपने देश में आने नहीं दिया। स्वास्थ्य मंत्री ने फाइजर की भारत में वैक्सीन निर्माण की क्षमताओं पर सवाल उठाये।
सरकार के सामने दो विकल्प थे- स्वयं वैक्सीन का उत्पादन करना अथवा अधिकाधिक निजी वैक्सीन निर्माताओं को मैदान में उतारना। वर्तमान सरकार तो सार्वजनिक इकाइयों को बेचने पर आमादा है, उससे यह कम ही आशा थी कि वह सारी सरकारी टीका कंपनियों को पुनर्जीवित करेगी। सरकार का निर्णय बताता है कि संकीर्ण राष्ट्रवाद और देशी पूंजीपतियों को संरक्षण देने की प्रवृत्ति साथ-साथ चलते हैं। सरकार चाहती तो देश के सम्पन्न लोगों को वैश्विक अर्थव्यवस्था के लाभ मिल सकते थे। विदेशी वैक्सीन निर्माता कंपनियों के प्रवेश के बाद कम कम से आर्थिक रूप से सक्षम लोगों के पास अलग-अलग प्रकार की वैक्सीनों में से चुनने का अवसर उत्पन्न होता, शायद प्रतिस्पर्धा के कारण वैक्सीन की कीमतें भी नियंत्रित होतीं।
इसके साथ यदि सरकारी क्षेत्र के उपक्रम भी टीके का उत्पादन करने लगते तब निजी कंपनियों पर और दबाव बनता तथा कीमतें काबू में रहतीं। यदि ऐसा नहीं भी होता तब भी कम से कम देश के निर्धन वर्ग को समय पर मुफ्त वैक्सीन मिलने की गारंटी होती।
प्रधानमंत्री ने अदार पूनावाला के सीरम इंस्टीट्यूट का दौरा कर पता नहीं देश के लोगों को क्या संदेश देने की कोशिश की थी, लेकिन इसके बाद मीडिया ने पूनावाला को एक राष्ट्रभक्त धनकुबेर के रूप में प्रस्तुत करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। यदि प्रधानमंत्री भी कुछ ऐसा ही जाहिर करना चाहते थे तो बाद के घटनाक्रम ने इस झूठ को उजागर कर दिया। अदार पूनावाला अपनी व्यावसायिक प्रतिबद्धताओं को ऊपर रखते दिखे। सरकार ने उन्हें राज्यों और प्राइवेट अस्पतालों को मनचाही कीमत पर वैक्सीन बेचने का अवसर भी प्रदान किया। वे उस अवसर का आनंद भी लेते किंतु वे यह भूल गए थे कि व्यापारियों का भला इसी में है कि वे राजनीतिज्ञों से दूरी बनाये रखें। वैक्सीन की कमी से बौखलाये राजनेताओं का दबाव उन पर भारी पड़ा और अब वे देश से बाहर हैं।
बहरहाल, अभी स्थिति यह है कि देश में टीकाकरण कार्यक्रम विसंगतियों और खामियों का सर्वश्रेष्ठ संकलन बना हुआ है। सरकार को शायद डिजिटलीकरण के सरकारी आंकड़ों पर ज्यादा यकीन है न कि जमीनी हकीकत पर। यही कारण है कि वैक्सिनेशन के लिए ऑनलाइन पंजीयन अनिवार्य बनाया जा रहा है। यह ग्रामीण भारत और निर्धन भारत को वैक्सिनेशन से दूर कर सकता है। विडंबना तो यह है कि क्रैश होते कोविन पोर्टल पर उस वैक्सीन के रजिस्ट्रेशन की मारामारी है जो स्टॉक में है ही नहीं। वैक्सीन की भारी कमी के बीच प्रधानमंत्री की प्रेरणा से हम 11-14 अप्रैल के बीच टीका उत्सव मना चुके हैं और अब जब टीकों का नितांत अभाव है तब हमने 1 मई से 18-44 वर्ष आयु वर्ग के लोगों का टीकाकरण शुरू कर दिया है। यह तय नहीं है कि जो 50 प्रतिशत वैक्सीन सीधे कंपनियों से खरीदी जानी है उसमें राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों की कितने प्रतिशत की हिस्सेदारी होगी। निजी अस्पताल वैक्सीन निर्माताओं को ज्यादा दाम देंगे। कहीं यह स्थिति न बन जाए कि राज्य सरकारों के पास इसलिए टीके न हों क्योंकि टीका निर्माता ने ज्यादा मुनाफा देखकर निजी अस्पतालों को टीके बेच दिये हैं। अब तो स्थिति यह है कि पंजाब, उड़ीसा जैसे अनेक राज्य कोवैक्स अलायन्स जॉइन करने और ग्लोबल टेंडर करने की बात कर रहे हैं। वैश्विक महामारी के दौर में हमारा देश बंट रहा है।
कुछ बुद्धिजीवी और कानूनविद लगातार यह आपत्ति उठाते रहे हैं कि हमारा टीकाकरण कार्यक्रम जीवन के अधिकार का सम्मान नहीं करता। जीवन का अधिकार एक सार्वभौमिक अधिकार है, हर व्यक्ति को चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, सम्प्रदाय या लिंग का हो, चाहे वह निर्धन या धनी हो, उसे यह अधिकार प्राप्त है। हमारा टीकाकरण कार्यक्रम तो अलग-अलग लोगों के जीवन की अलग-अलग कीमत लगा रहा है। यदि टीके का एक मूल्य भी होता तब भी अलग-अलग आर्थिक स्थिति के लोगों पर यह मूल्य पृथक प्रभाव डालता। इसीलिए मुफ्त टीकाकरण आवश्यक है। यह तभी संभव है जब सरकार टीकों का उत्पादन और वितरण खुद करे।
सरकार चलाने वाले नेता और नौकरशाह बड़ी हिकारत से इन तर्कों को सुन रहे हैं- बीते युग के घिसे पिटे कानपकाऊ तर्क! इधर लोग हताश हैं, घबराये हुए हैं, मौत का तांडव जारी है। इस निर्मम समय में वाकई मानव जीवन से सस्ता और महत्वहीन और कुछ नहीं।
डॉक्टर राजू पाण्डेय छतीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं