वह दिन अब गुजरे जमाने की बात हो गयी जब पूंजीपति उद्योग स्थापित करने के लिए सरकार के पास जमीन अधिग्रहण के लिए जाते थे कि वह किसानों से जमीन लेकर उन्हें दे। कुछ सालों से सरकार का जमीन अधिग्रहण करने के प्रयासों का अनुभव बहुत ही कड़वा रहा है। कलिंगनगर, सिंगुर, नंदीग्राम इसके जीवंत उदाहरण हैं। इसके कारण अब सरकारें पूंजीपतियों को कहती हैं कि वह अधिग्रहण की जिम्मेदारी खुद ही लें। चाहे तो जमीन खरीद लें या फिर किसानों से लीज़ पर लें।
इसलिए पूंजीपतियों ने किसानों की जमीन के अधिग्रहण के तरीके ढूंढ निकाले हैं। इस बात का अहसास राज्य और पूंजीपति दोनों को है कि सीधे-सीधे हिंसात्मक तरीके से काम नहीं चलेगा। इसलिए जरूरी है किसानों को जमीन देने के लिए राजी किया जाए। इसके लिए जो तरीका अपनाया जाता है उसको निम्नलिखित चरणों में समझा जा सकता है।
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पहला चरण
सबसे पहला काम गाँव के कुछ असंतुष्ट युवाओं को चिह्नित करना है जिन्हें पैसे और कंपनी में नौकरी के वादे से लुभाया जा सके। इस तरह के युवाओं को किसी भी गाँव में तलाश करना कोई मुश्किल काम नहीं है। सामान्यतः ये युवा थोड़े-बहुत पढ़े लिखे लेकिन बेरोजगार होते हैं जिनका ज्यादातर समय आवारागर्दी में व्यतीत होता है। इन युवाओं में अपने समाज के प्रति एक असंतुष्टि होती है लेकिन समाज जिन चुनौतियों से जूझ रहा होता है उसके समाधान के लिए किसी भी रचनात्मक जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार नहीं होते हैं। उन्हें इस सत्य का आभास होता है कि वर्तमान समाज में अंततः पैसा ही है जिसका महत्व है। ऐसे युवाओं का कृषक समाज के खेती के कामों से भी इस हद तक अलगाव रहता है कि वह भविष्य में अपने खेतों पर भी काम नहीं करना चाहते हैं।
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इन युवाओं के लिए जमीन से जुड़ाव जैसी कोई संवेदना भी नहीं होती है। आदिवासी समाज के सन्दर्भ में, यह उन युवाओं का समूह होता है जिसे परम्परागत आदिवासी समाज के नेतृत्व प्रति कोई विशेष सम्मान या आदर की भावना नहीं रहती है और ना ही वह गाँव के बड़े बुजुर्गों के विचारों को मानते हैं। इस तरह के युवाओं को सबसे पहले कंपनी द्वारा मोटरसाइकिल और दैनिक भत्ता दिया जाता है। उनको कंपनी द्वारा यह भी बता दिया जाता है कि जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया में उन्हें सक्रिय भूमिका निभानी होगी। इस तरह यह युवा गाँव के ऐसे पहले परिवारों में आ जाते हैं जो अपनी जमीन देने के लिए कंपनी को तैयार होते है।
इस तरह गाँव के समाज को विभाजित करने का पहला चरण पूरा हो जाता है।
दूसरा चरण
गाँव के बाकी लोगों को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है- एक समूह होता है बहुसंख्यक लेकिन खामोश लोगों का जो दिल की गहराई में अपनी जमीन देना तो नहीं चाहते है लेकिन एक शक्तिशाली कंपनी, प्रशासन एवं पुलिस के साथ सीधे-सीधे संघर्ष में असहाय महसूस करते हैं। साथ ही साथ इन लोगों को कंपनी, परियोजना की प्रकृति, परियोजना का पर्यावरण पर प्रभाव, मुआवजे की विस्तृत जानकारी, पुनर्वास के गुणवत्ता इत्यादि संबंधों के बारे में कम जानकारी होती है। दूसरे शब्दों में यह एक ऐसा समूह होता है जिसको अपनी जमीन छोड़ने के लिए तैयार करने के लिए फुसलाया जा सकता है।
कंपनी इन लोगों पर काम करना शुरू कर देती है। कम्पनी के लोगों को इस बात का इल्म रहता है कि इन भोले-भाले लोगों के साथ इस तरह से रिश्ते बनाने हैं जिससे वे परियोजना को स्वीकारने और विस्थापित होने के तैयार हो जाएं। पहले से ही खरीद लिए गए युवा समूह के द्वारा बातचीत आगे बढ़ायी जाती है। अब यह युवा समूह कंपनी और गाँववालों के बीच दलाल की तरह काम करने लगता है।
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इस क्षेत्र में कुछ लोगों को स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं की जरूरत रहती है। इन जरूरतों को चिह्नित किया जाता है। कंपनी अपने कुछ अफसरों को गाँववालों के पास भेजती है। यह लोग खरीदे गए युवाओं के साथ मिलकर गाँववालों को इकट्ठा करते हैं जहां पर वह अफसर गाँववालों से पुनर्वास योजनाओं के बारे में बड़े-बड़े वादे करते हैं और बताते हैं कि जमीन देने की स्थिति में उनको क्या-क्या फ़ायदा होगा। कंपनी साथ ही साथ प्राथमिकशाला को बनाने, उनको चलाने और जरूरी सामान मुहैया कराने का प्रस्ताव गाँववालों के सामने रखती है। इसके साथ ही छोटे स्तर का अस्पताल, सामुदायिक भवन, हैंडपंप इत्यादि अपने खर्चे पर शुरू करने का प्रस्ताव रखती है। यही लोग जमीन और संपत्ति के लिए ज्यादा बेहतर मुआवजा का वायदा करते हैं। हरेक घर से एक व्यक्ति को कंपनी में नौकरी दिलाने का विश्वास दिलाया जाता है। संक्षेप में, धरती पर ही स्वर्ग का वादा किया जाता है।
गाँव के कुछ लोगों को उन स्थानों पर घुमाने के लिए ले जाया जाता है जहां पर इसी कंपनी ने किसी दूसरी परियोजना में विस्थापित लोगों को खूबसूरत तरीके से पुनर्वासित किया गया हो। इसका मकसद यह होता है कि लोगों को यह लगे कि पहले की तुलना में आज यह समूह काफी बेहतर स्थिति में रह रहे हैं। धीरे-धीरे, एक समय के बाद बहुत से किसान कंपनी को अपनी जमीन देने के विरोध में नहीं रहते हैं। इस तरह प्रतिरोध को आरम्भ में ही कमजोर होने की शुरुआत हो जाती है।
इस तरह गाँव के लोगों को बांटने का दूसरा चरण पूरा हो गया।
तीसरा चरण
इसके बाद भी गाँव में प्रबुद्ध और मुखर लोगों का एक समूह बचता है जो परियोजना और कंपनी के विरोध में रहते हैं। यह लोग अपनी जमीन के साथ जुड़े हुए होते हैं। आदिवासी समुदाय वाले गाँव में यह समूह अपनी जमीन को केवल आजीविका का एकमात्र साधन नहीं मानते बल्कि अपने पुरखों की पवित्र विरासत मानते हैं जहाँ उनकी आत्माएँ बसती हैं। वे इस बात से भी वाकिफ होते हैं कि कंपनी उनको उनको जमीन से विस्थापित कर अपनी परियोजना शुरू करना चाहती है। उन्हें इस बात का बोध हो चुका होता है कि कंपनी यहाँ पर जो भी निवेश कर रही है वह केवल और केवल फायदे के लिए कर रही है न कि गाँव वालों के विकास कार्य के लिए। उनके अनुभव से उन्हें यह पता रहता है कि उद्योगपति पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। इसलिए वह बहुत स्पष्ट और बुलंद आवाज में बता देते हैं कि अपनी जमीन किसी भी कीमत पर वह कंपनी को नहीं देंगे।
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चलिए देखते हैं कि उद्योगपति इस समूह से किस प्रकार निपटता है:
पूंजीपति इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि गाँव के इस तबके को किसी भी तरह से जमीन देने के लिए मनाना संभव नहीं है। इसलिए ऐसे मुखर लोगों से निपटने के लिए कठोर तरीके का इस्तेमाल करना होगा। इसके लिए स्थानीय प्रशासन, स्थानीय पुलिस और पहले से ही कंपनी द्वारा खरीदे गए युवाओं के साथ मिलकर विस्तार में योजना बनायी जाती है कि किस प्रकार आक्रोश से भरे हुए परियोजना का विरोध कर रहे इन लोगों को किनारे किया जाए। किस-किस को किस प्रकार डराया जा सकता है। अगर उनको डराया नहीं जा सकता है तो किस प्रकार उनको झूठे मुकदमों में फंसाया जा सकता है जिससे वे लोग किसी भी तरह से पूरे परिदृश्य से गायब हो जाएं।
झारखंड में इस तरह की बहुत सारी घटनाएं हैं जब प्रतिरोध आन्दोलन के नेताओं को गैर-जमानती मुकदमों में फंसाया गया। उनमें से कई लोग हैं जिनको निचली अदालतों ने जमानत देने से मना कर दिया और उच्च न्यायालय से जमानत लेने की प्रक्रिया में उन्हें एक साल से ज्यादा का समय लग गया। इन सबके कारण उन लोगों को कई महीनों तक जेल में बंद रहना पड़ा। यहाँ तक कि परंपरागत आदिवासी समाजों के परंपरागत बुजुर्ग नेताओं पर भी बलात्कार और हत्या जैसे संगीन आपराधिक जुर्मों का आरोप लगाया गया। परियोजना का विरोध कर रहे जवान कार्यकर्ताओं को इस स्थिति में ला दिया जाता है कि वे गिरफ्तार होने के डर से स्थानीय हाट भी नहीं जा पाते हैं। पुलिस द्वारा पकड़े जाने के भय से या कंपनी द्वारा भाड़े पर लिए गए गुंडों द्वारा पिटने के डर से बस पकड़ने भी नहीं जा पाते हैं।
इन सबके बीच पूंजीपति दिखावे के लिए ‘लोक सुनवाई’ के सफल आयोजन में व्यस्त हो जाते हैं। इस बात का पुख्ता इंतजाम किया जाता है कि किस प्रकार इन ‘उपद्रवी तत्वों’ को दूर रखा जा सके। परियोजना के अनुमोदन के लिए भी एक सुनियोजित योजना तैयार की जाती है। एक बार जब यह अनुमोदन प्राप्त हो जाता है तब मीडिया के सामने आकर यह घोषणा की जाती है कि जनता ने इस परियोजना को स्वीकृति प्रदान की है बल्कि इन परियोजना का स्वागत भी किया है और सहर्ष अपनी जमीन देने के लिए तैयार है। इस तरह गाँव को बांटने का तीसरा चरण भी पूरा हो जाता है।
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इस सब के बावजूद इस तरह की घटनाएं हुई हैं जब प्रभावित लोगों ने अपने बीच किसी तरह के विभाजन नहीं होने दिया और लगातार मिलकर परियोजना का विरोध जारी रखा। इस तरह की असाधारण स्थिति असाधारण समाधान की मांग भी करती है। इस स्थिति से निपटने के लिए राज्य सरकार, स्थानीय शासन एवं पुलिसबल को एक साथ आना महत्वपूर्ण हो जाता है और राजकीय आतंक का सबसे घिनौना चेहरा सामने आता है।
झारखंड के कोयल कारो का उदाहरण हमारे सामने है जब निहत्थे शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस ने गोली चलायी थी। इस हत्याकांड में आठ लोगों की जान गयी एवं कई लोग घायल हुए। 2005 में कलिंगनगर में जब टाटा कंपनी जमीन खाली कराने के लिए बुलडोज़र के साथ गयी तो उसके साथ हथियारबंद पुलिस की 11 पलटन भी साथ थी। लोगों ने अपनी जमीन खाली करने से मना किया और पुलिस फायरिंग में 11 लोग मारे गए। यह लोगों को उन्हीं की जमीन से बेदखल कर पराया कर देने के लिए बनायी गयी औद्योगिक परियोजनाओं के खिलाफ लोगों के संघर्ष पर अंतिम और अनुमानित वार होता है।
संघर्ष फिर भी जारी है
अभी तक जो भी कहा गया है इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि जनता यह संघर्ष हार चुकी है। जल्दी ही वे पूंजीपतियों की तिकड़म को समझने लगते हैं। इन परिस्थितियों में भी अपनी एकता बनाए रखने की रणनीति तैयार कर लेते हैं और निर्णयात्मक रूप से अपनी जमीन पूंजीपति को ना देने का मन बना कर संघर्ष में जुट जाते हैं। इसके बाद की लड़ाई के लिए यह जरूरी है कि बाकी लोग भी अपनी अंतरात्मा की आवाज पर इन संघर्षरत किसानों के समर्थन और सहायता में खड़े हो जाएं।
स्टेन स्वामी का यह लेख मार्च 2015 में संहति पर अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ था। इसका हिंदी में अनुवाद पुष्पम ने किया है। स्टेन स्वामी के और लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।