SIR, सामाजिक न्याय और भारतीय गणतंत्र का भविष्य: चुनौतियों का विश्लेषण


भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में एसआईआर (Special Intensive Revision), सामाजिक न्याय के सिद्धांत और भारतीय गणतंत्र के भविष्य पर एक गंभीर चिंतन आवश्यक है । इस चर्चा की शुरुआत डॉ. बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिए गए उस ऐतिहासिक बयान से होती है, जिसमें उन्होंने स्पष्ट चेतावनी दी थी कि राजनीतिक बराबरी तब तक लंबे समय तक कायम नहीं रह सकती, जब तक कि इसके साथ आर्थिक बराबरी और सामाजिक बराबरी स्थापित न हो जाए। हम इसी मूल संवैधानिक दृष्टि के आलोक में देश की वर्तमान स्थितियों का विश्लेषण करेंगे, जहाँ ये तीनों स्तंभ खतरे में प्रतीत हो रहे हैं।

एसआईआर (Special Intensive Revision) की प्रक्रिया को देश में लोकतंत्र की बुनियाद को समाप्त करने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। एसआईआर (स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन) का दूसरा चरण 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में लागू किया गया है। इनमें निम्न राज्य और केंद्रशासित प्रदेश शामिल हैं-

राज्य: उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल

केंद्र शासित प्रदेश: अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप, पुदुचेरी

इस चरण में लगभग 51 करोड़ मतदाताओं के नामों की समीक्षा की जाएगी। एसआईआर के तहत, मतदाता सूची में नाम जोड़ने, हटाने और सुधार करने के लिए विशेष प्रक्रिया अपनाई जाएगी। यह प्रक्रिया 4 नवंबर से 4 दिसंबर तक चलेगी, जिसके बाद मतदाता सूची का प्रकाशन किया जाएगा। असम में एसआईआर की प्रक्रिया अलग से आयोजित की जाएगी, क्योंकि वहां नागरिकता संबंधी मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश हैं।

जब मतदाता सूची का संशोधन (रिवीजन) वर्ष में चार बार, यानी हर त्रैमासिक समय में हो रहा है, तो इस स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (एसआईआर) की अतिरिक्त आवश्यकता क्यों पड़ी। इस प्रक्रिया में बूथ लेवल ऑफिसर्स (BLOs) को घर-घर जाकर सत्यापन का आदेश है, जिसमें यह जांचना शामिल है कि कौन जीवित है, किसका देहांत हो गया है, या कौन पता बदल कर चला गया है। हालांकि, इस प्रक्रिया की सबसे बड़ी विसंगति नागरिक प्रमाण पत्र (सिटीजन सर्टिफिकेट) जैसे प्रमाण पत्रों की मांग है। यह माना गया है कि ये प्रमाण पत्र मंत्रिमंडल में बैठे लोगों और सांसदों के पास भी शायद उपलब्ध नहीं हो पाएंगे, तो उन गरीब लोगों, जिन्होंने मैट्रिक पास नहीं किया है, या प्रवासी मजदूरों (माइग्रेंट लेबर) का क्या होगा, जिन्हें इनकी आवश्यकता है। एक अन्य विसंगति यह है कि पासपोर्ट को प्रमाण पत्र माना जाता है, जिसके लिए आधार कार्ड की आवश्यकता होती है, फिर भी आधार कार्ड को पूर्ण रूप से प्रमाणित न मानकर सिर्फ एक सपोर्टिंग डॉक्यूमेंट क्यों माना जा रहा है। पूरा विपक्ष संसद में एसआईआर पर विरोध दर्ज कराया, लेकिन उसकी एक भी नहीं सुनी गई।

राजनीतिक बराबरी के खंडन में यह कह सकते हैं कि वर्तमान ‘कंपनी बहादुर’ की ‘हम दो हमारे दो की सरकार’ चल रही है। यह राजनीतिक बराबरी वह थी, जहाँ अडानी और अंबानी के वोट से लेकर खेत में काम कर रहे किसान और जंगल में लकड़ी काट रहे आदिवासी का वोट बराबर माना जाता था। लेकिन एसआईआर लाए जाने के बाद से यह राजनीतिक बराबरी खंडित होती हुई नजर आ रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि अब यह सरकार तय करना शुरू कर रही है कि ‘वी द पीपल ऑफ इंडिया’ कौन होंगे और वोट देने वाले कौन होंगे ।

एसआईआर के तीन मुख्य आयाम, जो शासन के चरित्र को दर्शाते हैं। पहला आयाम है सहमति के प्रति अनादर (Contempt for Consent), जो हिंदुत्व और संघ की सहमति के प्रति अनादर को दर्शाता है। जब वे भारी बहुमत से चुनाव जीतते हैं, तो उनका तर्क होता है कि जुडिशियरी, नौकरशाही या विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों को नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि वे चुनाव जीत गए हैं। हालांकि, जैसे ही वे चुनाव हारने लगते हैं, संशोधन (रिवीजन) शुरू हो जाता है, जो लोकतंत्र में उनके कम विश्वास को दर्शाता है।

दूसरा आयाम प्रतिशोधी और बदले की भावना वाला शासन (Retributive and Revengeful Governance) है । एसआईआर का एक स्पष्ट संदेश है: “अगर आप हमें वोट नहीं दोगे, तो आपका नाम हम डिलीट कर देंगे”। दिल्ली में पिछले 10 वर्षों में (एलजी के माध्यम से) सभी कल्याणकारी योजनाओं (स्कूल, पानी आदि की) को रोक देने का उदाहरण दिया गया है, जहाँ तर्क था कि यदि आप वोट नहीं देते हैं तो आपको भुगतना पड़ेगा। यह बदले की भावना संघ परिवार की राजनीति के केंद्र में है।

तीसरा आयाम गरीबों के प्रति गहरी अवमानना और संदेह (Deep Contempt and Suspicion for the Poor) है। एसआईआर केवल मतदाता सूची पर हमला नहीं है, बल्कि यह गरीबों के प्रति गहरी अवमानना को दर्शाता है। पहले सरकार अवैध अप्रवासियों को घुसपैठी और “टर्माइट्स” कहती थी, लेकिन अब उन्हीं नागरिकों (माइग्रेंट्स) को, जो बाहर चले गए हैं, कहा जा रहा है कि वे वोट नहीं डाल सकते। कोविड के दौरान, इन्हीं प्रवासियों ने हजारों किलोमीटर पैदल चलकर अपने जीवन को बचाया था, और अब वे अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह शासन मॉडल कमजोर और संवेदनशील वर्गों से नफरत करने की एक सार्वजनिक नैतिकता स्थापित करने की कोशिश कर रहा है। जबकि एनआरसी/सीएए मुख्य रूप से मुस्लिम मतदाताओं को लक्षित करने के लिए थे, एसआईआर में जिन लोगों के नाम सूची से हटाए जाने की संभावना है, वे ज्यादातर हिंदू हैं (जैसे ईबीसी, दलित, ओबीसी)। यह एक ऐसी रणनीति है जिसके तहत अपर कास्ट वोट को मजबूत करने के लिए दलितों और ओबीसी को विभाजित करने की कोशिश की जा रही है ।

सामाजिक न्याय इस संबोधन का एक और केंद्रीय विषय है । आज नीतियां, नियम और कानून केवल 200 से 250 परिवारों को आगे बढ़ाने के लिए बनाए जा रहे हैं , जिससे देश में आर्थिक और सामाजिक दूरी (खाई) और भी अधिक दूर होती चली जाएगी। संविधान इस बात पर जोर देता है कि सरकार को अमीर और गरीब की खाई को जितना कम हो सके उतना कम करने का प्रयास करना चाहिए। हालांकि, देश को 4 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बताया जा रहा है, लेकिन अगर शीर्ष 10 या 20% लोगों की आय हटा दी जाए, तो प्रति व्यक्ति आय/जीडीपी सब-सहारा देशों के बराबर हो जाती है, जो अर्थव्यवस्था की वास्तविकता को दर्शाता है।

आरक्षण और प्रतिनिधित्व का संकट देश में सामाजिक न्याय के सबसे बड़े खतरों में से एक है। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी और एसटी के लिए प्रोफेसरों की सीटें 80 से 83% तक अभी भी रिक्त हैं। शासन प्रणाली में एक मूलभूत बदलाव आया है , जहाँ तंत्र या तो ठेके का तंत्र है या प्राइवेट का तंत्र है। यह चिंता का विषय है कि ठेके (contract) के तंत्र में और संविदा के तंत्र में आरक्षण कहीं से भी लागू नहीं होता है। इस प्रकार, शिक्षा जगत में कॉन्ट्रैक्ट अपॉइंटमेंट्स (संविदा नियुक्तियों) के कारण संवैधानिक आरक्षण प्रावधानों के साथ समझौता किया जा रहा है। कॉन्ट्रैक्ट अपॉइंटमेंट में आरक्षण का ध्यान नहीं रखा जाता है।

आरक्षण के समर्थक विश्लेषकों ने तर्क दिया कि आरक्षण विभाजनकारी प्रयास नहीं, बल्कि समावेशी प्रयास (इंक्लूसिव प्रयास) है, जिसका उद्देश्य उन वर्गों को अवसर (अपॉर्चुनिटी) देना है जिन्हें हजारों साल से, पीढ़ियों दर पीढ़ियों वंचित रखा गया। आरक्षण केवल भर्ती के लिए है, न कि परीक्षा पास कराने के लिए , और योग्यता (कॉम्पटेंस/मेरिट) में कोई समझौता नहीं होता है। हालांकि, शिक्षा जगत में नियमित नियुक्तियों के बजाय कॉन्ट्रैक्ट अपॉइंटमेंट्स होने से मनमर्जी से नियुक्तियां की जा रही हैं, जिससे योग्यता (मेरिट) से समझौता किया गया है। यदि फैकल्टी की मेरिट से समझौता किया जाता है, तो जेएनयू जैसे ‘इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस’ की प्रतिष्ठा खतरे में पड़ जाती है। पूरे देश में धीरे-धीरे पूंजीवादियों का कब्जा (कैपिटलिस्ट का कब्जा) होता चला जा रहा है।

देश में दो प्रकार की हिंसा (violence) जारी है: डायरेक्ट वायलेंस (Direct Violence): यह मुसलमानों के चेहरे पर सीधे तमाचे मारने जैसा है, जहाँ उन्हें सीधे तौर पर निशाना बनाया जाता है।

इनडायरेक्ट वायलेंस/डिसगाइज्ड वायलेंस (Indirect/Disguised Violence): इसे सोशल इनजस्टिस का वायलेंस कहा जाता है। इस अप्रत्यक्ष हिंसा को ऐसे समझिए कि जहाँ एक मेंढक को ठंडे पानी वाली कड़ाही में रखकर लगातार आँच दी जाती है। मेंढक को पता नहीं चलता कि वह मरने वाला है, क्योंकि पानी का तापमान धीरे-धीरे बढ़ता जाता है और वह मर जाता है। यह उपमा दर्शाती है कि बड़े सामाजिक परिवर्तन या अन्याय अक्सर तत्काल ध्यान खींचने वाले नहीं होते हैं, बल्कि इतने क्रमिक और विरल होते हैं कि पीड़ित समुदाय को अपनी आसन्न खतरे का एहसास होने से पहले ही वे व्यवस्था का हिस्सा बन जाते हैं। यह अप्रत्यक्ष हिंसा संघ (Sangh) द्वारा सीधे तौर पर ओबीसी, एससी, एसटी के ऊपर है। संघ इस देश में मनु का राज या गुरु द्रोण का राज स्थापित करना चाहता है, जहाँ लोग हँसी-खुशी अपना अंगूठा काटकर गुरु को अर्पण कर देंगे।

वर्तमान शासन मॉडल में एक मूलभूत बदलाव आया है, जिसकी शुरुआत डिमोनेटाइजेशन (Demonetization) के समय से हुई । डिमोनेटाइजेशन के दौरान, शक्ति का आनंद सरकार ने लिया, लेकिन जवाबदेही आम जनता पर थोपी गई थी। पहले नेहरूवादी राज्य की अवधारणा के तहत चुनाव आयोग (ईसी) घर-घर जाकर यह सुनिश्चित करता था कि लोगों को सूची में शामिल किया जाए । लेकिन वर्तमान मॉडल में, राज्य की कोई जिम्मेदारी नहीं है। अब व्यक्ति को स्वयं सिद्ध करना होगा कि वह भ्रष्ट नहीं है, वह वोटर है, और वह नागरिक है। यदि वे सिद्ध नहीं कर पाते हैं, तो उन्हें परिणाम भुगतने होंगे।

लोकतंत्र और असहमति का दमन पिछले 10 वर्षों में साफ दिखाई दिया है। “एंटी-नेशनल” और “अर्बन नक्सल” जैसी भाषाओं का उपयोग देश की समस्याओं पर बात करने वाले लोगों को चुप कराने के लिए किया गया है । यदि कोई व्यक्ति देश की समस्याओं पर बात करता है, तो उसे गुजरात अस्मिता को ठेस पहुंचाने वाला बता दिया जाता है। पिछले 10 वर्षों में, पीड़ा (suffering) स्वयं इस देश में अनामनीय (unnameable) बन गई है , और एसआईआर इसी तर्क का विस्तार है। भारत के लोकतांत्रिक भविष्य की रक्षा के लिए और इस तरह के अभ्यास को रोकने का एकमात्र उपाय जन आंदोलन और स्ट्रीट पॉलिटिक्स है। सत्ताधारी दल की ताकत इसी विश्वास पर आधारित है कि विरोधी दल इन मुद्दों पर सड़क पर लोगों को जुटा नहीं पाएंगे। इसलिए, नेतृत्व और विपक्षी दलों पर यह जिम्मेदारी है कि वे लोगों को सड़कों पर जुटाने में सक्षम हों, यदि सरकार यह अभ्यास जारी रहता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) लोकतंत्र में विश्वास नहीं रखने वाली विचारधारा है। आरएसएस सत्ता पर हावी होकर जिम्मेदारी से बचना चाहता है। यह एक अनरजिस्टर्ड सोसायटी है जिसका कोई पंजीकरण, मेंबरशिप या बैंक अकाउंट नहीं है, फिर भी इसने देश पर कब्जा किया हुआ है। जो समूह आज देश में प्रभावी है, उसका मुख्य उद्देश्य जनता को अलग-थलग करना और सभी संभावित धन (खनिज धन, भूमि पूंजी और अवसर) पर कब्जा करना है, जो भारत के लोकतांत्रिक भविष्य के लिए एक बड़ी चुनौती है।

यह स्थिति एक ऐसी घड़ी की तरह है, जहाँ हर टिक एसआईआर जैसे नीतियों के माध्यम से नागरिक अधिकारों को कम करता जा रहा है, और समय तभी रुक सकता है जब जनता सामूहिक रूप से सड़कों पर उतरकर उस तंत्र की बैटरी को निकाल दे जो उन्हें शासन में भागीदारी से बाहर रखने की कोशिश कर रहा है।


अखिलेश यादव, सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज, जेएनयू में रिसर्च स्कॉलर हैं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के उपाध्यक्ष रह चुके हैं।


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