विसर्ग के अनैतिक संसर्ग में फंसे बनारस के बहाने हिन्दी के कुछ सबक


बचपन में एक शिक्षक थे मेरे। जैसे सबके होते हैं। वह हमें संस्कृत पढ़ाते थे और तब लगता था कि वह ‘हैप्पी गो लकी’ किस्म के थे, पढ़ाने को लेकर बहुत संजीदा नहीं रहते थे। उनका एक जुमला अब तक याद है, ‘अरे, संस्कृत लिखना है? चिंता क्या करनी है… हिंदी लिखो और उसके बाद कॉपी पर फाउंटेन पेन से स्याही छिड़क देना। सब संस्कृत हो जाएगा।’ यह चुटकुला अपने विद्रूपतम हास्य को लेकर तब उपस्थित हुआ, जब प्रधानमंत्री मोदी के विधानसभा क्षेत्र में ‘मड़ुआहीह’ स्टेशन का नाम बदलकर बनारस किया गया और अतिरिक्त उत्साह में आए पीएम के चाटुकारों ने बनारस का भी नाम अपने हिसाब से संस्कृत में ‘बनारस:’ कर दिया और उसे पटि्टका पर भी लगा दिया।

कुछ पाठक शायद ऐसे भी हों जिन्हें फाउंटेन पेन का इस्तेमाल न पता हो या चेलपार्क की स्याही का बॉटल न दिखा हो। उनके लिए यह बताना जरूरी है कि अधिक दूर नहीं, 25-30 साल पहले बॉलपेन के साथ फाउंटेन पेन भी चलता था जिसमें इंक (स्याही) डालना होता था। वह कई बार ढबक (ओवरफ्लो) भी जाता था और शर्ट की जेब या कॉपी खराब हो जाती थी। प्रधानसेवक के अतिरिक्त उत्साही कलाकारों ने ‘बनारस:’ लिखवाकर दरअसल अपने अज्ञान की स्याही ढबका दी। यह लेखक बचपन के शिक्षक के दर्द और कुंठा को आज समझ सकता है, जब वह स्याही छिड़कने (यानी विसर्ग और अनुस्वार लगाने) को संस्कृत लिखने तक महदूद कर रहे होते थे। वह अपने सामने संस्कृत की मौत देख रहे थे, जिसका शोक भी मनाने की उनको न तो इजाजत थी, न मौका और न ही साधन। बनारस को बनारस: लिखकर आज मेरे उस मास्टर साहब की भविष्यवाणी को अधिकारियों ने सच किया है और संस्कृत के कफन-दफन की औपचारिक घोषणा कर दी है।

संस्कृत के व्याकरणाचार्य बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रमाकांत पांडे की पोस्ट

मजाक जब यथार्थ बन जाए, तो विद्रूप हो जाता है। यह बात किसी महान व्यक्ति ने कही हो या नहीं, लेकिन है बड़ी मारक, बड़ी खरी। आज हिंदी को सुग्राह्य, सरल (?) बनाने के नाम पर, उसके डिजिटलीकरण का बहाना बनाकर जिस तरह से हिंदी के मूल को ही खत्म किया जा रहा है, उस पर प्रहार किया जा रहा है, वह जल्द ही हिंदी को भी संस्कृत बना देगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। आखिर, 20-30 वर्षों में हमने हिंदी का इतना सत्यानाश तो कर ही दिया है कि बेहद आमफहम, बहुत ही सरल-सहज हिंदी लिखने वाले को भी लोग ‘क्लिष्ट हिंदीवाला’ बता दे रहे हैं और वह बेचारा या बेचारी बगलें झांकते हुए सोचता है- ‘इसमें मैंने ऐसा कौन सा विशुद्ध तत्त्व इस्तेमाल कर लिया?’

मजे की बात है कि ये सारा लेन-देन एकतरफा है। हिंदी में आप अधीर लिखेंगे तो क्लिष्ट हो जाएगा, लेकिन ‘देवनागरी’ में ‘एनक्शस’ लिख देंगें तो वह आसान होगा। यह कौन सी तुला है, कौन सा तर्क है, कौन सा विज्ञान है, यह तो हिंदी की चिंदी बिखेरने वाले ही जानें।

हिंदी से पहले आपने विसर्ग गायब किया, अब सामासिक चिह्न (-) को बिल्कुल प्रतिबद्ध तरीके से गायब किया जा रहा है। नल-नील, शादी-विवाह, राम-लखन जैसे युग्म आप देखेंगे कि हरेक छपी हुई जगह बिना सामासिक चिह्न के ही लिखे जा रहे हैं। अगर टेक्स्ट बुक की बात छोड़ दें तो, हरेक अखबार से लेकर डिजिटल स्पेस तक इसे गायब किया जा रहा है। पूर्णविराम को खत्म कर फुलस्टॉप कई जगहों पर आ ही चुका है। उसी तरह, अब यह सवाल उठाया जा रहा है कि ‘ऋ’, ‘ँ’, ‘ण’, ‘ञ’ इत्यादि चिह्नों या वर्णों की क्या जरूरत है?

किसी भी भाषा का मूल तो स्वर यानी ध्वनि ही है। हिंदी में यह अधिक है, तो यह उसकी शक्ति है, लेकिन इसे ही यह हटा रहे हैं। कई भाषाओं में कम ध्वनियां हैं तो उन्हें आयातित करना पड़ा है और यह बात अकादमिक स्तरों पर भी मानी गयी है। कामताप्रसाद गुरु ने भी अपनी किताब ‘हिंदी व्याकरण’ में इसी बात पर मुहर लगायी है कि हिंदी मूलत: ध्वनि का ही विज्ञान है।

इस जीव-विज्ञान को जरा समझिए और हिंदी के विज्ञान को समझिए। पूरा क-वर्ग कंठ से बोला जाता है, उसके बाद च-वर्ग आता है तो तालु से बोली जाती हैं, फिर मूर्द्धन्य ट-वर्ग आता है और तब ओंठ से बोले जाने वाला प-वर्ग। अभी अंत:स्थ, उष्म और संयुक्ताक्षरों पर बात के लिए तो एक अलग आलेख ही लिखना होगा। हिंदी के कुछ वर्णों को हटाने वाली बात वैसे ही है, जैसे किसी आदमी को कहा जाए कि तुम्हारे पास 10 उंगलियों की क्या जरूरत है, 8 से ही काम चला लो। या फिर, दो कान की क्या जरूरत है, एक से ही सुन लो। ‘ण’ और ‘न’ का अंतर आपको समझ नहीं आता, जड़बुद्धि आप हैं लेकिन सजा बेचारी हिंदी को देंगे।

यदि ऐसा है तो फिर पूरी वर्णमाला को ही खत्म कर दिया जाए, लिखने का व्यापार ही खत्म हो, रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तो आ ही गए हैं, आप बस उनको बोलिए और वे आपका आदेश मानेंगे ही। बात केवल कुछ वर्णों के गायब होने की नहीं है, न ही कुछ नियमों के अनुकूलन की। बात यह है कि आसान बनाने, डिजिटल तौर पर ग्राह्य बनाने के नाम पर आप हिंदी के मूल से ही छेड़छाड़ कर रहे हैं। व्याकरणिक नियमों का तो लोप कर ही रहे हैं, नये नियम भी बना रहे हैं, जो किसी भी तरह वाजिब नहीं हैं।

उदाहरण के लिए, यह बात बहुत तेजी से सामान्य होती जा रही है कि ‘लेकिन’ से वाक्यों की शुरुआत हो। उसी तरह वाच्य को भी पूरी तरह से बिगाड़ दिया गया है। अब तो कोई भी डिजिटल कॉपी अगर आप देख लें तो पता ही नहीं चलेगा कि कौन सा वाक्य प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है और कौन सा वाक्य उस चैनल या अखबार का वेब-संस्करण बोल रहा है। कोट-अनकोट का भेद ही बहादुरों ने पूरी तरह मिटा दिया है। उदाहरण के लिए:

‘’उन्होंने कहा कि मेरी इच्छा है कि मंदिर में सचिन सबसे पहले पधारें। इसके लिए उन्हें सम्मान के साथ बुलावा भेजेंगे। पूरी उम्मीद है कि सचिन मुजफ्फरपुर जरूर आएंगे।‘’

यह लेखक भी यहां अंग्रेजी का ही सहारा लेकर अपनी बात कह रहा है क्योंकि सामासिक चिह्न, वाच्य और सूक्ति-चिह्न जैसे शब्दों को कितने लोग समझ पाएंगे, यह भी एक सोचने की बात है।

यह ठीक है कि भाषाविज्ञान को ‘व्याकरणों का व्याकरण’ कहा जाता है और ‘प्रयत्नलाघव’ और ‘मुखसुख’ के कारण (और नाम पर भी) ‘उपाध्याय’ का भी ‘ओझा’ और ‘झा’ तक बन जाता है, लेकिन वहां भी इसकी इजाजत नहीं दी जाती कि व्याकरणिक चिह्नों और प्रतीकों को ही उड़ा दिया जाए। यहां मैं जब ‘चिह्न’ लिख रहा हूं तो मुझे तमाम वाक्‍यों में लिखा हुआ ‘चिन्‍ह’ याद आ रहा है जिसका बचाव यह कह कर किया जाता है कि आप व्‍यवहार में चिह्न थोड़े बोलते हैं, चिन्‍ह बोलते हैं न। तो वैसा ही लिखें भी।

संस्कृत और जर्मन को सहज और वैज्ञानिक भाषा इसलिए माना जाता है कि उसमें जो बोलते हैं, वही लिखते हैं और जो लिखते हैं, वही उच्चारण भी करते हैं। अगर उच्‍चारण ही गलत हो जाए तो? क्‍या आप अपने उच्‍चारण को सही मानकर वैसे ही लिखने लग जाएंगे?

आज डिजिटलीकरण के जो भी पुरोधा ‘सहज-सरल’ होने या दिखने के नाम पर यलगार कर रहे हैं, उनसे यही विनम्र आग्रह है कि जब बोलने और लिखने पर ही जोर है, तो फिर हिंदी के वर्णों और चिह्नों की हत्या कर वे कौन सा मुकाम पाना चाहते हैं? जो बोलते हो, वो लिखो… लेकिन सही बोलना तो सीखो, भोले!


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