रूस-यूक्रेन युद्ध और इसमें अमेरिका-नाटो के हस्तक्षेप का विरोध क्यों किया जाना चाहिए

पूर्वी यूरोप के देश नाटो के साथ गोलबंद हो रहे हैं, लेकिन वहां की जनता में ‘महान रूस’ की अवधारणा जगह बना रही है। पूर्वी यूरोप में यह तनाव उसे गृहयुद्ध की तरफ ले जाएगा, जैसा कि यूक्रेन में हो चुका है। इन गृहयुद्धों का प्रयोग आमतौर पर साम्राज्यवादी खेमे के किसी एक देश के कब्जे में ही बदलता है। ये देश रूस या अमेरि‍का का निवाला बन जाएंगे और जनता गुलामी के भंवर में फंस जाएगी।

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आर्थिक असमानता को बढ़ा रहा है भूजल का अंधाधुंध दोहन, भयावह है आने वाला समय!

यूनिसेफ द्वारा 18 मार्च 2021 को जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में 9.14 करोड़ बच्चे गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। बच्चों के जल संकट के लिए अतिसंवेदनशील माने जाने वाले 37 देशों में से एक भारत भी है। यूनिसेफ की रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2050 तक भारत में वर्तमान में मौजूद जल का 40 प्रतिशत समाप्त हो चुका होगा।

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सामाजिक न्याय और दलित भागीदारी की बात करने वाले दल क्या ब्राह्मण वोटों की लालसा त्याग पाएंगे?

अगर ब्राह्मणों को मुसलमानों से कोई समस्या होती तब मुसलमानों से दूरी बनाने के बाद अखिलेश यादव को ब्राह्मणों ने वोट दिया होता जबकि ऐसा कुछ नहीं हुआ। जाहिर सी बात है अखिलेश यादव ब्राह्मणों का मूड समझने में चूक गए। ब्राह्मण समुदाय को मुसलमान विरोधी साबित करने की एक असफल कोशिश अखिलेश यादव ने की है।

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पंजाब चुनाव: नोटा से भी कम पर सिमट गयी कम्युनिस्ट पार्टियां चर्चा का विषय क्यों नहीं हैं?

उत्तर प्रदेश में बसपा के एक सीट जीतने पर बौद्धिक समाज में जैसी खलबली देखी गयी वैसी कम्युनिस्ट पार्टी के बंगाल में लगातार दो बार हारने के बाद भी नहीं देखी गयी। पंजाब में नोटा से भी कम वोट मिलने पर कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों पर कोई चर्चा न होना और भी चौंकाता है।

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चंद्रशेखर के साथ गठबंधन न करने की चूक क्या समाजवादी पार्टी को भारी पड़ी?

चुनावों में धारणा और उसके संकेतों का बहुत महत्व होता है। चंद्रशेखर रावण के इस भावुक अंदाज ने दलित मतदाताओं को एक संदेश देने का काम किया कि समाजवादी पार्टी को उनके नेता की परवाह नहीं है। इतना ही नहीं, अपने को अपमानित करने का आरोप लगाते हुए चंद्रशेखर रावण ने दलित समुदाय के मुद्दे पर अखिलेश यादव के रवैये को लेकर भी जो प्रश्न उठाए, उन सबने दलित वर्ग के एक तबके को समाजवादी पार्टी से अलग करने का काम किया।

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उपभोक्ता अधिकार दिवस: डिजिटल लेनदेन में पारदर्शिता की राह अभी लंबी है

फाइनेंस का डिजिटलीकरण बड़ी सरलता से यह स्थिति उत्पन्न कर सकता है कि आम आदमी का उसकी अपनी जमा पूंजी पर नियंत्रण समाप्त हो जाए। कैशलेस होना चॉइसलेस होना भी है, जमापूंजी के डिजिटल स्वरूप पर आम आदमी की तुलना में सरकार और बाजार का अधिक नियंत्रण होगा।

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‘वल्गर’ समाजवाद व आइडेंटिटी पॉलिटिक्स की वैचारिकी की भूलभुलैया और कांग्रेस का भविष्य

सवाल है कि उत्तर प्रदेश में इस चुनाव में कांग्रेस क्या हासिल करना चाहती थी और कैसे हासिल करना चाहती थी। प्रियंका और कांग्रेस इस ‘क्या’ के बिंदु पर क्लियर थी कि उसे उत्तर प्रदेश में निष्क्रिय पड़ी पार्टी को पुनर्जीवित करना है। ‘कैसे’ के बिंदु पर कांग्रेस के पास कोई बुनियादी कार्यक्रम नही था। संगठन मजबूत करना है, यह तो पता था पर कैसे करना है इसको लेकर समझ का अभाव था।

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विधानसभा चुनाव नतीजे: आर्थिक स्वतंत्रता के बिना क्या स्वतंत्र राजनीतिक निर्णय ले सकती है जनता?

संविधान निर्माताओं की आशंका और चेतवानी को ध्यान में रखते हुए देश के संसदीय चुनाव को इसी नजरिये से देखना चाहिए कि क्या आर्थिक रूप से विपन्न समाज राजनैतिक निर्णय लेने में स्वतंत्र है? या कुछ आर्थिक मदद करके उसकी राजनैतिक स्वतंत्रता को छीना अथवा प्रभावित किया जा सकता है?

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विपरीत परिस्थितियां ही क्रांति को जन्म देती हैं! विधानसभा चुनावों के नतीजों से निकलते सबक

रोचक बात यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने विपक्षियों को ही ‘सांप्रदायिक’ बता दिया। नेता और जनता के बीच शानदार ‘कनेक्टिविटी’ रखने वाले नरेंद्र मोदी का मतदाताओं पर असर दिखा भी जब मुझे कुछ मतदाताओं के द्वारा कहा गया कि जब मुसलमान समाजवादी पार्टी के पक्ष में एक हो सकते हैं, तो हम लोग बीजेपी के पक्ष में एक क्यों न हो?

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ये चुनाव परिणाम बतलाते हैं कि भारतीय राजनीति को नये सिरे से समझने की जरूरत है

कांग्रेस अपनी पार्टी के सबसे बड़े चेहरे प्रियंका के सहारे मैदान पर काफी मेहनत करती नजर आयी पर जमीनी स्तर पर संगठन के अभाव में एक्टि‍विज्‍म पॉलिटिक्स पार्टी को लाभ नहीं दिला पायी।

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